हिंदी सिनेमा का संसार अपनी हिरोइनों को संजीदा लेने में हमेशा से लापरवाह रहा है. ऐसा नहीं है कि सिनेमा में हिरोइनों का बोलबाला नहीं रहा. लेकिन पॉपुलैरिटी के मायने हीरो और हिरोइनों के लिए बिल्कुल मुख़्तलिफ़ रहे.
मसलन हिंदी सिनेमा में एक हीरो के टाइमलेस स्टारडम का मतलब है. वो 40 की उम्र पार कर लेने के बाद भी कॉलेज गोइंग लड़के का रोल कर ले. अपनी बेटी की उम्र वाली हिरोइन से उसकी इश्किया बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा दे.
वहीं एक हिरोइन के टाइमलेस स्टारडम का दम तब है. जब उसकी दो दशक पुरानी फिल्म भी देखने बैठ जाएं तो उठने का दिल न करे. 40 पार हिरोइन की बीस साल पुरानी शोखियां भी दिल में गुदगुदी जगा दे.
ऐसे स्टार बड़े कम हुए हैं जिनकी लोकप्रियता ने सिनेमा की तय परंपराएं तोड़ डाली हों. माधुरी दीक्षित ऐसी ही स्टार हैं. धड़कनें बढ़ा देने वाली धकधक गर्ल.
ये बता पाना बहुत मुश्किल है कि माधुरी के स्टारडम के पीछे क्या राज है. वो हसीन हैं लेकिन सिर्फ खूबसूरती के बल पर ये मुकाम हासिल करना मुमकिन नहीं. उनके अभिनय की तारीफ हुई लेकिन उन्हें अपने दौर के संजीदा अभिनय करने वालों की लिस्ट में पहले पायदान पर रखना मुश्किल है.
अस्सी और नब्बे के उनके बेहतरीन दौर में भी ऐसी गिनीचुनी फिल्में हैं जो माधुरी के लिए लिखी गईं. उनकी कामयाब दूसरी पारी में भी ऐसे किसी प्रोजेक्ट की कमी महसूस की जा सकती है.
अस्सी के दशक के आखिर में आई तेजाब (1988) और राम लखन (1989) की जबरदस्त कामयाबी ने बॉलीवुड की महारानी श्रीदेवी का सिंहासन हिला दिया. हिंदी सिनेमा के दीवानों पर 'मोहिनी' का नशा सिर चढ़कर बोल रहा था.
श्रीदेवी और माधुरी की लड़ाई का फायदा किसे हुआ
एक-दो-तीन गाना लोगों की जुबान पर था. कमर्शियल सिनेमा में आए माधुरी दौर ने नंबर वन की कुर्सी की जंग को दिलचस्प बना दिया था. कौन नंबर एक ये बताने में फिल्म इंडस्ट्री के बड़े से बड़े पंडित भी हिचकिचा रहे थे.
दोनों के बीच नंबर वन की टक्कर का नतीजा ये हुआ कि हिरोइन के सवाल पर पूरी फिल्म इंडस्ट्री खेमों में बंटने लगीं. मेकअप आर्टिस्ट, कॉस्ट्यूम डिजाइनर से लेकर डांसर तक को अपना खेमा चुनना पड़ा. मशहूर कोरियोग्राफर सरोज खान बॉलीवुड में शुरु हुए इस नए किस्म के जंग की गवाह थीं.
उनपर श्रीदेवी और माधुरी दोनों अपने गानों के लिए बेहतरीन डांस स्टेप्स देने का दबाव डालतीं. दोनों की लड़ाई का सीधा फायदा सरोज खान को मिला. उन्हें लगातार बेस्ट कोरियाग्राफी का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला.
तेजाब के गाने ‘एक-दो-तीन’ के लिए सरोज खान को बेस्ट कोरियोग्राफी का पहला अवॉर्ड मिला। इसके अगले ही साल श्रीदेवी की फिल्म चालबाज़ के गाने ‘ना जाने कहां से आई है’ के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड फिर झटक लिया. लगातार तीसरा मौका माधुरी की 1990 में आई फिल्म सैलाब के गाने ‘हमको आज कल है इंतजार’ गाने ने दिया.
नब्बे के दशक की शुरुआत में जिस तेजी से माधुरी ने कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ी. उसी तेजी से श्रीदेवी नीचे फिसलती गईं. दिल (1990), साजन (1991), बेटा (1992), खलनायक (1993), हम आपके हैं कौन (1995) और दिल तो पागल है (1997) जैसी कमर्शियली सुपरडुपर हिट फिल्मों से माधुरी दीक्षित हिंदी सिनेमा में छा गईं.
इस दौरान दिमाग पर जोर डालने के बाद भी श्रीदेवी की गिनीचुनी फिल्में ही याद आती हैं। हालांकि लम्हें (1991), ख़ुदा गवाह (1992) और लाडला (1994) जैसी तीन फिल्में ही बॉलीवुड में श्रीदेवी की दमदार मौजूदगी बताने के लिए काफी थीं.
ये कहना मुश्किल होगा कि माधुरी की पॉपुलैरिटी ने श्रीदेवी चमक को एकदम से फीकी कर दी थी. क्योंकि इस दौर में भी ख़ुदा गवाह और चालबाज़ जैसी फिल्में श्रीदेवी के दम पर चल रही थीं. यश चोपड़ा जैसे फिल्मकार श्रीदेवी के लिए लम्हें जैसी फिल्म बना रहे थे.
हिंदी सिनेमा की महारानी माधुरी ने कामयाब होने के नए मायने गढ़े. वो रेखा जैसी नहीं हैं, जिनके लिए ऋषिकेश मुखर्जी जैसे फिल्मकार ने खूबसूरत (1980) जैसी फिल्म बनाई. बला की हसीन हेमा मालिनी से वो अलहदा हैं, जिनके लिए नायिका प्रधान सीता और गीता जैसी फिल्म बनी.
90 की महारानी थी माधुरी
हिट पर हिट फिल्में देने के बावजूद माधुरी की ऐसी फिल्में बड़ी कम हैं. जिसमें फिल्म की कहानी उनके इर्द-गिर्द बुनी गई. हालांकि उनके स्टारडम को ‘एक-दो-तीन’ (तेजाब), ‘तम्मा, तम्मा लोगे’ (थानेदार, 1990) या ‘धक-धक करने लगा’ (बेटा, 1992) जैसे गानों की सफलता में समेट देना भी नाइंसाफी होगी.
‘साजन’, ‘खलनायक’ और ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी फिल्मों की कहानी को माधुरी दीक्षित की दमदार भूमिका ने स्वाभाविक गति दी. दर्शकों के दिल में माधुरी चुपचाप घर कर गईं.
माधुरी के बिना इन फिल्मों की कल्पना भी नहीं की जा सकती. क्या आपको लगता है कि ‘हम आपके हैं कौन’ माधुरी दीक्षित के बिना इतनी बड़ी हिट फिल्म बन पाती. नब्बे के दशक में कई फिल्मों की कहानी माधुरी के लिए बुनी गई, लेकिन वो कामयाब नहीं रही. मसलन, संगीत (1992), आंसू बने अंगारे (1993), दिल तेरा आशिक़ (1993) और याराना (1995) जैसी ‘माधुरी प्रधान’ फिल्में लोगों के ज़ेहन से ग़ायब हो चुकी हैं.
हिंदी सिनेमा के तयशुदा नियम के मुताबिक हिरोइनों के चेहरे पर उम्र की रेखाएं दिखते ही उन्हें भाभी और मां जैसी कम महत्वपूर्ण किरदारों में समेट दिया जाता है. माधुरी ऐसे नियम मानने को तैयार नहीं होतीं. फिल्म ‘फ्रीकी फ्राइडे’ में उन्होंने सोनम कपूर की मां का रोल करने से इनकार कर दिया. जबकि इस फिल्म में वो बिल्कुल फिट होतीं. जिसमें एक मां और उसकी युवा बेटी के शरीर के अदलाबदली की रोचक कहानी है.
हिंदी सिनेमा के आखिरी सुपरस्टारों में से एक माधुरी ने स्टारडम के बोझ को ख़ुद से दूर ही रखा. बॉक्स ऑफिस के रिकॉर्डतोड़ आंकड़ों को भुनाने में उन्होंने कम दिलचस्पी दिखाई. इसका फायदा उनके फिल्मकार ले गए.
लज्जा (2002) और देवदास (2002) के साथ हाल के वर्षों की हिट फिल्म डेढ़ इश्किया (2014) की शानदार कामयाबी को उन्होंने ख़ुद के ऊपर हावी नहीं होने दिया. ‘लज्जा’ की संजीदा भूमिका में जिस सहजता से वो उतर गईं, ‘देवदास’ की ‘पारो’ को जैसे उन्होंने अपने भीतर ज़िंदा कर दिया, ‘डेढ़ इश्किया’ की ‘बेगम पारा’ की ख़लिश को जिस खूबसूरती से बयां किया. वो सिर्फ माधुरी ही कर सकती हैं. किरदार को लिबास की तरह ओढ़ लेने की क़ाबिलियत कितने एक्टरों में होती है ?
माधुरी ने अपनी फिल्मों के जरिए हर दशक के दर्शकों के दिल में दस्तक दी. हौले से उनमें दाखिल हो गईं. माधुरी का नाम सुनते ही करोड़ों का दिल धक से रह जाता है. उनकी कामयाबी को ‘एक-दो-तीन’, ‘धक-धक करने लगा’, ‘चोली के पीछे क्या है’ या ‘मार डाला’ जैसे गानों में समेटने की कोशिश एक छलावा ही होगी.
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