मन की कल्पना को रेशम के कपड़ों पर सुनहरे धागों से उतारने वाला बुनकर आज उदास है. जो हाथ कभी रेशम के ताने-बाने बुनते नहीं थकते थे आज वह आंख के आंसू पोंछकर थक हार कर-हताश हो गए हैं.
बनारसी साड़ी ही तो थी जिसे पहन कर दुल्हन किसी देवी सी डोली में बैठती थी. बनारसी साड़ी ही थी जिसके बिना दुलहन का शृंगार अधूरा माना जाता था. वो बनारसी साड़ी तब महज साड़ी नहीं हुआ करती थी बल्कि जीवन-यापन के साथ ही हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की मजबूत डोर और खास मिसाल थी.
सात समंदर पार से लेकर फिल्म इंडस्ट्री और फैशन शो में जिस बुनकर कला की धूम थी आज उसका रंग फीका सा पड़ गया है.
समय ने बनारस को बदला तो उसका असर बुनकरी के पेशे पर भी पड़ा. बुनकरी में पावरलूम की घुसपैठ हुई और धीरे-धीरे उसका कब्जा सा हो गया.
हाथ के कलाकारों के कद्रदान कम होने लगे और फिर रेवड़ीतालाब से मदनपुरा तक पावरलूम का शोर उठने लगा. अलसुबह से देर रात पावरलूम के चलने की आवाज आने लगी. जैसे-जैसे ये आवाज गहराती गई, बुनकरों की सिसकियां दबने लगीं.
पहले गद्दी पर हाथ से बने रेशमी कपड़ों की बड़ी पूछ थी लेकिन अब उसकी जगह पावरलूम के कपड़ों ने ले ली है. कम समय में अधिक माल की सप्लाई ने इन बुनकरों का धंधा बंद सा कर दिया.
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कई परिवारों का पुश्तैनी धंधा
मदनपुरा, बजरडीहा, रेवड़ीतालाब, सोनारपुरा, शिवाला, पीलीकोठी, सरैया, लोहता, बड़ी बाजार जैसे इलाके बुनकरों के हैं. यहां ज्यादातर परिवारों का यह पुश्तैनी धंधा है.
बड़े क्या बच्चे और घर की महिलाएं भी इसी बुनकरी के पेशे में हैं. बच्चों ने दस साल की उम्र पार नहीं की कि पढ़ने-खेलने की इस उम्र में बुनकरी के ताने बाने में उनकी भी जिंदगी उलझकर रह जाती है.
करीब 4-5 लाख से अधिक लोग इसी पेशे पर निर्भर है. कभी रेशमी धागों के सिवाय कुछ देखा नहीं. फूल-बूटे बनाने के सिवाय कुछ आया ही नहीं यहां के लोगों को. ऐसे में जब बुनकरी का कारोबार मंदा पड़ा तो कई परिवारों के आगे मुश्किलें खड़ी हो गयीं.
जिंदगी जीने के लिए उन्होंने मजदूरी शुरू कर दी. इतने रुपये नहीं थे कि खुद का पावरलूम लगा सके. इसका फायदा उठाया गद्दीवालों ने. पहले ठेके पर बुनकरों को काम देते थे बाद में पावरलूम लगाकर बुनकरों को अपना मजदूर बना लिया.
पावरलूम ने भी कुछ हद तक बुनकरों को बचा लिया लेकिन परेशानियां यहीं खत्म नहीं हुईं. बिजली कटौती ने पावरलूम को घाटे का सौदा बना दिया. बनारसी साड़ी का चलन कम हुआ सो अलग. ऊपर से कच्चा माल मिलने में भी दिक्कत आने लगी.
यह डेढ़ दशक पहले का दौर था जब बुनकरी का कारोबार बंदी के कगार पर आ गया और ताबूत में कील साबित हुई मंदी. जब मंदी का दौर आया तो बुनकर हाशिए पर आ गए. काम मिलता नहीं था और काम मिल गया तो मजदूरी नहीं मिलती थी.
हालत ये हुई कि ये काश्तकार काम छोड़कर दूसरे शहर जाने लगे. मेहनत मजदूरी की खोज में. बनारस छोड़ कई परिवार सूरत, बेंगलूरू चले गए. कुछ तो खून बेचकर परिवार पालने को मजबूर हुए तो कई हुनरमंद हाथों ने मजदूरी की कुदाल थाम ली.
रेवड़ी तालाब के एहसन हमदी बताते हैं कि ऐसा नहीं कि हाशिए पर आए इन बुनकरों की सियासतदां को फिक्र नहीं थी. हालात के मारे इन बुनकरों पर सियासत की नजर भी पड़ी लेकिन हर सियासी पार्टियों ने उनके हालातों पर वादों का मरहम लगाया.
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राजनैतिक दलों का वोट बैंक
बनारस में बुनकर राजनीतिक पार्टियों के लिए एक बड़ा वोट बैंक हैं. वोट बैंक सहेजने के बहाने ही सही बुनकरों के नाम पर कई योजनाएं आईं. हथकरघा- पावरलूम बांटने से लेकर बिजली बिल बकाया माफी, कर्ज माफी, हेल्थ कार्ड तक.
लेकिन इसमें भी खूब खेल हुआ. बीजेपी की हिंदुत्ववादी छवि वाली सरकार जब केंद्र में आई तो बेशक मुसलमान आशंकाओं से घिरे थे लेकिन मन में कहीं एक आस भी छिपी थी कि अब शायद अपनी भी तकदीर बदल जाए लेकिन हाल में हुई नोटबंदी ने रही सही कसर पूरी कर दी.
बड़ी बाजार के नियाजुद्दीन बताते हैं कि, 'नोटबंदी का असर हम बुनकरों पर इस कदर हुआ कि आधे से ज्यादा करघे बंद हो गए. पावरलूम की रफ्तार भी धीमी पड़ गई. ऐसे समय में गद्दीदारों ने भी पल्ला झाड़ा. मजदूरी में 500-1000 रुपये की नोट थमाने लगे.'
वे आगे कहते हैं, 'हमें भी मजबूरी में काम बंद करना पड़ा कि जब मजदूरी में मिलने वाले रुपये की कोई कदर नहीं रह गई तो हम क्या करेंगे. हफ्तों और महीने भर तो हम बैंकों के बाहर लाइन में ही लगे रहे. लोग कह तो रहे हैं नोटबंदी का फायदा हम गरीब तबके वालों को ज्यादा होगा लेकिन कब होगा इसका हमें इंतजार है.'
अब ये इंतजार कितने दिनों या कितने बरसों का होगा ये देखने वाली बात होगी.
हाल के कुछ सालों में बुनकरों के लिए तमाम नई स्कीम चली. जब से प्रधानमंत्री का नाता इस शहर से जुड़ा बुनकरों की भी थाह ली जाने लगी. रितु बेरी से लेकर रितु कुमार तक ने बनारस की इस काश्तकारी को दुनिया के सामने रखा.
सरकार ने बुनकरों के बीच से बिचौलियों को खत्म करने के लिए इन्हें ऑनलाइन मार्केट के तौर पर संजीवनी देने की बात कही लेकिन इसे भी आज तक अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका.
'उस्ताद' योजना भी शुरू की गई लेकिन फिलहाल बुनकरों की जिंदगी में कोई तब्दीली होती नजर नहीं आ रही हैं.
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