इस प्रेम कहानी में बाज़ बहादुर प्रेमी नायक और उसकी अनूठी प्रेमिका रानी रूपमती थी तो खलनायक अकबर था. अकबर बाज़ बहादुर के पीछे बुरी तरह पड़ा था और उसने उसपर हमला तक किया. ऐसे में इस प्रेमी नायक को शरण मिली मेवाड़ के महाराणा के यहां.
समय बदला, महाराणा बदले लेकिन बाज बहादुर को शरण देने वाले मेवाड़ के महाराणाओं के प्रति बैर-भाव अकबर कभी नहीं भूला. महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच लड़े गए इस युद्ध के पीछे कहीं न कहीं इस प्रेम कहानी के बीज भी रहे हैं.
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि अकबर की आंखों में महाराणा प्रताप से भी पहले चित्तौड़ आंख में किरकिरी की तरह चुभ रहा था. मेवाड़ पर अधिकार से ज्यादा अकबर को महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह की यह बात बेहद अखरी थी कि उन्होंने मांडू के सुल्तान बाज़ बहादुर को शरण दी थी.
बाज़ बहादुर मुसलमान और उसे शरण मेवाड़ के हिंदू राजा उदय सिंह ने दी. यह भी हैरानी देखिए कि मुसलमान सुल्तान पर हमला मुसलमान अकबर ने किया. बाज़ बहादुर का अपराध और उसपर अकबर की नाराजगी का कारण आप देखेंगे तो उस सम्राट की महानता और धार्मिक सद्भाव की कलई भी उतर जाएगी.
सौंदर्य की सम्राज्ञी रूपमती
बाज़ बहादुर एक दिन मांडू से शिकार के लिए बीहड़ भरे रास्ते से जा रहा था, जब रास्ते में उसे एक युवती दिखी, जो भेड़-बकरियां चरा रही थी. युवती के कंठ से सुंदर गीत फूट रहे थे. बाज़ बहादुर ने घोड़े से पीछे मुड़कर देखा तो वह हतप्रभ रह गया. एक गड़ेरिया लड़की और ऐसा कमाल का कंठ. वह लड़की कंठ की ही नहीं, सौंदर्य की भी सम्राज्ञी थी.
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बाज़ बहादुर शिकार भूल गया और खुद ही शिकार हो गया. उसने वहीं युवती के सामने प्रस्ताव रखा कि वह उसके साथ राजधानी के महलों में चले. युवती भी कम नहीं थी. निर्भीकता से वो बोली: मैं ठहरी नर्मदा की नूर, तेरे महलों में इससे सुंदर तो कुछ हो नहीं सकता. प्रेमातुर सुल्तान ने प्रस्ताव दिया: महल ही नर्मदा के किनारे बनवा दूंगा!
यह लड़की कोई और नहीं, वही रानी रूपमती थी, जिनके किस्से-कहानियां हम सुनते, पढ़ते और देखते आए हैं. इसपर फिल्में बन चुकी हैं, नाटक लिखे जा चुके हैं और देश-विदेश में इसकी गाथाएं पांच सौ साल से सुनी जा रही हैं.
न धर्म बदला, न संस्कार
बाज़ बहादुर का चरित्र देखिए कि उसने रानी रूपमती का न धर्म बदला और न ही संस्कार. न वेशभूषा और न भाषा. शादी भी की तो इस्लामिक विधि से और हिंदू रीति-रिवाजों का भी पालन किया.
बाज़ बहादुर ने उस युग में अकबर के समय में, अकबर से पहले, अकबर से बड़ी लाइन धार्मिक सहिष्णुता की ऐसी खींची कि अकबर यह सब सुनकर अकबका गया. अकबर ने दो सेनापतियों के साथ सेना रवाना की और बाज़ बहादुर को हरा दिया.
मालवा के शासक बाज़ बहादुर की इस बहादुर पत्नी रानी रूपमती को जब अपने पति और सेना के पराजय की खबर मिली तो उसने अकबर के सेनापतियों के हाथ पड़ने से पहले विष खाकर अपने प्राण त्याग दिए.
इसके साथ ही गीत-संगीत, सौंदर्य, कविता, प्रेम, रति, युद्ध, शिकार और साहस से सराबोर एक अनूठी कहानी का अंत हो गया. वह एक गड़ेरिया लड़की थी और मौत का तौर-तरीका किसी बलिदानी क्षत्राणी से कम नहीं.
आत्मबलिदान और सतीत्व की आत्मरक्षा
भारतीय इतिहास में शायद ही किसी मुस्लिम शासक की पत्नी ने इस तरह का आत्मबलिदान और अपने सतीत्व की ऐसी आत्मरक्षा की हो. सौंदर्य की सम्राज्ञी और मधुर कंठ की महारानी ने मानवीय मूल्यों की जो विरासत और जैसी अपराजयिता दिखाई, वह इतिहास में बहुत कम दिखाई देता है.
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अकबर के सेनापतियों ने बाज़ बहादुर को सारंगपुर में 29 मार्च 1561 को हराया तो वह जान बचाकर भाग निकला. पहले सतपुड़ा के आसपास छुपा, फिर बुरहानपुर और बेरड़ में आकर रहने लगा. उसे एक शासक के तौर पर शरण महाराणा उदयसिंह ने दी. बाज़ बहादुर को समस्त सुविधाएं दीं और उसने पूरी तैयारियां की.
महाराणा के सहयोग से बाज़ बहादुर एक बार फिर पराजय से उठ खड़ा हुआ और उसने अकबर से मांडू को छीन लिया. लेकिन कुछ समय बाद उसने फिर इसे खो दिया और अंतत: कई साल भटकने के बाद बाज़ बहादुर ने नागौर में अकबर के आगे आत्मसमर्पण कर दिया और उसके सेवकों में शामिल हो गया.
कहते हैं कि कमीने शासकों की आंख में सूअर का बाल होता है और वे अतीत की बुरी यादों को कभी नहीं भूलते. ऐसा ही कुछ अकबर ने किया और चित्तौड़ के प्रति बड़ी भारी नाराजगी जताई.
दुश्मनी का बर्ताव
अकबरनामा में अबुल फ़ज़ल लिखता है: महाराणा ने साल 7 में बाज़ बहादुर को शरण देकर दुश्मनी का बर्ताव किया. लेकिन महाराणा के खिलाफ तब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई जब तक साल 12 यानी 1567 में मालवा में मुहम्मद सुलतान मिर्ज़ा के बेटों की बगावत के कारण मौका नहीं मिला. इसी बगावत के कारण अकबर को खुद मालवा कूच करना पड़ा.
अबुल फ़जल लिखता है: बादशाह का खेमा मालवा की मुहिम के लिए बंदोबस्त करने की खातिर गागरौन के पास गड़ा हुआ था. पास ही आसफ़ ख़ान और वज़ीर ख़ान की जागीरें थीं. उन्हें अकबर ने हुक्म दिया कि वे मांडलगढ़ की गढ़ी पर हमला कर दें.
यह उदयपुर के महाराणाओं का ऐसा सुदूर इलाका था, जहां रावत बल्लो सोलंकी को कमान दी हुई थी. बल्लो सोलंकी आसफ़ ख़ान और वज़ीर ख़ान के आगे टिक नहीं पाया. आप स्थिति देखिए, अकबर मालवा पर हमला तो करने जा रहा था पर बीच में ही शिकार हो गया मेवाड़.
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मांडलगढ़ विजय की इस छोटी सी घटना ने साल 12 में चित्तौड़ विजय और फिर महाराणाओं के साथ एक लंबे संघर्ष का सूत्रपात किया.
(लेख में संदर्भ स्मिथ और विंसेंट आर्थर की लिखी किताब 'अकबर, द ग्रेट मुगल' और मजूमदार की लिखी किताब 'द मुगल एम्पायर' से लिया गया है. साथ ही अकबरनामा- भाग 2, पेज (380-81) और मेवाड़ एंड मुगल एंपरर्स पेज (67-69) से लिया गया है)
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