भारत में लंबे समय से एक बात मशहूर है कि, सेंस यानी समझदारी और सेंसरशिप कभी साथ-साथ नहीं चल सकते. इशारा सेंसर बोर्ड की तरफ है, जो मनमाने तरीके से फिल्म और डॉक्यूमेंट्रीज के रिलीज के रास्ते में अड़ंगे लगाता रहा है.
पहलाज निलहानी के कार्यकाल में तो सेंसर बोर्ड को खासी बदनामी झेलनी पड़ी है. उनके 'नैतिकता' और 'राष्ट्रवाद' के ठप्पों ने जितना हैरान फिल्मकारों को किया है, उतना ही आम जनता को भी.
अब निहलानी के नेतृत्व वाले बोर्ड ने बदनामी के अपने ताज में एक और मोती टांक लिया है. बोर्ड ने फिल्म 'लिपस्टिक अंडर माइ बुर्का' को प्रमाणपत्र देने से ही मना कर दिया है.
बोर्ड के इस कदम की मीडिया और सोशल मीडिया में खूब आलोचना हो रही है. लेकिन जब तक इस समस्या की मूल जड़ को खत्म नहीं किया जाएगा, तब तक बोर्ड की मनमानियों की एक से एक मिसाल देने के सिवाय हम कुछ नहीं कर पाएंगे.
जरूरत कानून के उन प्रावधानों पर ध्यान देने की और उन्हें खत्म करने की है जो सेंसर बोर्ड में बैठे लोगों को बेलगाम ताकत देते हैं.
पुरूषों के दबदबे पर चोट
'लिपस्टिक अंडर माइ बुर्का' चार महिलाओं की उम्मीदों और महत्वाकांक्षाओं की कहानी है. ये महिलाएं बस अपने लिए कुछ आजादी चाहती हैं. इस विषय पर बनी फिल्म को सेंसर बोर्ड वालों में मंजूर करने से मना कर दिया है. बोर्ड की तरफ से फिल्म के निर्माताओं को जो पत्र भेजा गया है, उसमें फिल्म को लेकर आपत्तियों का जिक्र है.
इस महिला केंद्रित फिल्म पर उनकी भवें इसलिए तनी हैं क्योंकि यह ऐसी फैंटेसी को दिखाती है जो जीवन से ऊपर हैं.
इससे भी अहम, उनकी नाराजगी लगातार चल रहे सेक्स सीन, गाली-गलौज और ऑडियो पोर्नोग्राफी पर है.
जब भी महिलाओं की आजादी को दिखाया जाता है तो सेंसर बोर्ड में बैठे संस्कृति के रखवालों को ऐतराज होने लगता है. पुरूष के दबदबे वाली सामाजिक व्यवस्था में कोई भी बदलाव की बात होती है तो ये लोग चिंता में पड़ जाते हैं.
विडंबना यह है कि ये लोग अपने डर और नापसंदी को छिपाने के लिए संरक्षणवाद का लबादा ओढ़ लेते हैं और कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों पर बंदिशें लगाने की कोशिश करते हैं जो उनके मुताबिक समाज में बुराई फैलाती हैं और महिलाओं की स्थिति को खतरे में डालती हैं.
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दर्शनशास्त्र के मुताबिक, स्क्रीन पर दिखाई गई या किताब में दर्ज ऐसी कोई भी अभिव्यक्ति जो महिलाओं को गुलामी की बेड़ियां तोड़ते हुए दिखाती है, वह जनता के लिए अच्छी नहीं मानी जाती है. मानो कि इससे 'उनका दिमाग खराब होता है'.
'लिपस्टिक अंडर माइ बुर्का' का निर्देशन करने वाली अलंकृता श्रीवास्तव ने ऐसी ही एक चोट की है. उनकी फिल्म में चार महिलाएं हैं जो सांस्कृतिक नियमों के खिलाफ बगावत करती हैं. यही बात सेंसर बोर्ड को मंजूर नहीं है. फिल्म में अंतरंग दृश्य और कई जगह गाली-गलौज वाली भाषा से सेंसर बोर्ड के लोगों को फिल्म रोकने का और बहाना मिल गया.
कानून ने बनाया ताकतवर
आम धारणा के उलट, समस्या की जड़ ना तो निहलानी और सेंसर बोर्ड में उनकी मंडली है और न ही वो लोग जो भविष्य में बोर्ड को चलाएंगे. बल्कि समस्या की जड़ वे बेलगाम अधिकार हैं जो कानून ने सेंसर बोर्ड को दे रखे हैं.
फिल्मों को प्रमाण पत्र देने और उन्हें सेंसर किए जाने के नियम सिनेमैटोग्राफ अधिनियम और उसके सेक्शन 58 में दिए गए दिशा निर्देशों के तहत आते हैं. इन 18 दिशा निर्देशों पर एक नजर डालने से ही पता चल जाता है कि सेंसर बोर्ड में बैठे लोगों के पास किस कदर अपार ताकत है. जिसका अकसर इस्तेमाल वो इस तरह करते हैं कि फिल्में उनकी विचारधारा की गुलाम बन जाती हैं.
मिसाल के तौर पर, ऐसा कुछ भी नहीं दिखाया जा सकता जिससे 'कानून व्यवस्था खतरे में' पड़े या जिसके जरिए महिलाओं को गलत तरीके से पेश किया गया हो. साथ ही, अगर रेप और छेड़छाड़ जैसे महिलाओं के खिलाफ अपराधों वाले दृश्य फिल्म की कहानी के लिए बहुत जरूरी हैं तो उन्हें कम से कम दिखाया जाए और उन्हें ज्यादा स्पष्टता से दिखाने की जरूरत नहीं है.
गालियों का इस्तेमाल करने पर भी रोक है, भले ही वे फिल्म के विषय का अहम हिस्सा हों. इसलिए 'लिप्स्टिक अंडर माई बुर्का' को सेंसरशिप के जाल में फंसना ही था.
नाकाफी सिफारिशें
शायद सेंसर बोर्ड की बढ़ती आलोचना को देखते हुए ही सरकार ने 2015 में मशहूर फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई थी. इस कमेटी को भारत में सेंसरशिप की व्यवस्था में सुधार के लिए सिफारिश और सुझाव देने का काम सौंपा गया.
कमेटी ने अप्रैल 2016 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में कुछ अच्छी सिफारिशें दी हैं. जैसे, बोर्ड फिल्मों को सेंसर करने की बजाय सिर्फ उन्हें प्रमाणपत्र दे.
कमेटी ने यह भी कहा कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) 'नैतिकता का हवाला देकर यह तय न करे कि कौन सी चीज किसी विषय को प्रोत्साहित या महिमामंडित करेगी और कौन सी उसे नुकसान पहुंचाएगी'. इसके बावजूद कई बातों पर ध्यान नहीं दिया गया, जिससे कमेटी के किए सारे अच्छे काम पर पानी फिर सकता है.
पहला, कमेटी को सिर्फ मौजूदा कानूनी ढांचे में रहते हुए सिस्टम में बदलाव के लिए सुझाव देने का काम सौंपा गया था.
दूसरा, इसकी सिफारिश संख्या 5.2 में कहा गया है कि सीबीएफसी को सेंसरशिप वाली भूमिका में नहीं आनी चाहिए, 'जब तक कि कोई फिल्म सिनेमैटोग्राफ अधिनियम के सेक्शन 5बी में दिए गए प्रावधानों का उल्लंघन न करती हो या प्रमाणन की सर्वोच्च कैटेगरी में निर्धारित सीमाओं से बाहर न जाती हो..'
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इस तरह, कमेटी की सिफारिशों से उन दिशा निर्देशों पर कोई आंच नहीं आती जो सेंसर बोर्ड में बैठे लोगों को असीमित ताकत देते हैं. निहलानी सीबीएफसी के सभी कदमों का बचाव करते हैं और बोर्ड की आलोचना को खारिज करते हैं.
उनका कहना है कि 'बोर्ड सिर्फ अपना काम कर रहा है'. यह भी साफ नहीं है कि अगर फिल्मकार एग्जामिनिंग कमेटी के फैसले के खिलाफ फिल्म सर्टिफिकेशन अपीली ट्राइब्यूनल का दरवाजा खटखटाते हैं तो उनकी फिल्म का मुकद्दर होगा.
एक बात तो साफ है कि जब तक इन दिशा निर्देशों की वैधता और संवैधानिकता को चुनौती नहीं दी जाएगी तब तक फिल्मों पर कैंची चलती रहेगी. उनकी रिलीज में अड़ंगे लगते रहेंगे.
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