फिल्म जगत में अपने पूरे जीवन भर कैमरे के पीछे रहने वाले इस सितारे की महत्ता फिल्म जगत में आज दिखाई देती है, जब पीके और थ्री ईडियट्स बनाने वाले राजकुमार हीरानी कहते हैं कि ऋषि दा के आनंद जैसा माहौल वो आज भी देखना पसंद करेंगे. जहां पर किसी किस्म की कड़वाहट नहीं होती विलेन नहीं होता है या फिर जब पीकू को लिखने वाली जूही चतुर्वेदी मानती हैं कि उनके फिल्मों का लेखन ऋषि दा की फिल्मों से प्रेरित है तब लगता है कि ऋषिकेश मुखर्जी आज भी जिंदा हैं और उनकी प्रासंगिकता बनी हुई है.
शायद इसलिए कॉमेडी फिल्मों की और आम आदमी के चित्रण जब भी बात उठती है तब तब ऋषीकेश मुखर्जी का जिक्र होता है. आज के फिल्मकारों के लिए आनंद, गोलमाल, चुपके-चुपके, मिली, गुड्डी, अभिमान, सत्यकाम, अनुपमा फिल्में नहीं बल्कि फिल्म कैसे बनाई जाती है इसकी कुंजी है.
थियेटर से की थी शुरुआत
ऋषि दा जब 50 के दशक में बंबई आए थे तो वो अकेले नहीं आए थे. बिमल रॉय के साथ एक पूरा हुजूम आया था सिने जगत पर राज करने के लिए और इसी हुजूम का वो भी हिस्सा थे. उस ग्रुप में उनके साथ लेखक नवेंदु घोष और निर्देशक असित सेन भी थे. बिमल रॉय की फिल्मों में उनका कॉन्ट्रीब्यूशन बतौर एडिटर हुआ करता था. तब तक बिमल रॉय के साथ ऋषि दा लगभग पांच साल तक उनके न्यू थियेटर्स में काम कर चुके थे. बंबई पहुंचकर सभी ने अपना आशियाना बनाया उस वक्त के मशहूर बॉम्बे टाकीज के पास ही मलाड में.
काम की तलाश में भटक रहे बिमल रॉय की पूरी टोली एक दिन फुर्सत के पल में साउथ बंबई के मशहूर इरोज में सिनेमा देखने पहुंचे. मशहूर फिल्मकार अकीरा कुरोसावा की फिल्म रशोमोन देखकर वापस लौटने के बाद फिल्म ने उन सभी के ऊपर इतना प्रभाव छोड़ा की बेस्ट की बस में बैठकर आते वक्त किसी ने एक दूसरे से बात नहीं की. तभी बिमल दा ने कहा की ऐसी फिल्में कौन लिखेगा यहां पर? जवाब उनको मिला ऋषि दा से. ऋषि दा ने कहा कि आप मौका दीजिए लिखने का. उस डबल डेकर बेस्ट बस के सफर में इतिहास बनने जा रहा था. इस पूरी बातचीत के बाद बिमल रॉय प्रॉडक्शन्स की नींव उसी बेस्ट की बस में बनी थी.
गुलज़ार के साथ ऋषि दा की जोड़ी
गुलजार के साथ ऋषि दा ने कई फिल्मों में एक लंबा सफर तय किया था. यहां तक कि उनकी फिल्म गुड्डी का निर्देशन आखिरी वक्त तक गुलजार खुद करने वाले थे क्योंकि खुद ऋषि दा ऐसा चाहते थे. लेकिन कुछ कारणवश फिल्म के निर्देशन की कमान खुद उन्हीं को संभालनी पड़ी.
उनके काम करने के स्टाइल को लेकर एक बार गुलजार ने अपने एक साक्षात्कार में रोशनी डाली थी. उनके बक़ौल ऋषि दा एक्स्ट्रा शॉट्स या फिर एक्स्ट्रा एंगल में विश्वास नहीं करते थे और एडिटर होने की वजह से फिल्म के सारे सीन्स अपने दिमाग में ही एडिट कर लिया करते थे. जब सेट पर फिल्म के सींस को फिल्माने का काम चल रहा होता था तो उस दरमियान ऋषि दा शतरंज के खेल में व्यस्त रहते थे और अचानक बीच बीच में इंस्ट्रक्शन्स देते रहते थे.
उनकी कहानियां आम जिंदगी के करीब होती थीं
ऋषि दा अपनी कहानियों को आम जिंदगी से ही उठाते थे और इसका एक जीता जागता नमूना खुद उनकी फिल्म गुड्डी है. एक बार हवाई जहाज़ में सफर करते वक्त उनकी मुलाकात हो गई अभिनेत्री नूतन और तनुजा की बहन चारुता से. चारुता उस वक्त बतौर एयर होस्टेस काम किया करती थी. ऋषि दा उन दिनोंं आनंद की शूटिंग शुरु कर चुके थे. चारुता ठहरी राजेश खन्ना की ज़बरदस्त फैन लिहाजा हर दो मिनट पर वो ऋषि दा से अपने पसंदीदा सितारे के बारे में पूछने आ जाया करती थी. सितारों के आम जनता के मानस पटल पर उनके करिश्मे को ऋषि दा ने गुड्डी में अपना केंद्र बिंदु बनाया.
जब ऋषि दा का फिल्मों में सिक्का चल निकला था तब उन्होंने बांद्रा के कार्टर रोड पर रहना शुरु किया जिसमें वो लगभग तीस साल तक रहे. उनके मकान का नाम था आशियाना. आशियाना आने वाले दिनों में मिनी बंगाल या फिर यूं कहें कलकत्ता का अड्डा बन गया था. अगर उत्पल दत्त कलकत्ता से आते थे तो सीधे रुख करते थे आशियाना की तरफ. उसी जगह पर अमिताभ बच्चन और जया एक दूसरे से बात करते हुये अक्सर मिल जाते थे तो वहीं दूसरी ओर ऋत्विक घटक सोते हुए दिखाई देते थे. रेखा अगर व्यायाम करते हुए दिखाई देती थीं तो दूसरे कमरे में राही मासूम रज़ा और राजेंद्र सिंह बेदी के बीच शेरो शायरी का सेसन्स अपने पूरे शबाबा में होता था.
कुल मिला कर आशियाना अपना नाम पूरी तरह से सार्थक करता था. घर पर कुछ ना कुछ हरकत होती ही रहती थी कई कुत्तों की नस्लों के बीच. एक दिन मशहूर कलाकार बिश्वजीत का उनके घर पर आना हुआ तो उस वक्त घर पर उन्होंने देखा कि किसी फिल्म की कई रीलें बिखरी पड़ी थी. कौतुहलवश बिश्वजीत ने पूछ ही लिया कि दादा आप कौन सी फिल्म बना रहे हैं? ऋषि दा ने जवाब दिया की कुछ समय पहले मनमोहन देसाई आए थे और वही उन्हें छोड़ कर गये है, वो चाहते हैं कि मैं उनकी इस फिल्म को एडिट करुं. वो फिल्म थी कुली जिसकी सफलता में भी ऋषि दा का हाथ था.
जब राजेश खन्ना के लिए बदला था क्लाईमैक्स
लेकिन ऐसा नहीं की नामचीन निर्देशक होने की वजह से उनको परेशानियों से दो चार नहीं होना पड़ा. नमक हराम बनाते वक्त उनको पता चला कि दो सुपरस्टार्स के साथ काम करना कोई आसान काम नहीं होता है. एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि फिल्म का क्लाईमैक्स क्या है, इस बात का खुलासा उन्होंने ना राजेश खन्ना के सामने किया था और ना ही अमिताभ बच्चन को बताया था.
फिल्म के ओरिजनल क्लाईमैक्स में अमिताभ बच्चन के किरदार को मरते हुए फिल्म में दिखाया जाना था लेकिन राजेश खन्ना को किसी तरह से इस बात का पता चल गया. उनको पता था कि जिस फिल्म के आखिर में उनकी मृत्यु होती है वो हमेशा सफल रहती है. उन्होंने ऋषि दा से ये बात भी कही कि बड़े स्टार होने के नाते मरने वाला सीन उनके ऊपर ही फिल्माया जाना चाहिए.
ऐसा कहा जाता है कि राजेश खन्ना ने अपने निर्देशक को मनाने के लिए अपने फोटो पर माला भी चढ़ा दी थी. बाद में ऋषि दा को राजेश खन्ना के सामने घुटने टेकने पड़े थे. एक इंटरव्यू में ऋषि दा ने खुद इस बात का खुलासा किया था कि जब अमिताभ बच्चन को इस बात का पता चला था तो वो बेहद दुखी हो गये थे. आलम ये था कि उन्होंने कई दिनों तक मुझसे बात नहीं की थी और उन्हें लगता था कि उनके साथ धोखा किया गया है.
उनके आखिरी दिनों में उस वक्त के रेल मंत्री माधवराव सिंधिया ने उन्हें निमंत्रण दिया था कि वो रेलवे के उपर एक डाक्यूमेंट्री बनाएं. जाहिर सी बात है उस डाक्यूमेंट्री को बनाने के लिए उनको कई दिनों तक हिंदुस्तान के कई कोनों में जाना पड़ता. आखिर में खराब सेहत की वजह से उनको उस डाक्यूमेंट्री बनाने को लिए ना कहना पडा. ऋषि दा कुछ और भी विषयों पर काम कर रहे थे जो फिल्म का रूप नहीं देख पाईं.
शहीद उधम सिंह की कहानी पर उन्होंने कुछ दिनों तक काम किया था. इसके अलावा मराठी उपन्यासकार अनिल बर्वे की किताब थैंक यू, मिस्टर ग्लैड जिसकी पृष्ठभूमि 1942 के आंदोलन की थी उसे भी वो रुपहले पर्दे पर ले आना चाहते थे दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन और अमजद खान के साथ. उन्होंने अपनी इस फिल्म के जरिए ये भी कहा था कि वो इस फिल्म से इनके अंदर के कलाकार को निकालना चाहते हैं ना कि उनके अंदर के स्टार को शोषित करना चाहते हैं.
अपने आखिरी दिनों में ऋषि दा अपनी बीमारी की वजह से काफी परेशान थे और आखिरकार 27 अगस्त, 2006 में 83 साल की उम्र में जीवन को अलविदा कह दिया और कुछ छोड़ गए तो नायाब काम जिससे आने वाली पीढ़ियां साल दर साल फिल्मों को बनाने की बारीकियां सीखती रहेगी.
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