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बंगाल का शाकाहारी खाना: पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाओं के शोषण से परोसी गई थाली

बंगाली शाकाहारी खाना लंबे समय तक भद्रलोक और संस्कृति के नाम पर हुए महिलाओं के शोषण की बहुत बड़ी मिसाल है

Updated On: May 26, 2018 01:30 PM IST

Animesh Mukharjee Animesh Mukharjee

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बंगाल का शाकाहारी खाना: पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाओं के शोषण से परोसी गई थाली

बंगाल, बांग्ला और बंगाली का ज़िक्र आते ही एक चीज़ अपने आप जुड़ जाती है. बंगाल की संस्कृति का एक अहम हिस्सा मछली है. मछली चावल, फिश फ्राई या मछली के अंडों के पकौड़ों को बंगाल का पर्याय मान लिया गया है. बंगाल और मछली का संबंध अंतर्निहित है लेकिन उससे अलग बंगाल का निरामिष खाना एक ऐसी चीज़ है जिसके ढेर सारे मुरीद हैं.

बंगाल का निरामिष खाना कई कारणों से अनूठा है. बंगाली निरामिष भोजन बिना प्याज़-लहसुन, गरम मसालों के पकवानों का खाना है जो, उत्तर भारत के पनीर और आलू की तानाशाही वाले शाकाहारी भोजन से अलग है. बंगाल की निरामिष थाली अपने स्वाद में तो खास है ही लेकिन इसकी सबसे बड़ी खासियत इसका इतिहास है. बंगाली शाकाहारी खाना लंबे समय तक भद्रलोक और संस्कृति के नाम पर हुए महिलाओं के शोषण की बहुत बड़ी मिसाल है. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि रोज़मर्रा के जीवन में मिले अथाह दर्द को बंगाली दादी, नानियों ने अपनी कलात्मकता और रचनात्मकता के साथ थाली में परोस दिया.

शोषण पर पकी दादी नानी की रसोई

पहले एक घटना सुनिए, मेरी एक दोस्त सुनाती है कि वो बंगाल के किसी गांव में गई थी. वहां एक सज्जन उसे बाइक पर किसी गांव में ले जा रहे थे. भाई साहब ने अचानक से गाड़ी सड़क पर रोकी और सड़क और नाली के बीच की मिट्टी से कुछ उखाड़ने लगे. दरअसल वहां कोई साग उगा था जो बाज़ार में अमूमन नहीं मिलता. बांग्ला निरामिष खाने के कद्रदान ऐसी बहुत सी सब्ज़ियों, फूल और साग के बारे में बताएंगे जिनको बाकी कहीं और के लोग खाने की थाली में नहीं देखते हैं. कच्चा केला, सजहन, पुई, सन जैसी तमाम चीजों से सब्जियां बनती हैं और चाव से खाई जाती हैं.

इन पकवानों का इतिहास बड़ा दर्दनाक है. बंगाल का सवर्ण समाज आज अपने भद्रलोक वाले तमगे पर बड़ा गर्व करता है. लेकिन बंगाल में महिलाओं का शोषण कई स्तरों पर हुआ. बाल विवाह, बेमेल विवाह और बहुविवाह की सबसे ज्यादा मार महिलाओं पर पड़ी और इसमें भी विधवा होना जीवन को नरक बना देने जैसा था. अक्सर बचपन में हुई शादी में बच्चे की मौत हो जाती थी और लड़की पूरा जीवन विधवा के तौर पर काटती थी. 10-15 साल की लड़की की शादी 30-40 साल के आदमी से हो जाती थी और 25-30 की उम्र में कई महिलाएं विधवा हो जाती थीं. अगर ये महिलाएं सती होने से बच गईं तो सारा जीवन सादगी से काटना पड़ता था.

सादगी भरे जीवन का मतलब कहा जाता था, तामसिक या 'गर्म तासीर वाले' खाने की मनाही. इसका असल मतलब था स्वाद पर रोक. खाने में प्याज़-लहसुन नहीं पड़ेगा, मछली-अंडा और दूसरे मांसाहार की बात करना भी पाप. गर्म मसाले नहीं पड़ेंगे. गरिष्ठ मिठाइयों से दूरी. वो भी ऐसे परिवेश में जहां खाना बनाना उत्सव का हिस्सा हो. जहां मछली खाने से ज्यादा उसका तालाब से आना और उसे पकाने का तरीका रोचक हो. वहां अचानक से हर चीज़ की मनाही किसी अत्याचार से कम नहीं.

वो सब्जियां जो कोई नहीं खाता

बंगाल के निरामिष खाने के पकवानों पर नज़र डालिए. कच्चे केले से बना मोचार झोल, कद्दू, मूली और दूसरी कंद जैसी सब्जियों को मिलाकर बनी चचच्ड़ी, सजहन की सब्जी, पुई का साग, परवल, बेसन को केक जैसा बनाकर बनी 'धोखे की सब्जी' कटहल से बनी 'मांस जैसी सब्जी' एचड़ की सब्जी जैसी कई सब्जियां है. इनमें से कई सब्जियों के बारे बिहार के लोग भी अच्छे से जानते हैं. इसका कारण बंगाल के विभाजन से पहले अधिक्तर बिहार और उड़ीसा का उसमें शामिल होना है. इसके साथ ही इन दोनों वर्तमान राज्यों के लिए कलकत्ता ही मजदूरी और नौकरी पाने वाला सबसे बड़ा शहर था.

बंगाल के विधवाओं को खाने में हर स्वाद वाली चीज़ की मनाही थी. इसके चलते उन्होंने कई दूसरे तरीके निकाले ये तरीके बेहद स्वादिष्ट थे. लेकिन, निरामिष विधवाओं के लिए है और मांसाहार पुरुषों के लिए, ये भावना कम नहीं हुई. एक कहावत मिलती है कि अपनी पत्नी के हाथ का सबसे अच्छा निरामिष खाना खाने के लिए आपको उसके विधवा होने का इंतज़ार करना पड़ेगा.

अच्छा खाना महिलाएं न खाएं

ऐसा नहीं था कि ये भेदभाव सिर्फ विधवाओं के साथ था. खाने पर सबसे पहला हक पुरुषों का होता था. मिसाल के तौर पर अगर मछली पकाई जाती है तो उसके सबसे स्वादिष्ट और पौष्टिक माने जाने वाले 'सर' को पुरुष ही खाएंगे. बेटियों बहनों और पत्नियों को दूसरे हिस्से ही मिलेंगे. लाई या खील (फूले हुए चावल) से बने लड्डू वगैरह के अक्सर दो आकार बनते थे जिनमें बड़ी मिठाई लड़कों के लिए छोटी लड़कियों के लिए होती थी. रोचक बात ये है कि ये भेदभाव खुद वो दादी-नानी करती थीं जिन्हें खुद इसका शिकार होना पड़ा.

सवर्ण बंगाली भद्रलोक पर दो प्रभाव और दिखते हैं. बंगाल में मारवाड़ियों और अंग्रेजों का बड़ा असर रहा. मारवाड़ियों से जहां खाने पीने की कई चीज़ों का आदान-प्रदान हुआ, ब्रिटिश विक्टोरियन सोसायटी से भी बहुत चीज़ें आईं और हद से ज्यादा बंगाली और भारतीय बन गईं. उदाहरण के लिए ब्रिटिश नेशनल डिश फिश ऐंड चिप्स का बंगालीकरण माछ भाजा और आलू भाजा बन गया. पुडिंग और कटलेट खाने का सामान्य हिस्सा बन गए.

सबसे बड़ी मिसाल चाय की है. रवींद्रनाथ के उपन्यास चोखेर बाली (आंख की किरकिरी) में एक प्रसंग है. नायिका विनोदिनी बाल विधवा है और उसका अफेयर चल रहा है. एक दूसरी बूढ़ी विधवा विनोदिनी के साथ छिप कर चाय पी रही है. विधवा का चाय पीने के पीछे मजेदार तर्क है. वो कहती है चाय तो उबली हुई पत्तियां हैं, शास्त्रों में पत्तियां उबाल कर पीने के लिए मना थोड़े ही किया गया है. विनोदिनी जवाब में कहती है, 'जीभ की भूख मिटाना सही, शरीर की भूख मिटाना गलत'.

खैर, रवींद्रनाथ जो थे से वो थे. आज भी उनके इस प्रसंग पर कई शुद्धतावादियों की भवें तन जाएंगी. बंगाली भद्रलोक में विक्टोरियन प्रभाव दिलचस्प तरीके से आया. महिलाएं कम खाएं, कम बोलें और एक उमर के बाद 'भद्र महिला' की तरह व्यवहार करे. आज से 1 या दो पीढ़ी पहले की सवर्ण बंगाली महिलाओं के बारे में पता करिए. 35-40 पर पहुंचने का मतलब था कि सादी फीके रंगों वाले कपड़े पहनना (आप ममता बनर्जी के कपड़ों से अंदाजा लगा सकते हैं), सामाजिकता, नाच-गाना और दूसरी मौज-मस्ती से दूरी बना लेना. आज भी कई पारंपरिक परिवारों में ये नियम पालन होते देख सकते हैं.

वैसे इस दवाब का एक और दूसरा प्रभाव भी दिखा. बंगाल (खासतौर पर शहरी) में महिलाएं अलग तरह से मुखर हुईं. स्लीवलेस ब्लाउज़ बंगाली पहनावे का हिस्सा बन गए. परिवार की चार दीवारी में मातृसत्ता का प्रभाव दिखता है. इनके चलते जहां बंगाल की महिलाओं के काले जादू से मर्दों को बकरा बना लेने के रूपक और मिथक गढ़े गए. इससे अलग 'भालो बाड़ीर' महिलाओं की कर्कशता के किस्से आपको पीकू जैसी फिल्मों में देखने को मिल सकते हैं.

कभी मौका लगे तो बंगाल की निरामिष थाली का स्वाद लीजिए और कम से कम एक पल के लिए उन महिलाओं को याद कीजिए जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अपने अभावों से पार पाते हुए इस थाली में रखे भोजन को स्वाद दिया.

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