सुधीर मिश्रा की किसी फिल्म के दीदार लम्बे समय के बाद हो रहे हैं और जाहिर सी बात है कि इस हफ्ते रिलीज हो रही ‘दास देव’ को लेकर लोगों के बीच एक अच्छा खासा कौतुहल बना हुआ है. लेकिन जब फिल्म को देखने का मौका मिला तो यही लगा कि इतने लम्बे इंतजार का औचित्य साबित करने में सुधीर मिश्रा सफल नहीं हो पाए हैं. ‘दास देव’ की कहानी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक पृष्ठभूमि पर आधारित है और नि:संदेह इसकी कहानी मे जान है लेकिन ट्रीटमेंट गायब होने की वजह से बिरियानी का स्वाद महज पका हुआ चावल जैसा ही लगता है. चाहे इसकी एडिटिंग हो या फिर इसका बैकग्राउंड स्कोर या फिर साउंड मिक्सिंग ये सब कुछ फिल्म मे औसत से नीचे दर्जे का है और सभी एक साथ मिलकर पूरी फिल्म का मजा किरकिरा कर देते हैं. सुधीर मिश्रा की कहानी का पैनापन तो फिल्म में नजर आ जाता है लेकिन इस फिल्म में उनके निर्देशन की धार में वो ताकत नहीं है जो उनकी पिछली फिल्मों में हमने देखी थी. देखकर साफ नजर आता है कि कमियों की वजह से इस फिल्म को आनन-फानन में पूरा किया गया है.
कहानी की पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश की राजनीति है
फिल्म की कहानी दो भाइयों की है जो उत्तर प्रदेश के जहाना जिले के राजनीति में उलझे हुए हैं. बड़े भाई विशम्भर चौहान (अनुराग कश्यप) की विषम परिस्थितियों में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मौत हो जाती है जिसके बाद छोटे भाई अवधेश चौहान (सौरभ शुक्ला) के कंधे पर राजनीति चलाने और सत्ता के पास रहने की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है. अवधेश मौका देखकर राजनीति की विरासत देव (राहुल भट्ट) को सौंपने का मन बना लेता है. लेकिन देव का मन राजनीति की इस परंपरा को आगे बढ़ाने में नहीं है. बचपन की दोस्त पारो (ऋचा चढ्ढा) से देव को प्यार है और देव अपने बिजनेस को आगे बढ़ाने की कोशिश करता है जो पहले से ही कर्ज में डूबा हुआ है. कुछ और घटनाएं आगे चल कर होती हैं जिसके बाद देव को इस बात का पता चलता है कि उसके पिता की हत्या उनके खुद के भाई ने एक साज़िश के तहत करवाई थी और उसमें साथ दिया था पारो के पति रामाश्रय शुक्ला (विपिन शर्मा) ने. अंत में कहानी कई करवटें बदलती है जिसका खात्मा बंदूकों पर होता है.
सुधीर मिश्रा ने कहानी अच्छी बुनी है लेकिन खामियां भी कई हैं
कहने को इस कहानी का मूल ढांचा शरत चंद्र चटोपाध्याय के देवदास पर आधारित है लेकिन सुधीर मिश्रा को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने अपना एक अलग ही इंटरप्रिटेशन इस कहानी को दिया है. लेकिन ये भी सच है कि अगर ‘देवदास’ कहानी के तीन स्तम्भ देव, पारो और चंद्रमुखी हैं तो ‘दास देव’ के लिए ये बात सच नहीं बैठती है. इसके पीछे वजह ये है कि इन तीनों ही किरदारों को ठीक से तराशा नहीं गया है. देव के शराब पीने की आदत कैसे उसे बर्बादी की कगार पर खड़ा कर देती है इसको फिल्म में उसे ठीक से नहीं दिखाया गया है. देव के किरदार की शुरुआत शराब पीने के ऐब से होती है लेकिन इस बात को आगे चलकर भुला दिया गया है. फिल्म की शुरुआत में आपका परिचय इतने ज्यादा किरदारों के साथ करवा दिया जाता है कि आप भ्रमित हो जाते हैं. ठहराव क्या होता है ये शायद फिल्म बनाने वाले मध्यांतर के पहले भूल गए थे. कुछ पल ऐसे भी आते है जिनको देखकर ऐसा भी लगता है कि आखिर क्या हो रहा है. फिल्म का कैमरा वर्क भी उच्च कोटि का नहीं है और इसमें तमाम खामियां नजर आती है. लेकिन अगर ये फिल्म के माइनस प्वाइंट हैं तो वहीं, दूसरी तरफ सुधीर मिश्रा की तारीफ करनी पड़ेगी की राजनीतिक बिसात पर जो चालें चली जाती हैं उनको अपनी कहानी में अच्छी तरह से पिरोने में कामयाब रहे हैं लेकिन अच्छे प्रोडक्शन क्वालिटी न होने की वजह से इसका सीधा असर कथानक पर पड़ता है. सुधीर मिश्रा ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में छुटभैये का जो तौर तरीका है उसको भी ठीक से दिखाने में फतह पाई है.
राहुल भट्ट का बेजान अभिनय
अभिनय की दृष्टि से ये फिल्म कई जगह पर मात खाती है. राहुल भट्ट देव के रोल में हैं और कहना पड़ेगा कि वो इस रोल में पूरी तरह से अनफिट नजर आते हैं. किरदार की जो नाकामियां हैं, जो उसकी हताशा है उसको वो बाहर निकाल कर लाने में असफल रहे हैं. अब जाहिर सी बात है जब फिल्म का मुख्य किरदार ही ढीला पड़ जाएगा तो उसका असर पूरे फिल्म पर नजर आएगा ही. अलबत्ता पारो के रोल में ऋचा चड्ढा और चांदनी के रोल में अदिति राव कुछ हद तक सम्भली हुई नजर आती हैं लेकिन उन दोनों का भी अभिनय औसत दर्जे का ही है. लेकिन अभिनय के मामले में फिल्म को कोई संभालता है तो वो निश्चित रुप से सौरभ शुक्ला, विनीत कुमार सिंह, विपिन शर्मा और अनिल जॉर्ज ही हैं. इनकी वजह से फिल्म में थोड़ी बहुत जान आ जाती है. मुझे अभी तक पता नहीं चल पाया है कि फिल्म में गानों की भरमार क्यों है? अगर फिल्म एक टाइट पेस बनाकर एक लीक पर चलती तो इसका मजा कुछ और होता. गाने फिल्म की कहानी में दखल देने का ही काम करते हैं.
‘देवदास’ आपको ठगेगा बॉक्स ऑफिस पर
‘दास देव’ एक अच्छी फिल्म बन सकती थी लेकिन कई चीजों के गायब होने की वजह से उसे ये दर्जा नहीं मिल पाएगा और इसके लिए इसका जिम्मेदार फिल्म का टेक्निकल डिपार्टमेंट है. सोचकर आश्चर्य होता है कि सुधीर मिश्रा जिनकी फिल्मों को टाइट एडिटिंग के लिए जाना जाता है वही चीज इस फिल्म में गायब है. पारो, देव और चद्रमुखी या फिर इस फिल्म में चांदनी का प्रेम त्रिकोण भी ठीक से उभरकर सामने नहीं आ पाया है. सुधीर मिश्रा की ईमानदारी इस फिल्म में दिखाई देती है लेकिन उनको दूसरों का साथ इस फिल्म फिल्म में नहीं मिल पाया है. ‘देवदास’ इस बार ठगा हुआ महसूस करेगा खुद को.
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