नामों का इतिहास भी कभी-कभी अजीब होता है .जैसे जिस साम्राज्य को इतिहास में मुगल साम्राज्य के नाम से जाना जाता है और ऐतिहासिक फिल्मों में ‘मुगलिया सल्तनत’ शान से कहा जाता है, उसके किसी सदस्य को अगर उस दौर में ‘मुगल’ कहा जाता तो मुमकिन है वह गुस्से में तलवार निकल लेता.
मुगलों को नापसंद था, मुगल कहलाना
मुगल शब्द से उन लोगों को चिढ़ थी क्योंकि उन दिनों मुगल शब्द मंगोलों के लिए इस्तेमाल होता था और उज़बेकिस्तान में जहां से ये लोग आए थे ,वहां मंगोलों से उनकी भयानक दुश्मनी थी. वे मंगोलों को सांस्कृतिक रूप से कमतर भी मानते थे.
बाबर का परिवार भी मूलतः मंगोल था जो उज़बेकिस्तान में बस गया था. बाबर पिता की ओर से तैमूरलंग का और मां की ओर से चंगेज़ खान का वंशज था. ये लोग सांस्कृतिक रूप से तुर्क थे और तुर्की भाषा का एक रूप चगताई बोलते थे. जिसमें बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा ‘लिखी.
ये लोग खुद को गर्व से ‘खानदाने तैमूरिया' कहते थे लेकिन इतिहास में वे मुगल शब्द से याद किए जाते हैं जो उन्हें उस समय अपमानजनक लगता था.
यह भी इतिहास का खेल है कि अब मुगल शब्द शाही नफासत और भव्यता का का प्रतीक है और हर दूसरा रेस्टोरेंट मुगलिया खाना परोसने का दावा करता है.
दूसरी ओर ‘तैमूर ‘शब्द से वैसा बवाल खड़ा होता है जैसा करीना कपूर और सैफ अली खान के नवजात बच्चे का नाम ‘तैमूर’ रखने पर सोशल मीडिया पर मचा है. अगर हम थोड़ा बहुत भी इतिहास समझें तो यह सबक ले सकते हैं कि इतिहास को लेकर जो बवाल वर्तमान में होते हैं वे कितने व्यर्थ हैं.
इतिहास का अधकचरा ज्ञान है, विवाद की जड़
इतिहास को लेकर लोग अक्सर उत्तेजित और कभी कभी हिंसक इसलिए नहीं होते कि इतिहास में कुछ ऐसा हुआ है जिसका बदला लेना जरूरी हो. बल्कि लोग अपनी नफरत और हिंसा के लिए बहाना ढूंंढते रहते हैं जो उन्हें इतिहास की अधकचरी समझ से मिलता है.
इसी तरह लोग सम्मान और प्रेम की जगह अपमान का सूक्ष्मतम कारण दूरबीन लेकर ढूंंढते रहते हैं ताकि भावनाएं आहत होने और नफरत करने का सुख पा सकें.
ऐसा क्यों है कि अपने देश से प्रेम की सबसे मुखर अभिव्यक्ति पाकिस्तान से नफरत और अपने धर्म से लगाव दूसरे धर्म के विरोध से ही होती है.
बेवजह की दिलचस्पी
करीना और सैफ के पुत्र के नाम को लेकर कुछ चुहल तो स्वाभाविक है लेकिन यह भी देखना होगा कि कहांं यह टीका-टिप्पणी सांप्रदायिक नफरत को टांगने के लिए खूंंटी का काम कर रही है.
दूसरी बात, एक दम्पति को एक संतान हुई. उन्होंने उसका कुछ नाम रखा उससे हमें क्या लेना-देना? हम न उनके रिश्तेदार हैं न पड़ोसी हैं. उनकी अपनी जिंदगी है, हमारी अपनी जिंदगी है.
यह ‘तू कौन,मैं खामख्वाह' किस्म की दिलचस्पी क्या स्वाभाविक कही जा सकती है ? सोशल मीडिया का वही इस्तेमाल हम लोग कर रहे है जो कभी कुछ लोग सार्वजनिक शौचालय की दीवारों का करते थे .
इस वजह से जब ऐसी बेलगाम टीका-टिप्पणी जब होती है तो तो हमें याद रखना होगा कि वह किसी पवित्र उद्देश्य से नहीं होती. बल्कि अपने अंदर के अज्ञान और नफरत से निकलती है. साथ ही यह सार्वजनिक शौचालय की दीवारों पर अभिव्यक्त कुंठा का ही रूप है .
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