दूधनाथ सिंह का जाना हिंदी साहित्य के लिए एक अपूरणीय क्षति है. दूधनाथ सिंह न सिर्फ एक कथाकार थे बल्कि एक सजग आलोचक और अध्यापक थे. आजादी के बाद आजादी से जुड़ी इच्छाओं और अपेक्षाओं को कहानियों और उपन्यासों में जगह मिली. आजादी के बाद के भारत की तस्वीर नई कहानी के दौर तक साफ नहीं हुई थी. साठोतरी कहानी के दौर में यह तस्वीर साफ होना शुरू हुई और मोहभंग की स्थिति पैदा हुई. इस मोहभंग को दिखाने के लिए एक नई संवेदना की जरूरत थी. इसी नई संवेदना से प्रेरित होकर हिंदी कहानी में ‘चार यार’- ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, रवींद्र कालिया और दूधनाथ सिंह ने हिंदी कहानी को नई दिशा दी.
दूधनाथ सिंह की रचनाएं वैसे तो इन चार यारों में थोड़ी कम प्रसिद्ध हुईं लेकिन उनकी कई कहानियों ने साठोतरी कहानी की संवेदना को समृद्ध करने में अहम भूमिका निभाई. रीछ, चूहेदानी और नपनी जैसी कहानियों के माध्यम से उन्होंने 60 के बाद के भारत की विसंगतियों स्त्री-पुरुष संबंधों के जरिए सामने रखा. दूधनाथ सिंह एक आलोचक भी थे. उन्होंने अपनी आलोचना में कालक्रम या कालखंड की जगह लेखक की संवेदना को उसके नए या पुराने होने का आधार माना है. 1930 के दशक के लेखक भुवनेश्वर को वे 60 के बाद के दशक का लेखक मानते थे. इस वजह से उन्होंने ‘भुवनेश्वर समग्र’ निकाला. दूधनाथ सिंह की भुवनेश्वर पर इस दृष्टिकोण से शायद ही कोई असहमत हो.
इसी तरह से दूधनाथ सिंह ने महादेवी वर्मा और निराला के ऊपर भी आलोचनात्मक किताबें लिखीं. वे मानते थे कि निराला और महादेवी ने खुद द्वारा बनाई गई परंपराओं को तोड़ने का काम किया है और युग की संवेदना के अनुकूल रचनाएं कीं.
दूधनाथ सिंह की प्रसिद्ध रचनाओं में आखिरी कलाम, धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे, निराला: आत्महंता आस्था, सपाट चेहरे वाला आदमी, लौट आ ओ धार आदि शामिल हैं. यम-गाथा दूधनाथ सिंह का चर्चित नाटक है. यह नाटक मिथक पर आधारित है और इसका कथानक व्यापक सामाजिक राजनीतिक मुद्दों - सामंतवाद, सत्ता की राजनीति, हिंसा, अन्याय, सामाजिक- भेदभाव और नस्लवाद पर सवाल पर खड़े करता है.
दूधनाथ सिंह एक जनवाद पसंद लेखक थे और वे इसे साहित्य को परखने की प्रमुख कसौटी मानते थे.
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