'25 दिसंबर' को 2014 से ही वर्तमान NDA सरकार 'सुशासन दिवस' के रूप में मना रही है. ये किस्सा 25 दिसंबर 2015 का है. दूसरा 'सुशासन दिवस' मनाया जा रहा था. बहुत से कार्यक्रमों का आयोजन होना था. प्रधानमंत्री स्वयं अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी, तमाम कार्यक्रमों में भाग लेने आए थे.
इसी मौके पर 'बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी' में भी एक भाषण प्रतियोगिता का आयोजन हुआ. विषय था, 'सुशासन में तकनीक का योगदान'. करीब 60 मंझे हुए वक्ता मजलिस में मौजूद थे. समझ आ रहा था कि एक दिन में सारे बोल नहीं पाएंगे. दोपहर में शुरू हुए कार्यक्रम में शाम के पांच बजने को आए थे. और बमुश्किल 25 वक्ता बोल पाए थे.
पर कुछ एक वक्ताओं को छोड़कर सारे एक ही ढर्रे पर बात कर रहे थे. कंप्यूटर, स्मार्टफोन और एप्प केंद्रित बातों से सभागर अंटा पड़ा था. इसी दौरान एक वक्ता मंच पर पहुंचा और बोला, 'तकनीक का सुशासन में योगदान हमारे मुल्क में सबसे बेहतरीन ढंग से जिसने करके दिखाया वो शेरशाह सूरी था.'
लड़के ने आगे कहा, 'हर आठ किमी की दूरी पर शेरशाह ने सरायें बनवा दीं, जो 'डाक-चौकी' का काम भी करती थीं. जहां एथलेटिक्स स्पर्धाओं की रिले दौड़ की तर्ज पर तेजी से घोड़े दौड़ाते एक सराय से खबरनवीस दूसरी सराय जाते और वहां पर दूसरे खबरनवीस को सूचना थमा देते.
फिर दूसरा खबरनवीस इसी प्रक्रिया को दोहराता. और इस तरह से बंगाल जैसे सुदूरवर्ती इलाके से दिल्ली तक पहुंचने वाली खबरें, जिन्हें एक वक्त दिल्ली पहुंचने में महीनों का वक्त लग जाता था. उन्हें अब हफ्ता भर दिल्ली पहुंचने में लगने लगा. ये भी सुशासन में तकनीक का ही इस्तेमाल था.
इसलिए तकनीक को केवल स्मार्टफोन और कंप्यूटर तक ही सीमित न करें. वो हर प्रक्रिया जो किसी काम को सरल बनाने में मदद करे 'तकनीक' का हिस्सा है.
सभागार की 'मोनॉटनी' टूटी. तकनीक की इस अलग ढंग की परिभाषा को सुनकर लोगों के चेहरे पर फिर से चमक खिली. तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूंज गया. उस भाषण प्रतियोगिता को लड़का जीत भी गया पर तबसे शेरशाह की प्रतिभा खुद उस लड़के को और अचंभित करने लगी. उस लड़के से सुनिए, किन बातों के चलते शेरशाह सूरी उसे बेहद पसंद आता है?
1. शेरशाह सूरी मध्यकालीन शासक होने के लिए सारी जरूरतें पूरी करता था. गद्दी पर बैठते ही उसने ठगों, डाकुओं और बदमाश जमींदारों पर कठोरता से अंकुश लगाया. इससे केवल कानून व्यवस्था ही मजबूत नहीं हुई, व्यापार को भी बढ़ावा मिला. ये एक ऐसा कदम था, जिसने लोगों को तुरंत यकीन दिलाया कि शेरशाह पूर्ववर्ती शासक हुमायूं से ज्यादा काबिल है. और उसकी धाक जम गई.
2. शेरशाह ने पुरानी शाही सड़क की मरम्मत कराई. ये सड़क सिंधु नदी से लेकर बंगाल के सोनारगांव तक को जोड़ती थी. हजारों किमी. लंबी इस सड़क को शेरशाह के साम्राज्य की लाइफलाइन माना जाता था. तब इस सड़क का नाम हुआ करता था, 'सड़क-ए-आजम'. बाद में इसका नाम हो गया 'ग्रांड ट्रंक रोड'. आज भी ये इसी नाम से जानी जाती है और NH2 इसका एक हिस्सा है.
ये कोई छोटी-मोटी बात नहीं थी. मैदानी भागों में गंगा के किनारे-किनारे गई ये रोड, उत्तर भारत में यातायात का मध्यकाल से ही महत्वपूर्ण मार्ग रही है. व्यापार इसी के जरिए होता आया है. आज भी अगर आप इस पर नजर डालें तो ज्यादातर औद्योगिक केंद्र इसके आसपास ही डेवलप हुए दिखेंगे.
शेरशाह किसी राज्य के विकास में अच्छे और सुचारू यातायात का महत्व समझता था. इसलिए इसके अलावा शेरशाह ने तीन और महत्वपूर्ण सड़कें बनवाईं. लाहौर से मुल्तान, आगरा से जोधपुर होते हुए चित्तौड़ और आगरा से ही बुरहानपुर. और इन सड़कों ने उसे सामरिक रूप से तो समृद्ध किया ही, साथ ही आर्थिक उन्नति में भी सहायता दी.
3. शेरशाह बहुत ही संस्थागत रूप से शासन करने में यकीन करता था. शेरशाह ने 'दीवान-ए-विजारत' की स्थापना की. जिसका प्रमुख वजीर यानी मंत्री होता है. ये करों और राज्य के खर्चों पर नजर रखता था. पर इसी के द्वारा दूसरे मंत्रियों पर भी नजर रखी जाती थी. छोटी से छोटी गड़बड़ी के प्रति भी शेरशाह पूरी तरह चौकन्ना रहता था.
4. 'दीवान-ए-बरीद' नाम के एक डिपार्टमेंट की स्थापना भी शेरशाह ने की. ये जासूसी डिपार्टमेंट था. शेरशाह को इस मामले में उस्ताद माना जाता है. शेरशाह के इस डिपार्टमेंट का नेटवर्क बहुत तगड़ा था. इतिहासकार मानते हैं कि राज्य में ये शेरशाह के लिए आंख और कान का काम करता था.
5. शेरशाह ने शक्ति बढ़ाकर शासक के खिलाफ विद्रोह करने वाले अमीरों पर अंकुश लगाने का क्रिएटिव तरीका निकाला. शेरशाह ने सरकार स्तर पर इस तरह की लड़ाई से बचने के लिए हर सरकार में दो अधिकारियों की नियुक्ति की. शिकदार-ए-शिकदरान और मुंसिफ-ओ-मुंसिफोन. पहला अधिकारी कानून व्यवस्था देखता था. दूसरा जज था और सेना की व्यवस्था देखता था.
दोनों एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में दखल नहीं देते थे, जिससे लड़ाई की आशंका ही पैदा नहीं होती थी. इसका एक कारण ये भी था कि शेरशाह दोनों के अधिकार और शक्ति बांटकर दोनों को मजबूत बनने से रोक दिया था.
6. शेरशाह की तकनीक का लोहा मुगलों ने तो माना ही, अंग्रेजों ने भी माना. शेरशाह ने चांदी के रुपए और तांबे का दाम चलाया. सोने की मुहर भी प्रचलन में थी. इन पर देवनागरी और हिंदी लिपी में लिखा होता था. दरअसल, शेरशाह सूरी जब गद्दी पर बैठा तब उसके काल से पहले के सभी काल के सिक्के चलन में थे.
उसने सारे पुराने सिक्के वापस ले लिए और नए चांदी के रुपए और तांबे के दाम चला दिए. ये सारे सिक्के बिल्कुल एक जैसे थे, जैसे मॉडर्न सिक्के होते हैं. इनका भार तय था, चांदी का रुपया 180 ग्रेन का होता था, जिसमें से 175 ग्रेन असली चांदी हुआ करती थी.
शेरशाह का प्रचलित किया हुआ शब्द 'रुपया' आज भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका सहित सात देशों की मुद्रा है. और भारत से निकले इस शब्द का सारे दक्षिण एशिया में दबदबा है.
शेरशाह की ये मॉडर्न सिक्कों की व्यवस्था सारे मुगलिया काल में ही मान्य नहीं रही. बल्कि ये अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी अपनाई और इतिहासकार विंसेट ए. स्मिथ ने लिखा है, 'यही (सिक्कों की व्यवस्था) उसके वक्त की ब्रिटिश करेंसी का आधार भी थी.'
उस वक्त एक रुपए में 64 दाम हुआ करते थे. जबकि सोने की मुहर और चांदी के सिक्कों के बीच हमेशा के लिए एक अनुपात तय कर दिया गया था. इससे व्यापार बहुत आसान हो गया. उसके इन प्रयासों को आज भी सराहा जाता है. शेरशाह सूरी के इस सिक्कों का सुधार भारतीय सिक्कों के इतिहास में बहुत ही क्रांतिकारी साबित हुआ.
15 अगस्त, 1950 को भारत में नया 'आना सिस्टम' प्रचलन में आया. ये गणतंत्र भारत की पहली अपने ढंग की मुद्रा थी. ब्रिटिश राजा की तस्वीर को सारनाथ के अशोक स्तंभ से बदल दिया गया था. और 1 रुपए के सिक्के पर बने चीते को गेंहूं की बाली में बदल दिया गया. एक रुपये की कीमत अब 16 आने थी.
फिर 1955 में भारतीय मुद्रा (संशोधन) अधिनियम पारित हुआ. जो कि 1 अप्रैल, 1957 से चलन में आया. इसमें दशमलव प्रणाली लागू कर दी गई. अब रुपये की कीमत 16 आने या 64 पैसे न होकर 100 पैसे के बराबर थी. इसको नया पैसा कहा गया था. ताकि ये पुराने वाले सिक्कों से अलग दिखे.
यानि कि शेरशाह सूरी की मौत के बाद 400 सालों से भी ज्यादा उसकी सिक्का व्यवस्था हमारे साथ थी. इतना ही नहीं, आज भी हमारे लोक में शेरशाह की झलक दिखती है, जब हम '16 आने सच्चाई' की बात करते हैं.
7. पहले ही बताया जा चुका है कि शेरशाह ने सरायों की स्थापना की थी. जहां पर लोगों के ठहरने का प्रबंध होता था. यहां पर इंसानों के लिए खाने-पानी की व्यवस्था और जानवारों के लिए चारे का इंतजाम भी होता था. शेरशाह ने इन सरायों में हिंदू और मुस्लिमों के ठहरने की अलग-अलग व्यवस्था कराई थी. जो उनकी सहूलियतों के हिसाब से थी. सराय के रास्ते में सड़कों के किनारे शेरशाह ने पेड़ लगवाए गए थे.
पर इन सरायों का इतना ही महत्व नहीं था. दरअसल जहां-जहां सरायें थीं, धीरे-धीरे कुछ सालों में उसके आस-पास बाजार का विकास होने लगा. फिर वो बाजार कस्बे की शक्ल में बदलने लगा. यही कारण है कि आज भी उत्तर भारत में हमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटे-छोटे बाजार मिलते हैं. ग्रामीण इलाकों में भी. शेरशाह की विरासत इस तरह से सहज रूप में हमारे आस-पास विद्यमान है.
8. इसके अतिरिक्त शेरशाह ने पूर्व में और पश्चिम में कुछ बेहतरीन इमारतों का भी निर्माण करवाया. उसके माप-जोख प्रणाली की कई चीजें भी आज भी भारत में प्रचलित हैं.
पर हजारों लोगों के रहने का इंतजाम करने वाला दूरदर्शी शेरशाह खुद सासाराम में अपने भव्य किंतु बेहद गंदे मकबरे में लेटा हुआ है. जिसका कोई ढंग का रखरखाव नहीं हो रहा है. मकबरा चारों ओर से पानी से घिरा हुआ है पर पानी काई से हरा हो चुका है. स्थानीय लोगों और टूरिस्टों ने वहां बहुत कूड़ा फेंका हुआ है.
बहरहाल, शेरशाह के पूर्व के दिल्ली सल्तनत के सुल्तान और उसके परवर्ती बादशाह, तकनीक के प्रयोग में कोई भी उसका सानी नहीं था. ये भी याद रहे कि यही शेरशाह 1528 में चंदेरी के युद्ध में बाबर के एक सैनिक की तरह लड़ रहा था. और अगले 12 सालों में उसने हिंदुस्तान की सत्ता अपने नाम कर ली.
इसमें भी कोई शक नहीं कि शासन में प्रयोगों के मामले में अकबर से शेरशाह कहीं आगे था. शेरशाह के शासन प्रबंध और सुधारों से गुजरते हुए अकबर की छवि धुंधली पड़ने लगती है. वो भी तब जब शेरशाह ने केवल पांच साल शासन किया और अकबर ने करीब 50 साल. इसमें भी कोई शक नहीं कि शेरशाह के बहुत से बेहतरीन प्रयोग अकबर ने अपनाए और इनका उसे फायदा भी मिला.
(सोर्सेज- अब्बास खान शेरवानी, तारीख-ए-शेरशाही; हिस्ट्री ऑफ मिडिवल हिस्ट्री, सतीश चंद्र; शेरशाह सूरी, विद्याभास्कर; आरबीआई पेपर्स, विकीपीडिया)
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