बॉलीवुड अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी हाल में मीडिया की सुर्खियों में रहे क्योंकि ठाणे पुलिस ने उन्हें कॉल डिटेल रिपोर्ट स्कैम मामले में पेशी के लिए बुलाया था. संक्षेप में कहें तो उनके खिलाफ यह आरोप था कि उन्होंने अपने वकील के माध्यम से गैरकानूनी तरीके से अपनी बीवी की कॉल डिटेल हासिल की. जाहिर तौर पर उनका मकसद अपनी बीवी की जासूसी करना था.
आरोप है कि उनके वकील ने इसके लिए कुछ प्राइवेट जासूसों को पैसा दिया. जासूसों ने पुलिस में मौजूद अपने संपर्कों का सहारा लेकर कॉल डिटेल हासिल की. इस मामले में एक पुलिस वाला भी गिरफ्तार हो चुका है. वैसे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने यह बयान दिया कि नवाजुद्दीन सिर्फ एक गवाह हैं, आरोपी नहीं.
इस बीच जबकि फिल्मी दुनिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया तक चारों तरफ इस पर चर्चा हो रही है कि क्या नवाजुद्दीन वाकई अपनी बीवी की जासूसी करवा रहे थे या उनके बीच कैसे रिश्ते हैं, मैं इस घटना के बहाने लगातार खड़े हो रहे इस सवाल को उठाना चाहता हूं कि पुलिस और अन्य सरकारी एजेंसियां नागरिकों की निजी जानकारियों का किस तरह इस्तेमाल कर रही हैं और किस तरह हमारे निजता के अधिकार का हनन किया जा रहा है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपने फैसले में संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार माना है. मुझे लगता है कि यही सही समय है कि निजता के बेहद गंभीर मुद्दे, सरकार के पास मौजूद डाटा के संरक्षण के साथ न्याय प्रशासन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण सवालों पर जरूर विचार किया जाए.
सीडीआर स्कैम और गिरोह नए नहीं हैं
हम इस तरह के बहुत से घोटालों से परिचित हैं, जिनमें राजनीतिक, कारोबारी प्रतिद्वंद्वियों ने और यहां तक कि पति या पत्नी ने किसी भी हद तक जाने वाले प्राइवेट जासूसों और भ्रष्ट पुलिस वालों की मदद से कॉल डिटेल हासिल की. कहा जाता है कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री के रूप में अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करके नियमित रूप से अपने दुश्मनों और दोस्तों के फोन टेप कराती थीं.
वर्ष 2013 में आज के वित्त मंत्री अरुण जेटली की कॉल डिटेल रिपोर्ट लीक हुई और कुछ प्राइवेट जासूसों की तरफ से कुछ पुलिस वालों द्वारा उनके बेटे व ड्राइवरों की कॉल डिटेल हासिल करने की कोशिश की गई. एनडीटीवी पर दिए एक बयान में तब विपक्ष के नेता जेटली ने, इस घटना की निंदा करते हुए नागरिकों की निजता का सवाल उठाया था.
उस समय तक एक हेड कांस्टेबल या कोई मामूली अधिकारी भी किसी नागरिक की कॉल डिटेल रिपोर्ट हासिल कर सकता था. जेटली के मामले में दक्षिण दिल्ली के एक हेड कांस्टेबल ने यह कह कर उनकी सीडीआर हासिल करने की कोशिश की थी, कि उसे खुफिया जानकारी मिली है कि जेटली का नंबर नकली नोट के एक रैकेट से जुड़ा है.
इसके बाद कई और सीडीआर स्कैम सामने आए और दिल्ली पुलिस ने पाया कि कई मामलों में जाने-माने कारोबारियों, राजनीतिक पदाधिकारियों, यहां तक कि आम नागरिकों की सीडीआर गैरकानूनी तरीके और जालसाजी से हासिल की गईं. इसके नतीजे में ज्यादातर पुलिस विभागों में ज्यादातर पुलिस अधिकारियों से सीडीआर हासिल करने के अधिकार छीन लिए गए और सिर्फ एसीपी रैंक के और उससे ऊपर के अधिकारियों के पास यह अधिकार सीमित रह गया. दिल्ली पुलिस के मामले में सिर्फ स्पेशल सेल को ऐसी सूचना हासिल करने का अधिकार दिया गया और पुलिस की अन्य शाखाओं के अधिकार खत्म कर दिए गए.
तो क्या अब लोग चैन की नींद सो सकते हैं?
इस सवाल का जवाब है- नहीं. अगले स्कैम में पाया गया कि एसीपी या अन्य वरिष्ठ अधिकारियों की ईमेल आईडी भी उतनी सुरक्षित नहीं हैं, जितनी उम्मीद की गई थी. भ्रष्ट पुलिस वालों ने किसी तरह वरिष्ठ अधिकारियों की ईमेल तक पहुंच बना ली और सीडीआर रिपोर्ट हासिल कर चंद रुपयों की खातिर उन्हें बेच दिया. इस तरह 2016 में अकेले दिल्ली में ही अप्रत्याशित रूप से बड़ा स्कैंडल सामने आया.
इस अकेले स्कैम में 4000 लोगों की सीडीआर रिपोर्ट लीक हुई. रिपोर्ट की कीमत इससे तय होती थी कि वह शख्स कितना महत्वपूर्ण है. जांच में सामने आया कि यूपी पुलिस का एक कांस्टेबल अवैध तरीके से ये सीडीआर हासिल कर रहा था और प्राइवेट जासूसों को बेच रहा था.
2018 में मुंबई सीडीआर स्कैम में सीडीआर हासिल करने के लिए प्राइवेट जासूस के साथ एक पुलिसवाला गिरफ्तार किया गया. अगर कॉल डिटेल इतनी आसानी से मिल जा रही है और सिर्फ कुछ हजार रुपयों के लिए निजता में इस तरह सेंध लग जा रही है तो हम यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि देश में इस तरह के ना जाने कितने गिरोह चल रहे होंगे और उन्हें अब तक पकड़ा नहीं जा सका होगा.
पुलिस और सरकार अपने अंदर के अधिकारियों के हाथों ही सीडीआर लीक करने या इसके गलत इस्तेमाल को रोक पाने में बुरी तरह नाकाम रही है. सीडीआर लीक करना कोई अनोखी बात नहीं है, लेकिन इससे पता चलता है कि सरकार की पहुंच वाला कोई भी संवेदनशील डेटा सुरक्षित नहीं है.
आधार बायोमीट्रिक डाटा, आयकर फाइलिंग और व्हिसलब्लोअर की जानकारी कुछ ऐसी संवेदनशील जानकारियां हैं, जिन तक सरकार की पहुंच है और ऐसे किसी भी डेटा के लीक होने से किसी शख्स की इज्जत, दौलत और जिंदगी पूरी तरह बर्बाद हो सकती है.
दूसरे की कॉल डिटेल में किसकी दिलचस्पी?
कॉल डिटेल रिपोर्ट में ढेर सारे विवरण होते हैं. इस रिपोर्ट की मदद से आप ना सिर्फ यह जान सकते हैं कि किससे बात की गई, बल्कि मोबाइल फोन द्वारा इस्तेमाल किए टेलीकॉम टावर की लोकेशन से उसकी व्यक्तिगत मौजूदगी के बारे में भी जान सकते हैं.
मेरा पहली बार सीडीआर से वास्ता 2009 में पड़ा, जब मैं कानून का छात्र था. कोलकाता में एक राजनीतिक हत्या के मामले में बिना कोई फीस लिए काम कर रहे कुछ वकीलों को मैं असिस्ट कर रहा था. उन्होंने मुझे एक अपराध संवाददाता से मिलने भेजा, जो आरोपी को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था और उसका दावा था कि इन लोगों को मामले में फंसाया गया है.
इस पत्रकार ने अपने ‘संपर्कों’ के मार्फत आरोपियों और एक संदिग्ध जिसके बारे में आशंका थी कि वही वास्तविक हत्यारा है, की सीडीआर हासिल कर ली थी. इन सभी के मोबाइल फोन की लोकेशन से साबित हुआ कि ये सभी लोग घटनास्थल पर मौजूद नहीं थे. यह मामला सीडीआर के चलते पलट गया और नतीजन जुर्म साबित नहीं हो पाने के कारण आरोपी रिहा कर दिए गए.
बेहद अहम सुबूत हो सकता है सीडीआर
कानूनी मामलों में सीडीआर बेहद अहम सुबूत हो सकता है. बदकिस्मती से इस तक बचाव पक्ष की पहुंच इतनी आसान नहीं होती. सिर्फ एक जज ही किसी नागरिक के लिए इन्हें हासिल किए जाने का आदेश दे सकता है और किसी स्पष्ट कानून या कोई अन्य बहुत मजबूत सुबूत के अभाव में किसी जज द्वारा ऐसा किए जाने की संभावना बहुत कम है. ऐसे में बेईमान वकील लक्ष्मण-रेखा लांघ कर निजी जासूस या पुलिस विभाग में अपने 'संपर्कों' की मदद से इस महत्वपूर्ण ब्यौरे को हासिल करने का प्रयास करते हैं.
इसी तरह पति-पत्नी कई बार यह जानने के लिए कि कहीं उनकी पीठ पीछे उनक जीवनसाथी किसी से संबंध तो नहीं बना रहा है, या तलाक लेने के लिए सुबूत जुटाने, गुजारा भत्ता देने से बचने या जीवनसाथी को ब्लैकमेल करने के लिए कानून की सीमा लांघने को तैयार हो जाते हैं.
खोजी पत्रकार भी अपने जांच के दायरे में आने वाले शख्स के बारे में जानकारी या सुबूत जुटाने के लिए कॉल डिटेल रिपोर्ट का सहारा ले सकते हैं.
कॉल डिटेल रिपोर्ट का इस्तेमाल हत्या या अपहरण जैसे और भी गंभीर अपराध के लिए किया जा सकता है, क्योंकि ऐसी रिपोर्ट से किसी शख्स के किसी स्थान पर बार-बार जाने या उसकी आदतों - जैसे की मॉर्निंग वॉक के लिए कहां जाता है, या अपने काम पर जाने के लिए आमतौर पर कौन सा रास्ता लेता है- की जानकारी मिल सकती है.
कॉल डिटेल रिपोर्ट लीक से क्या है खतरा?
सीडीआर हासिल करने के कई वैध और उचित तरीके हैं, जिनकी मदद से आप किसी शख्स की सीडीआर हासिल कर सकते हैं, जैसे कि फौजदारी मामले में खुद को निर्दोष साबित करने के लिए या अवैध संबंध साबित करने के लिए, लेकिन अपराधियों द्वारा भी ऐसी जानकारी का दुरुपयोग करने की संभावना रहती है.
सबसे जरूरी बात यह है कि मैं किससे बात करता हूं, क्या बात करता हूं और मैं किन जगहों पर जाता हूं, जैसे सवालों पर एक सभ्य समाज में निजता के अधिकार का सम्मान किए की आशा की जाती चाहिए. हमारी आदत, संपर्कों और जीवन के बारे में किसी को अवैध तरीकों से आसानी से निजी जानकारी हासिल करने की छूट नहीं होनी चाहिए. इनका लीक होना हमारी जिंदगी और दौलत को खतरे में डाल देता है.
यह लीक और स्कैम यह सवाल भी खड़ा करते हैं कि क्या हमारा डाटा सरकार के हाथों में सुरक्षित है. अगर एक मामूली पुलिस वाला इतनी आसानी से हमारी सीडीआर हासिल कर सकता है तो किसी के लिए आधार के मार्फत बायोमीट्रिक डाटा हासिल करना भला क्या मुश्किल होगा?
किसी की सीडीआर हासिल करना इंडियन टेलीग्राफ एक्ट, 1885 (धारा 24 और धारा 25) के साथ ही इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 की धारा 43 के तहत जुर्म है. हालांकि दोनों प्रावधानों को सीडीआर स्कैम में लागू करने के लिए थोड़ा स्पष्ट करने की जरूरत है. इससे पता चलता है कि सरकार ने कभी भी ऐसी महत्वपूर्ण सूचना को सुरक्षित रखने के लिए विचार नहीं किया, ना ही उसने इस संबंध में कानून में स्पष्ट प्रावधान करने की जहमत उठाई.
सरकार को क्या कदम उठाना चाहिए?
इस समय जबकि निजी कंपनियों के पास मौजूद डेटा को संरक्षित रखने पर बहुत ज्यादा चर्चा हो रही है, मुझे लगता है कि हमें सरकार के पास मौजूद डेटा को लेकर अधिक सतर्कता बरतने की जरूरत है, क्योंकि यह बहुत विशाल पैमाने पर है और इस डाटा का महत्व बहुत ज्यादा है.
हमें एक ढांचा बनाना होगा, जो सरकारी अधिकारियों, जो कि आमतौर पर निजी क्षेत्र की तुलना में ज्यादा लापरवाह हैं, के पास जमा नागरिकों के डेटा को सुरक्षित बनाएगा. डेटा संरक्षण कानून का लक्ष्य सिर्फ निजी क्षेत्र नहीं होना चाहिए, क्योंकि अभी तक सरकार ही ज्यादा बड़ी समस्या रही है और इसके पास जमा डेटा भी ज्यादा संवेदनशील हैं.
2017 में सुप्रीम कोर्ट ने ना सिर्फ निजता के अधिकार को मान्यता दी, बल्कि इसे संविधान द्वारा संरक्षित मौलिक अधिकार भी करार दिया, लेकिन हमने केंद्र व राज्य सरकारों के डेटा से जुड़ी लापरवाही या सुरक्षा उपायों की नाकामी के कई मामले भी देखे.
हम अक्सर किसी सरकारी अधिकारी द्वारा गलती से या लाखों लोगों की आधार से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक हो जाने की खबरें पढ़ते हैं. यह सिर्फ भारत में ही नहीं होता, बल्कि अन्य देश भी इस समस्या से परेशान हैं. यहां यूके से जुड़ा उदाहरण भी है. फिर भी जहां तक सरकार के पास मौजूद डेटा का सवाल है, भारत में इन सारे लीक के बाद भी कोई कदम नहीं उठाया गया.
सरकार को डेटा संरक्षण के लिए गंभीरता से कानून बनाने के लिए कदम उठाना होगा, जिसमें सरकारी अधिकारियों पर नकेल कसी जाए और सुनिश्चित किया जाए कि डेटा लीक होने के मामले में गड़बड़ी करने वाले वरिष्ठ अधिकारी और नौकरशाह आसानी से ना छूटने पाएं.
उदाहरण के लिए अगर एक कांस्टेबल एसीपी की ईमेल आईडी का दुरुपयोग करता है तो सिर्फ कांस्टेबल ही क्यों जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए? एसीपी को कैसे पता नहीं चला कि उसके एकाउंट से गड़बड़ी की जा रही है? एक मामूली कांस्टेबल जिसके पास कोई तकनीकी महारत नहीं है, किस तरह एसीपी के एकाउंट तक उसकी पहुंच हो जाती है?
अगर हम भारतीय लोग यह जानते हुए भी कि हजारों सरकारी संस्थाओं के पास हमारी जिंदगी, दौलत, लोकेशन और बातचीत का ब्योरा है, रात में चैन की नींद सोना चाहते हैं, तो हमें कठिन सवाल जरूर पूछने चाहिए और मुश्किल समाधान जरूर लागू किए जाने चाहिए.
गैरकानूनी तरीके से अपनी सीडीआर लीक होने के बाद अरुण जेटली ने 2013 में एनडीटीवी पर यह कहते हुए अपनी बात खत्म की थी किः
'यह घटना एक और जायज डर जगाती है. हम आधार नंबर के युग में प्रवेश कर रहे हैं. सरकार ने अभी हाल में कई कामों के लिए आधार नंबर को जरूरी बना दिया है; शादी के पंजीकरण से लेकर संपत्ति के दस्तावेज निष्पादन तक. तो क्या वो लोग जो दूसरों के मामले में घुसपैठ करते हैं, वो लोग सिस्टम में घुसपैठ कर बैंक खाते और दूसरे जरूरी विवरण तक पहुंचने में भी कामयाब हो जाएंगे?'
अब समय है कि वह अपनी जताई चिंता को खुद याद करें और आम आदमी का डेटा सुरक्षित करने के लिए सरकार को मजबूर करें, क्योंकि उनकी सरकार ने अभी तक इस दिशा में कुछ खास नहीं किया है. ऐसा नहीं हुआ तो हम भविष्य में इस तरह के और भी बहुत से स्कैम देखेंगे.
(रामानुज मुखर्जी iPleaders के सीईओ और भारत के प्रमुख ऑनलाइन लीगल एजुकेशन प्लेटफॉर्म LawSikho.com के संस्थापक हैं)
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