धड़क में सैराट की धड़कन गायब है और पूरी तरह से गायब है. धड़क को देखने के बाद यही लगता है कि क्लासिक फिल्मों को कभी भी छूना नहीं चाहिए. अगर सैराट में मिट्टी की खुश्बू थी तो निर्देशक शशांक खेतान की इस रीमेक में मिलावट की मात्र कुछ ज्यादा ही है जिसकी वजह से मुमकिन है कि आप इसको पचा नहीं पाएंगे और बदहजमी होने की पूरी उम्मीद है.
सैराट मूलत एक प्रेम कथा थी जिसके हर सीन में कुछ ना कुछ ऐसा था जिसने सीधे दिल के तारों को झकझोरा था लेकिन धड़क में ऐसा कुछ भी आपको देखने को नहीं मिलेगा. बॉलीवुड की हिट प्रेम कहानियों में एक चीज हमेशा से सामान रही है और वो ये है कि उन फिल्मों में कुछ सीन ऐसे होते हैं जो आपकी आंखों में आंसू लाने में कामयाब रहते हैं या फिर आपके अंदर भावनाओं का समंदर ले आते हैं.
धड़क की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि फिल्म में एक भी ऐसा सीन नहीं है. करण जौहर के बैनर तले निर्मित होने का भी खामियाजा इस फिल्म को उठाना पड़ा है. जहां पर चीज़ों को सिंपल रखना चाहिए था तो वहां पर बैनर के पैसों की चमक दमक ने चीजों की खूबसूरती को पूरी तरह से मटियामेट कर दिया है. धड़क एक अधपकी फिल्म है जिसकी आत्मा पूरी तरह से गायब है.
जाति की मार में उलझी लवस्टोरी
धड़क की कहानी उदयपुर से शुरू होती है जहां पर फिल्म के मुख्य किरदार मधुकर (ईशान खट्टर) और पार्थवी (जान्ह्वी कपूर) का परिवार रहता है. पार्थवी के पिता वहां के नेता हैं जो अगला विधान सभा चुनाव जीतने में कामयाब रहते हैं. पार्थवी का परिवार काफी संपन्न परिवार है जिसकी धाक पूरे शहर में है. वहीं दूसरी तरफ मधुकर के पिता एक रेस्टोरेंट चलाते हैं जिसकी आमदनी विदेशी सैलानियों की वजह से बनी रहती है. मधुकर और पार्थवी एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं और आगे चलकर दोनों के बीच प्रेम पनपता है. जब इस बात की जानकारी पार्थवी के पिता को चलती है तब पुलिस की मदद से वो मधुकर और उसके दोस्तों की पिटाई के बाद पुलिस के हवाले कर देते हैं लेकिन उसी वक्त पार्थवी की सूझबूझ की वजह से दोनों वह से भागने में कामयाब रहते हैं.
दोनों ही अपने परिवार के डर की वजह से उदयपुर से भागकर नागपुर पहुंच जाते हैं जहां पर मधुकर के मामा उनको कोलकाता जाने की सलाह देते हैं ताकि वो सुरक्षित रह सकें. कई साल बीत जाते हैं और दोनों माता पिता भी बन जाते हैं. अपनी मेहनत की वजह से मधुकर और पार्थवी कोलकाता में एक छोटा सा घर खरीदने में भी कामयाब हो जाते हैं. गृह प्रवेश की पूजा के लिए जब पार्थवी अपने मां को फोन करके कोलकाता आने का निमंत्रण देती है तब पार्थवी के पिता को इस बात की जानकारी हो जाती है कि उसकी बेटी कोलकाता में है.
गृह प्रवेश की पूजा में पार्थवी के मां बाप तो नहीं आ पाते है लेकिन पार्थवी का भाई अपने दोस्त के साथ जरूर अपनी बहन से मिलने के लिए आता है. इसके बाद क्लाइमेक्स का खुलासा करना ठीक नहीं होगा. इतना जरूर कहूंगा की एक शानदार क्लाइमेक्स के दर्शन किसी हिंदी फिल्म में सालों बाद हुए है लेकिन इसका पूरा सेहरा ओरिजिनल फिल्म सैराट को जाता है.
ईशान ने धाक जमाई लेकिन जान्ह्वी को वक्त लगेगा
अभिनय के मामले में ईशान खट्टर और जान्ह्वी कपूर के अभिनय कौशल को हम माइक्रोस्कोप की कसौटी पर नहीं कस सकते हैं. दोनों ही नए हैं. अगर ईशान की ये दूसरी फिल्म है तो वही श्रीदेवी की बेटी जान्ह्वी कपूर धड़क से फिल्म दुनिया में पदार्पण कर रही हैं. ईशान खट्टर मधु की भूमिका में बेहद सहज दिखे हैं. जान्ह्वी ने अपनी पहली फिल्म में गलतियां जरूर की हैं लेकिन पहली फिल्म होने की वजह से उनको माफ किया जा सकता है.
फिल्म में मैंने एक चीज़ का अनुभव किया कि जान्हवी की बॉडी लैंग्वेज पूरी फिल्म में काफी ढीलीढाली लगी. अब यह निर्देशक का निर्देश था या फिर ये उनका सहज अभिनय का तरीका है. ये कहना मुश्किल होगा लेकिन एक बात पक्की है कि उनकी ढीली बॉडी लैंग्वेज फिल्म की लय के साथ मेल नहीं खाती. लेकिन आने वाले समय में लोगो की निगाहें उनके ऊपर रहेंगी क्योंकि एक कुशल अभिनेत्री होने के सारे गुण उनके अंदर हैं.
आशुतोष राणा फिल्म में जान्हवी के पिता के रोल में है और गनीमत है कि इस बार उन्होंने ओवरएक्टिंग नहीं की. ईशान के दोस्त फिल्म में अंकित बिष्ट और श्रीधर वत्सर बने है और फिल्म का कॉमिक रिलीफ इन दोनों की वजह से ही आता है.
अगर सैराट देखी है तो धड़क नहीं जमेगी
ये बात पूरी तरह से तय है कि जिन लोगों ने इसके पहले सैराट देखी है उनको ये फिल्म पसंद नहीं आएगी. फिल्म में ईशान खट्टर के पिता अपने बेटे को जान्ह्वी से मिलने के लिए मना करते हैं और उनकी दलील ये है कि जान्ह्वी का परिवार ऊंची जाति का है और वो निचली जाति के दर्जे में आते हैं. लेकिन शशांक की इस फिल्म में एक भी ऐसा सीन नहीं है जब इस बात को पर्दे पर लाया गया जिसकी वजह से कहानी मे तनाव बढ़ता है.
उदयपुर को फिल्म मे इस ढंग से दिखाया गया है कि आपको वहां जाने का मन जरूर करेगा क्योंकि देखकर यही लगता है कि वह पर सभी डिजाइनर कपड़े पहनते हैं और सब कुछ बेहद साफ सुथरा है. इसी वजह से मिट्टी की महक आपको नहीं मिल पाएगी. मुझे तो फिल्म के पहले सीन से ही शिकायत है. अगर सैराट की बात करें तो फिल्म की शुरुआत बड़े ही बेसिक लेवल के क्रिकेट टूर्नामेंट से होती है.
अब क्रिकेट एक ऐसा खेल है जो देश के लगभग हर कोने में खेला जाता है और किसी भी प्रांत का व्यक्ति फटाफट इससे खुद को रिलेट कर सकता है. धड़क की शुरुआत खाने की प्रतियोगिता से होती है. अब खुद राजस्थान में ऐसी प्रतियोगिता होती है या नहीं मुझे इसका इल्म नहीं है लेकिन एक बात तो पक्की है कि बाकी प्रांत के लोगों को ये जरुर अटपटा लगेगा.
करण जौहर को इस फिल्म में अपने रंगों की कुची नहीं चलानी चाहिए थी. सैराट के बॉक्स ऑफिस पर चलने की एक बड़ी वजह ये भी थी की जिस परिवेश में इसकी कहानी कही गई थी वो पूरी तरह से स्क्रीन पर भी नजर आई थी और उसने लोगो को दिलो को छुआ था.
फिल्म में इमोशंस और टेंशन नदारद है
ऐसा भी होगा कि जिन लोगो ने सैराट नहीं देखा है उनको यह फिल्म पसंद आए. लेकिन अगर सैराट को कुछ समय के लिए इस फिल्म से अलग भी कर दें तो एक प्रेम कहानी में इमोशंस इसके सबसे बड़े हथियार होते हैं. यही वो तरीका होता है जिनकी वजह से निर्देशक आपको फिल्म के करीब लाता है और कुछ मौको पर आपके दिल के तारों को पूरी तरह से झनझनाने में कामयाब भी हो जाता है. इसकी कमी आपको धड़क में नज़र आएगी.
एक प्रेम कहानी में जो टेंशन होती है वो भी इसमें आपको नदारद मिलेगी. निर्देशक शशांक खेतान का तीर निशाने पर न लगकर हर बार उसके आसपास ही लगा है जिसकी वजह से आपको हर बार किसी ना किसी चीज की कमी महसूस होगी. सैराट जिन्होंने देखी है वह अगर धड़क से दूर रहे तो बेहतर है. जिन्होंने नहीं देखी है वो इसका दीदार कर सकते हैं लेकिन एक धमाकेदार फिल्म की उम्मीद मत कीजिएगा.
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