1956 में एक फिल्म आई थी चोरी चोरी. इस फिल्म को कई वजहों से याद किया जाता है. फिल्मी दुनिया की सबसे हिट जोड़ियों में से राज कपूर-नरगिस की एकसाथ ये आखिरी फिल्म थी.
इस फिल्म का संगीत शंकर जयकिशन ने तैयार किया था. जिसके लिए उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला था. इस फिल्म में एक गाना था- रसिक बलमा. हसरत जयपुरी के लिखे इस गाने को लता मंगेशकर ने गाया था. आप इस गाने को सुनिए फिर इसके बाद आपको बताएंगे इस गाने से जुड़ा एक बेहद दिलचस्प किस्सा-
हुआ यूं कि जाने माने फिल्म निर्देशक महबूब खां जिन्होंने ‘मदर इंडिया’ जैसी एतिहासिक फिल्म बनाई थी, किसी काम के सिलसिले में लॉस एंजिलिस गए थे. वहां अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ गया. आनन-फानन में उन्हें अस्पताल ले जाया गया. कुछ दिनों बाद महबूब खां की सेहत तो ठीक हो गई लेकिन उन्हें कुछ समय आराम की सलाह दी गई.
एक रात उन्होंने लता मंगेशकर को फोन करके गुजारिश की कि वो उन्हें ‘रसिक बलमा’ गाना फोन पर ही गाकर सुना दें. लता जी ने उन्हें वो गाना फोन पर ही सुनाया. कहते हैं कि इसके बाद अगले कई दिनों तक महबूब साहब लता जी की आवाज में फोन पर ही ये गीत सुनते रहे. निश्चित तौर पर उन्हें इस गाने में कुछ ऐसा लगा जो बीमारी में उनके दुख दर्द को दूर करता था.
इस गाने से जुड़े एक और किस्से को आपको बताएं उससे पहले ये बता दें कि ये गाना शंकर जयकिशन ने राग शुद्ध कल्याण में तैयार किया था. गाने की शुरूआत में इस्तेमाल की गई सारंगी के सुर की पीड़ा दिल को गहरे से छूती है. इस गाने में सितार भी था.
इस फिल्म के संगीत के लिए जब 1957 में शंकर जयकिशन को फिल्मफेयर अवॉर्ड देने का एलान हुआ तो जयकिशन ने लता जी से फरमाइश की कि वो अवॉर्ड सेरेमनी में ये गाना गा दें. लता जी ने ऐसा करने से मना कर दिया. लता जी ने सादगी से ये बात कही कि शंकर जयकिशन को इस फिल्म के संगीत के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड मिल रहा है ना कि उनके गाने के लिए ऐसे में बेहतर होगा कि वो मंच से फिल्म की धुन ही बजाएं. इस बात पर दोनों के बीच कुछ समय के लिए मनमुटाव भी हुआ था.
बाद में जब ये बात इस पुरस्कार के आयोजकों के पास पहुंची तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ. दरअसल, तब तक फिल्म संगीतकारों को ही फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया जाता था. प्लेबैक गायक-गायिकाओं के लिए पुरस्कार की कोई कैटेगरी नहीं थी. ऐसे में आयोजकों ने अगले साल से प्लैबेक गायक-गायिकाओं के लिए भी फिल्मफेयर अवॉर्ड की शुरूआत की.
एक और बेहद दिलचस्प बात ये भी है कि 1958 में जो पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड प्लेबैक गायिका को मिला वो लता मंगेशकर ही थीं, जिन्हें फिल्म मधुमती के गाने ‘आ जा रे परदेसी मैं तो कब से खड़ी इस पार’ के लिए मिला था. इस गाने का संगीत सलिल चौधरी ने तैयार किया था.
1957 में ही देव आनंद और नूतन की एक फिल्म आई- पेइंग गेस्ट. इस फिल्म का संगीत एसडी बर्मन का था. राग शुद्ध कल्याण में ही कंपोज किया गया इस फिल्म का ये गाना सुनिए-
इसके अलावा राग शुद्ध कल्याण में तमाम हिंदी फिल्मी गानों को कंपोज किया गया. जो खूब हिट हुए. इनमें से कुछ गाने जिनका जिक्र जरूरी है. इसमें 'लो आ गई उनकी याद वो नहीं आए' (दो बदन), 'तेरा जाना दिल के अरमानों का लुट जाना' (सीमा), 'छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा' (ममता) और 'ओ मेरे दिल के चैन, चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए' (मेरे जीवन साथी) बहुत लोकप्रिय हुए.
इसके अलावा राग शुद्ध कल्याण में ही कंपोज किया गया ये गाना तो देशभक्ति के तरानों में अब भी सबसे लोकप्रिय है- जहां डाल डाल पे सोने की चिड़िया करती है बसेरा (सिकंदर-ए-आजम)-
राग शुद्ध कल्याण के शास्त्रीय पक्ष पर जाने से पहले आपको बताना जरूरी है कि इस राग में गजलें भी कंपोज की गई. 1983 में आई फिल्म अर्थ में कैफी आजमी की लिखी गज़ल ‘तुम इतना जो मुस्करा रहे हो क्या गम है जिसको छुपा रहे हो’ को राग शुद्ध कल्याण में ही कंपोज किया गया था.
हिंदी बोली में गजल को लोकप्रियता का अलग मुकाम दिलाने वाले जगजीत सिंह ने इसे बेहद संजीदगी से गाया था. यही वजह है कि आज भी ये गजल अगर कहीं सुनाई दे जाए तो कदम रूक जाते हैं. आप भी सुनिए-
राग शुद्ध कल्याण की जाति औढव संपूर्ण वक्र है. इसका थाट कल्याण है. इसीलिए इस राग को शुद्ध कल्याण का नाम दिया गया है. कल्याण थाट में और भी कई रागें हैं. राग शुद्ध कल्याण को भूप कल्याण भी कहा जाता है हालांकि इसका ज्यादा प्रचलित नाम शुद्ध कल्याण ही है. इस राग का आरोह अवरोह भी देखिए-
सा रे ग प ध सा' - सा' नि ध प म् ग रे सा; ग रे ग प रे सा;
इस राग का वादी ‘ग’ और संवादी ‘ध’ है. इस राग को गाने बजाने का समय रात का पहला पहर माना जाता है. शुद्ध कल्याण में वादी स्वर यानी सबसे अहम स्वर है गंधार (ग) और संवादी यानी दूसरा सबसे अहम स्वर है धैवत (ध).
यानी इन दोनों स्वरों को बार-बार इस्तेमाल करें तो राग की शक्ल खिलकर सामने आती है. हम आपको एक बार फिर बताते चलें कि आसान शब्दों में हम किसी भी राग के आरोह और अवरोह को एक सीढ़ी की तरह मान सकते हैं.
आरोह का मतलब है कि सुरों कि सीढ़ी का ऊपर जाना और अवरोह का मतलब है कि उसी सीढ़ी से वापस उतरना. वादी, संवादी और पकड़ का मतलब ये होता है कि आप जैसे ही इन नियम कायदों में बंध कर गाएंगे, शास्त्रीय संगीत के जानकार तुरंत इस बात को पकड़ लेंगे कि आप कौन सा राग गा रहे हैं. किस सुर पर आपने कितना जोर दिया, ये जानकारों को बताने के लिए काफी होता है कि राग कौन सा है.
किसी भी राग में वादी और संवादी सुर की अहमियत शतरंज के खेल के हिसाब से बादशाह और वजीर जैसी होती है. इन सारी बातों को समझने के लिए आप भारत रत्न से सम्मानित किराना घराने के महान कलाकार पंडित भीमसेन जोशी का गाया राग शुद्ध कल्याण सुनिए-
हाल ही में भारतीय शास्त्रीय संगीत की महान कलाकार किशोरी अमोनकर नहीं रहीं. उनके जाने से संगीत की दुनिया को बड़ा धक्का लगा. रागों की अपनी इस खास सीरीज में आज की श्रृंखला को उन्हें श्रद्धांजलि के तौर पर पेश करते हुए उन्हीं का गाया राग शुद्ध कल्याण-
अगले रविवार को एक नए राग और उसकी तमाम बारीकियों के साथ फिर हाजिर होंगे.
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