हर मजे सिर्फ पुरुष ही क्यों लें? किसी पुरुष के लिए रखैल रखने में कोई परेशानी नहीं है, लेकिन कोई महिला ये विचार भी अपने मन में नहीं ला सकती है. इस असमानता ने ही संजय चौहान को साहेब बीवी और गैंगस्टर फिल्म की पटकथा लिखने के लिए प्रेरित किया.
उन्होंने कहा, "महिलाओं की भी शारीरिक जरूरतें होती हैं, लेकिन हमारे समाज में पाखंड इतना ज्यादा है कि हम इस सच्चाई को स्वीकार ही नहीं करना चाहते. साहेब की एक रखैल है, तो फिर बीवी अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए किसी दूसरे मर्द की मदद लेती है इसमें गलत क्या है?
मैं इस दकियानूसी सोच को तोड़ना चाहता था कि प्रेम संबंध होना पुरुष के लिए तो सही है लेकिन महिलाओं के लिए नहीं. अगर वो इसमें शामिल होती है तो उसका चरित्र हनन किया जाएगा."
इससे पहले महेश मांजरेकर की फिल्म अस्तित्व में इस पर सवाल उठाया गया था. फिल्म में तब्बू ने अकेली गृहिणी की भूमिका निभाई थी. संगीत शिक्षक के साथ गृहिणी का विवाहेतर संबंध होता है. इस संबंध को लेकर उसे कोई ग्लानि नहीं होती है. हालांकि इस विवाहेतर संबंध से जन्मा बेटा उसे नापसंद करता है.
अरुणा राजे की फिल्म रिहाई में तीन महिलाओं का एक ही पुरुष के साथ अफेयर दिखाया गया है. यह विषय अकेली महिलाओं को छू जाता है, जब उनके पति काम की तलाश में शहर जाते हैं और उन्हें लंबे समय तक अकेला छोड़ देते हैं. इस संबंध के कारण तीन में से दो महिलाएं गर्भवती हो जाती हैं. इसके चलते न केवल उनका पतियों के साथ झगड़ा होता है बल्कि पुरुष और महिलाओं के चरित्र की जांच करने वाली नैतिकता पर भी सवाल उठाया जाता है..
केतन मेहता की मिर्च मसाला में दिखाया गया है कि किस तरह एक महिला गांव वालों का शोषण करने वाले की मांग के आगे झुकने से इनकार कर देती है. उसकी परेशानी तब खत्म होती है, जब एक बुजुर्ग आदमी और गांव की महिलाएं उसके समर्थन में खड़ी होती हैं, और उस जालिम के खिलाफ विद्रोह हो जाता है.
देव डी में भारतीय पुरुष की उस असहजता को प्रतिबंबित किया गया है जब महिला उस जैसे व्यक्ति के साथ सेक्स करना पसंद करती है. पारो को कंबल के साथ खेत की तरफ भागते हुए दिखाया गया है; वो देव के साथ सेक्स के लिए बीच खेत में सो जाती है, लेकिन इससे नाखुश देव उसको रिजेक्ट कर देता है.
हाल ही में ऑल्ट बालाजी पर रिलीज हुई बेवसीरीज गंदी बात में भी महिलाओं की सेक्स वर्जनाओं को जमकर दिखाया गया है.
करीना कपूर, सोनम कपूर और स्वरा भास्कर की हालिया रिलीज हुई फिल्म वीरे डी वेडिंग में भी महिलाओं की यौन इच्छाओं को समाज की दकियानूसी सोच से ऊपर रखकर दिखाने की कोशिश की गई है.
इस सदी में बॉलीवुड के फिल्मकारों ने महिलाओं की सेक्सुऐलिटी को उनके नजरिए से देखने की कोशिश शुरू की है. लेकिन इसकी शुरुआत बहुत पहले 1965 में ही हो गई थी. फिल्म निर्माता मधुर भंडरकार इसका श्रेय विजय आनंद को देते हैं, जिन्होंने गाइड फिल्म में विवाहित महिला की लालसा को सामने रखा था. हालांकि इस फिल्म में रोमांस भी था.
इस फिल्म में रोज़ी का अमर किरदार वहीदा रहमान ने निभाया था. रोज़ी की शादी एक ऐसे उम्रदराज व्यक्ति से हुई है, जो गुफाओं के अंदर रिसर्च में अपना समय बिताता है और वो भी एक आदिवासी लड़की के साथ. गाइड का रोल निभाने वाले देव आनंद आत्महत्या की रोज़ी की कोशिश को विफल कर देते हैं और उससे कहते हैं कि तुम नृत्यांगना बनने का अपना सपना पूरा करो.
वो अपना घर छोड़ देती है, अपने करियर पर ध्यान देती है और आखिरकार उसे प्यार हो जाता है. कहने की जरूरत नहीं कि शुरुआत में इस फिल्म को दर्शकों ने पसंद नहीं किया लेकिन बाद में इसने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया और भारतीय सिनेमा की अमर फिल्मों में सदा के लिए शामिल हो गई.
महिलाओं की लालसा पर बनने वाली फिल्मों को देश या समाज आसानी से स्वीकार नहीं करता है. द डर्टी पिक्चर, जिस्म और मसान जैसी फिल्में सेक्सुअली एक्टिव महिलाओं पर केंद्रित है, लेकिन समाज ने उन्हें एक बुराई की तरह पेश किया.
अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म लिपिस्टिक अंडर माय बुर्का महिलाओं की लालसा को सबसे आगे रखती है. भले ही वो कामुक उपन्यास पढ़कर हस्तमुथैन के सुख के बारे में जानने वाली रत्ना पाठक हो या फिर अहाना जो अपने पति के लिए अपना कौमार्य बचाकर नहीं रखना चाहती. यह फिल्म हमें उन महिलाओं की जिंदगी में ले जाती है जो दकियानूसी विचारों से निकलना चाहती हैं और आजाद व खुशहाल जिंदगी चाहती हैं.
लेकिन चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने कहा, "भारतीय समाज खुला है और सेक्सुऐलिटी पर यहां जितनी किताबें लिखी गईं, वो शायद दुनिया में सबसे ज्यादा होंगी. जो नैतिकता या अपराधबोध हम पर लादा गया है उसकी जड़ें तब के विक्टोरिया शासित अंग्रेजी राज में मिल जाएंगी.’’
उन्होंने कहा, "जो सोचते हैं कि सेक्सुऐलिटी पर चर्चा आधुनिक विचार है तो उन्हें जान लेना चाहिए कि कामसूत्र में महिलाओं की सेक्सुऐलिटी और लालसा को जीवन पद्धति बताया गया है, लेकिन इसे भारतीय नारीत्व में छिपा दिया गया है. मिथकों और इतिहास में ऐसे ढेरों उदाहरण हैं, जब महिलाओं ने साहसिक कदम उठाए हैं. मैं नाम नहीं लेना चाहता क्योंकि इससे कुछ लोगों की भावनाएं आहत हो सकती हैं.’’
द्विवेदी महिलाओं की सेक्सुऐलिटी और अन्य बदलावों पर चर्चा के लिए वैश्विक सिनेमा को जिम्मेदार मानते हैं. वो कहते हैं, "यह बदलाव अब आया है क्योंकि हम वैश्विक सिनेमा देख रहे हैं," उन्होंने विस्तार से बताया कि, "ऐसी फिल्में भी हैं जो भाई को बहन की लालसा करते हुए और ऐसे ही दूसरे निषिद्ध साहसिक विषयों पर बनी हैं. पश्चिम में पहले से ही इस तरह वे विषयों की खोज हो रही है. इसमें समय लग सकता है, लेकिन बदलाव यहां भी हो रहा है.’’
अब महिलाओं की पहचान ‘अबला नारी’ शब्द से नहीं है, वो वक्त आने में देर नहीं है जब महिलाएं सेक्सुऐलिटी पर खुलकर बात करेंगी. तब वो ये नहीं सोचेंगी कि दुनिया खासकर पुरुष इस पर क्या कह रहे हैं.
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