फिल्म देखकर बाहर निकलते ही सब शांत सा था... मन शांत, सारी भावनाएं शांत... समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहना है? ऐसा लग रहा था किसी ने खींच के एक थप्पड़ मुंह पर मारा हो. मारकर आपको शयाद याद दिलाया हो कि आपने प्रकृति के साथ ये क्या कर दिया?
डायरेक्टर नीला माधब पांडा की नई फिल्म कड़वी हवा एक कड़वी सच्चाई है जिससे हम सब मुंह फेरने की कोशिश कर रहे हैं.
स्टोरी
कहानी बीहड़ के महुआ गांव की है जहां कर्ज में डूबा किसान आत्महत्या करने को मजबूर है. फिल्म में संजय मिश्रा एक किसान के पिता का किरदार निभा रहे हैं जिसे हर वक्त ये डर सताता रहता है कि आत्महत्या करने वाला अगला किसान उनका बेटा ना हो. रणवीर शौरी बैंक की तरफ से वसूली कर रहे कर्मचारी के किरदार में हैं, जिसकी अपनी मजबूरियां हैं. गांव वालों के बीच वो यमदूत के नाम से जाने जाते हैं. गांव वालों का मानना था कि ये यमदूत जिस गांव में जाता है वहां के दो चार किसान भगवान को प्यारे हो ही जाते हैं. बेटे को खो देने के डर से निपटने के लिए बाप संजय मिश्रा तरकीब निकालते हैं. वो यमदूत से सेटिंग कर लेते हैं. इनके अलावा फिल्म में तिलोतमा शोम हैं जो संजय मिश्रा की बहू का किरदार निभा रही हैं. सादगी से भरे इस किरदार को बेहद शालीनता से निभाया है तिलोतमा ने.
फिल्म में एक अहम किरदार और है, अन्नापूर्णा का.संजय मिश्रा की भैंस अन्नापूर्णा. जिससे वो अपने सारे सुख-दुख बांटते हैं. फिल्म के कुछ हिस्से इतने इंटेंस हैं कि पर्दे पर कर्जे का हिसाब-किताब देखकर आप मन ही मन हिसाब करने लगते हैं. आपको लगता है बस इतना ही तो है, इस तरीके से इतने महीने में चुक जाएगा.
एक्टिंग
संजय मिश्रा की बेहतरीन अदाकारी और डॉयलाग डिलीवरी ने एक बार फिर साबित कर दिया कि ये किरदार शायद ही उनके अलावा कोई और निभा पाता. गोलमाल जैसी फिल्म के बाद जब आप ऐसे किरदार में संजय मिश्रा को देखते हैं, तो ऐसा लगता है कि ये वो विधा है जो संजय मिश्रा का अपना है. फिल्म में अंधे पिता का किरदार निभाते हुए जब अपने बेटे को ढूंढने निकलते हैं तो उनका मिट्टी से लिपट कर रोना, उनका दर्द आपको अंदर तक छलनी कर देता है.
फिल्म में कुछ बेहतरीन डॉयलाग भी है जैसे जब हमारे यहां बच्चा जन्म लेवत है तो हाथ में तकदीर नहीं, कर्जे की रकम लेकर आवत है. या फिर वो डॉयलाग जहां संजय मिश्रा रणवीर शोरी से कहते है कि सही कह रहें हो तुम... सब चूहें ही है... कोई जहर खा कर मर रहा है कोई फंदो लगा कर.
डायरेक्शन
आइ एम कलाम और जलपरी जैसी फिल्में बना चुके नीला माधब पांडा की ये फिल्म एक बार फिर उनके बेहतरीन निर्देशन और विषय की समझ को दर्शाती है. उनकी ये फिल्म भले ही बॉक्स ऑफिस नंबर्स के खेल में पीछे रह जाए पर अवार्ड के लिहाज से ये उनके करियर की एक महत्वपूर्ण फिल्म साबित हो सकती है.
फिल्म खत्म होती है गुलजार साहब की नज्म मौसम बेघर होने लगे है... बंजारे लगते है मौसम के साथ. जिस मोड़ पर फिल्म खत्म होती है, आपका दिल मानना नहीं चाहता कि ये इसका अंत है.
दरअसल हैप्पी एंडिंग में यकीन करने वाले हम लोग इस बात को पचा नहीं पाते कि इसका फिल्म का ये ही ‘दी एंड’ है. आप कुछ हल्का फुल्का ढूंढ रहें है तो ये फिल्म आपके लिए नहीं है. पर सच में कड़वी हवा आपको भी परेशान कर रही है तो देखना जरूर ये फिल्म.
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