आजकल राष्ट्रवाद और देशभक्ति का जोश कुछ ऐसा है कि है सब कुछ इसी चश्मे से देखा-परखा जा रहा है. किसी भी वाजिब सवाल को उठाने से पहले खासकर सेना और पुलिस से जुड़े सवालों पर.
ऐसे माहौल में यह और मुश्किल हो जाता है जब सेना या पुलिस की ज्यादती पर आपने कुछ कहा नहीं कि आपको देशद्रोही करार दिया जाए.
ऐसे ही मुश्किल वक्त में साहित्य, सिनेमा और कला का काम शुरू होता है. कला की क्रिएटिविटी की असली परख तो 'सेंसरशिप' में ही होती है. यह कला की ताकत है कि वह पॉपुलर भावना की काट पॉपुलर तरीके से कर पाए.
'राष्ट्रवादियों' को चुभ सकते हैं कई डायलॉग
10 फरवरी को रिलीज हुई ‘जॉली एलएलबी 2’ ने 'राष्ट्रवाद' की आंधी के बीच कुछ ऐसा ही करने की कोशिश है.
अभी तक 'जॉली एलएलबी 2' बाटा ब्रांड के जूते और न्यायपालिका की गरिमा को गिराने जैसे आरोपों की वजह से विवादों में रही है. सेंसर बोर्ड ने इसके चार सीन काट भी दिए. फिर भी फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है जो सिस्टम, राष्ट्रवाद के प्रेरित पॉपुलर सेंटीमेंट और कॉमन सेंस पर अटैक करने के लिए काफी है.
फिल्म की कहानी एक बेगुनाह मुसलमान ‘इकबाल सिद्दकी’ के फर्जी इनकाउंटर के इर्द गिर्द घूमती है. जिसे इकबाल कादरी साबित करके एक फर्जी इनकाउंटर में मार दिया जाता है.
पॉपुलर बॉलीवुड फिल्मों के लिहाज से देखें तो अभी तक इनकाउंटरों को सही ठहराने वाली फिल्मों का ही बोलबाला रहा है. जिसमें ‘राष्ट्रवाद’, ‘देशभक्ति’ और ‘आतंकवाद’ का तड़का होता है. इसी पॉपुलर भावना को भुनाकर ऐसी फिल्मों द्वारा सेना या पुलिस द्वारा किए गए इनकाउंटरों को सही बताया जाता है.
इस तरह की हर फिल्म में कहा जाता है कि ‘एवरी थिंग इज फेयर इन लव एंड वॉर’. और अगर किसी बेगुनाह की मौत हो भी गई तो इसे अपवाद कहकर जस्टीफाई किया जाता है.
‘जॉली एलएलबी 2’ में भी बचाव पक्ष के वकील प्रमोद माथुर (अन्नू कपूर) आतंकवाद और देशभक्ति पर भाषण देते हुए कहते हैं कि ‘वी आर इन द स्टेट ऑफ वॉर. एवरी थिंग इज फेयर इन लव एंड वॉर. हमें यह फैसला करना है कि हमें सूर्यवीर सिंह जैसा अफसर चाहिए या इकबाल कादरी जैसा हत्यारा.’
सूर्यवीर के कारनामे को सही ठहराने के लिए अदालत को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने के लिए वकील माथुर आतंकवाद से पीड़ित अपने पिता को अदालत में ले आते हैं.
हर बात में कागजी सबूत खोजने वाली अदालतों में ऐसे कई फैसले भावनात्मक आधार पर हो चुके हैं या अदालती बहसों में ऐसी नजीर दी जाती रही है.
इस फिल्म ने किसी पॉपुलर सेंटिमेंट को सीधे-सीधे बदलने की कोशिश नहीं किया है. बल्कि इस सेंटिमेंट के बरक्स दूसरे पॉपुलर सेंटिमेंट को रखने की कोशिश की है.
फेक इनकाउंटर की कड़वी सच्चाई
पूरी दुनिया में आज एक आम राय है कि ‘हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान ही होता है.’ इस फिल्म में जो असली आतंकवादी है वह भी मुसलमान है. लेकिन गौरतलब बात यह है कि फर्जी इनकाउंटर में मरने वाला भी मुसलमान है.
गुजरात, यूपी, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में जितने भी फर्जी इनकाउंटर और गिरफ्तारी के कई मामले उजागर हुए हैं. और यह कड़वी सच्चाई है कि इन पीड़ितों में अधिकतर मुसलमान ही हैं.
'जॉली एलएलबी 2' ने हंसी-मजाक के माहौल में इस कड़वी सच्चाई को सरल तरीके से पेश करती है.
यह फिल्म ऐसे वक्त में आई है, जब यूपी और मणिपुर समेत पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं. यूपी और मणिपुर में फर्जी इनकाउंटर, पुलिस और सेना की ज्यादती एक प्रमुख मुद्दा है.
मणिपुर में इरोम शर्मिला तो सेना को 'आफ्सपा' के तहत मिले विशेष अधिकार को ही मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ रही हैं.
इस फिल्म में आतंकवादी को फर्जी इनकाउंटर करने अफसरों को एक ही खांचे में रखा है. यह पॉपुलर बॉलीवुड सिनेमा के लिहाज से बड़ी बात है.
प्यार और जंग में सब जायज नहीं
फिल्म में 'एवरी थिंग इज फेयर इन लव एंड वॉर' जैसे पॉपुलर स्टेटमेंट को काटते हुए जॉली बने अक्षय कुमार कहते हैं, 'इस दुनिया के सबसे बड़े जाहिल ने कहा था कि इश्क और जंग में सब कुछ जायज है. अगर ऐसा है तो सीमा पर जवानों के सिर काटने वाले भी जायज हैं और लड़कियों पर एसिड फेंकने वाले भी जायज हैं. अगर ऐसा है तो इक़बाल कादरी भी जायज है और सूर्यवीर सिंह भी.'
इस डायलॉग पर गौर फरमाएं तो सीमा पर खड़े जवानों की शहादत का जिक्र करके यह फिल्म सबसे पहले हिलोरें लेती 'राष्ट्रवाद' को शांत करती है. उसके बाद फेक इनकाउंटर करने वाले अफसरों को चुपके से आतंकवादी की श्रेणी में भी डाल देती है. यह इतनी खूबसूरती से हुआ है कि सभी को इस पर सहमत होना ही पड़ता है.
कश्मीर में 'आजादी' वाले नारे को भी इस फिल्म ने 'इंसाफ' में बदल दिया है. और 'यह कश्मीर है जनाब यहां जेल जाना सिम कार्ड खरीदने से ज्यादा आसान है' कहकर कश्मीरियों के दर्द को बयां कर दिया.
यह शायद एक संयोग हो कि संसद हमले के आरोपी 'अफजल गुरु' को दी गई फांसी यानी 9 फरवरी के महज एक दिन बाद ही यह फिल्म रिलीज हुई. पिछले साल इसी तारीख को 'जेएनयू प्रकरण' हुआ था. इसके बाद पूरे देश में 'देशभक्ति', 'राष्ट्रवाद' और कश्मीर जमकर बहस चली थी.
ऐसे जब सिर्फ 33 दिनों में पूरी फिल्म बनाई गई है, रिलीज की तारीख को संयोग मानना थोड़ा मुश्किल ही है.
'जॉली एलएलबी 2' की सफलता इस बात में है कि तथाकथित 'राष्ट्रवादियों' की नजर इस पर नहीं पड़ी. यह फिल्म वकील, कोर्ट, जज और बाटा के इमेज संबंधी विवादों में फंसी रही. शायद यह भी एक वजह रहा कि 'सेंसरशिप' के जमाने में यह फिल्म कुछ और कहने की कोशिश कर पाई.
जहां तक बात रही न्यायपालिका के इमेज की तो यह फिल्म पूरी व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करती है. जहां आम इंसान खासकर एक मुसलमान के लिए 'इंसाफ' पाना नामुमकिन ही है. यह एक पॉपुलर बॉलीवुड मसाला फिल्म है और यहां इंसाफ करना फिल्म की मजबूरी थी.
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