संगीतकार आर.डी बर्मन यानी पंचम दा एक शख्स की बांसुरी के बड़े मुरीद थे. इस कदर मुरीद कि उनसे मिलने के बाद पंचम दा ने अपने कई गीतों में बांसुरी को लीड साज के तौर पर इस्तेमाल किया. इनका पूरा परिचय जानने से पहले ये गाने मुलाहिज़ा फरमाइए और इनमें बांसुरी का काम देखिए.
ये गाती हुई सी बांसुरी है पंडित रणेंद्रनाथ मजूमदार की जिन्हें दुनिया रोनू मजूमदार के नाम से जानती है. फिल्मों में बांसुरी बजाना रोनू मजूमदार के परिचय का बहुत ही छोटा सा हिस्सा है.
रोनू मजूमदार मैहर घराने से ताल्लुक रखते हैं. वो मैहर घराना जिससे पंडित रविशंकर आते हैं, उस्ताद अली अकबर खान आते हैं. आज के दौर में पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के बाद बांसुरी में सबसे बड़ा नाम हैं पंडित रोनू मजूमदार.
रोनू मजूमदार बनारस में पैदा हुए. पिता भानु मजूमदार डॉक्टर थे, पेंटर थे और साथ में बांसुरी वादक भी थे. वो मैहर घराने के अवतारी संगीतकार बाबा अलाउद्दीन खान के शिष्य पंडित पन्नालाल घोष से बांसुरी सीखते थे. लेकिन भानु मजूमदार को इस बात का मलाल रहा कि बांसुरी को जिंदगी नहीं बना सके.
अपना यही सपना उन्होंने बेटे के जरिए पूरा करने का संकल्प लिया. मां भी गाती थीं और रेडियो में पन्ना बाबू की बांसुरी सुनकर सोचती थीं कि उनका रोनू बांसुरी वादक बने. लिहाजा पिता ने छह साल की नन्हीं सी उम्र में रोनू के हाथ में बांसुरी थमा दी. संगीत सिखाना शुरू किया. रोनू बताते हैं कि बचपन में उन्होंने कुछ बांसुरियां खेलते-खेलते तोड़ दीं तो पिता ने कसम दिलाई कि जितनी बांसुरी तुमने तोड़ी है वादा करो कि रोज उतने ही घंटे रियाज़ करोगे.
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पिता से सीखने के साथ-साथ रोनू ठुमरी के दिग्गज गायक पंडित महादेव प्रसाद मिश्रा के घर भी जाते थे. ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती में जो राग-रागिनियों और लोकसंगीत का बनारसी रस रचा-बसा है उसे रोनू ने वहीं से आत्मसात किया. बचपन से ही उन्हें बिस्मिल्लाह खां, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी जैसों को गाते-बजाते देखने का मौका मिला.
बनारस छोड़कर 1974 में रोनू मजूमदार बंबई पहुंचे तो फिर से गुरु की तलाश शुरू हुई. रोनू को गुरु महादेव प्रसाद जी की एक बात याद थी- उत्तम गाना मध्यम बजाना यानी संगीत में गाना सबसे ऊंचा मकाम रखता है. गले से जैसी मधुर श्रुतियां निकल सकती हैं उन्हें किसी भी साज से निकालना मुश्किल होता है.
साजिंदे रियाज करके गले के सुरों के नजदीक जाने कोशिश करते हैं. इस बात को ध्यान में रखते हुए रोनू ने बॉम्बे में गाना सीखना शुरू किया- पंडित लक्ष्मण प्रसाद जयपुरवाले से. लेकिन रोनू का बांसुरी से लगाव बना रहा. जो गुरु सिखाते थे उसे वो गाने के साथ बांसुरी पर बजाते भी थे. ये देखकर गुरु लक्ष्मण प्रसाद ने रोनू के पिता से कहा कि इस बालक को बांसुरी के महान गुणी गुरु पंडित विजय राघव राव के पास ले जाइए.
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साल 1976 से रोनू विजय राघव राव के शिष्य बन गए. सीखने के दौरान रोनू बांसुरी पर संगत तो करने लगे थे लेकिन उन्हें सोलो बजाने का मौका मिला 13 साल की उम्र में. रोनू बताते हैं कि जब उनका वादन खत्म हुआ तो लोगों ने खड़े होकर तालियां बजाईं. उस दिन जिस विशेष आनंद की अनुभूति हुई उसने रोनू को कलाकार बनने के लिए प्रेरित किया.
रोनू मजूमदार के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ 1980 में हुआ ऑल इंडिया म्यूजिक कंपटिशन. यहां रोनू ने फर्स्ट प्राइज जीता. उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के हाथों से अवॉर्ड मिला. परंपरा के मुताबिक वहां रोनू का वादन रखा गया. सुननेवालों में आर.डी बर्मन, रविंद्र जैन और पंडित जसराज जैसे दिग्गज बैठे थे.
सबने रोनू की बांसुरी को बहुत सराहा. आर डी बर्मन ने तो रोनू को दूसरे दिन फिल्म सेंटर स्टूडियो बुला लिया. रोनू वहां पहुंचे तो देखा वहां लता जी बैठी हैं. आर.डी बर्मन ने पूछा कभी फिल्मों में बजाया है? रोनू बोले- नहीं. म्यूजिक नोटेशन लिख लेते हो? रोनू बोले- हां.
पंचम दा ने अगला सवाल किया- खमाज राग जानते हो. रोनू बोले- हां दादा वो तो जानता हूं. आर डी बर्मन खुश हो गए. बोले- ‘खमाज मेरा सबसे पसंदीदा राग है, मेरे 90 पर्सेंट गाने खमाज में ही होते हैं.’ ये बात सही है. राग खमाज में आर.डी बर्मन ने एक से बढ़कर एक सुपरहिट गीत दिए हैं. ऐसे ही कुछ गीत सुनिए जिनमें बांसुरी रोनू मजूमदार ने ही बजाई है.
लेकिन ये तो बहुत बाद की बात है. वो पहला दिन जब रोनू फिल्म सेंटर में आर.डी बर्मन से मिले उस दिन फिल्म लव स्टोरी का गाना रिकॉर्ड हो रहा था- याद आ रही है. आप देखेंगे कि गाने के शुरू में बांसुरी का एक खूबसूरत पीस बजा है.
इस गीत के साथ रोनू और आर.डी बर्मन का साथ चला तो 13 साल तक चलता रहा. उनके सैकड़ों गानों में रोनू की बांसुरी बजी. आर.डी बर्मन ने अपनी आखिरी फिल्म 1942 ए लव स्टोरी में भी रोनू से बांसुरी बजवाई.
रोनू ने रविंद्र जैन, इलैयाराजा और विशाल भारद्वाज जैसे संगीतकारों के लिए भी बजाया लेकिन बाद में शुद्ध शास्त्रीय संगीत में और फ्यूजन म्यूजिक में व्यस्तता के चलते फिल्म संगीत से दूर हो गए.पंडित रविशंकर ने 1982 में हुए एशियाड खेलों के लिए ओपनिंग सॉन्ग बनाया- अथ स्वागतम् शुभ स्वागतम्, जिसमें उन्होंने रोनू को बांसुरी बजाने का मौका दिया.
अथ स्वागतम के साथ ही रोनू का जुड़ाव पंडित रविशंकर के साथ हो गया. रविशंकर से जुड़े तो विदेश जाने के रास्ते खुले. इसी दौरान एक ऐसी घटना हुई जिसने रोनू को रातों-रात दुनिया भर में पहचान दिला दी.
पंडित रविशंकर की ऑर्केस्ट्रा के साथ रोनू मजूमदार मास्को फेस्टिवल ऑफ इंडिया गए. रविशंकर के साथ कुमार बोस, विश्वमोहन भट्ट जैसे मंझे हुए कलाकारों का ग्रुप था जिसे मास्को चैंबर ऑर्केस्ट्रा के साथ जुगलबंदी करनी थी.
रिहर्सल के दौरान मास्को के संगीतकारों को रवि शंकर के बनाए पीसेज बजाने में मुश्किल हो रही थी. मास्को वाले ऑर्केस्ट्रा के म्यूजिक कंडक्टर ने दुभाषिए के जरिए कहलवाया कि हमारा जो पीस है वो भी तो आपके लोगों को बजाना चाहिए.
पंडित रविशंकर के लिए ये स्थिति चुनौतीपूर्ण हो गई. मास्को वालों के वेस्टर्न म्यूज़िक के पीसेज को सीखना और बजाना आसान नहीं था. रविशंकर ने अपने सारे कलाकारों की ओर बारी-बारी से देखा, सब सन्नाटे में थे. तभी एक हाथ उठा, कॉन्फिडेंस से भरा हुआ. दरअसल रोनू को शुरू से नोटेशन लिखने की आदत थी.
वेस्टर्न म्यूजिक के पीसेज भी वो लिख लेते थे इसीलिए उनको लोग कंप्यूटर कहते थे. कंप्यूटर तब तक चुपके से अपना काम कर चुका था. रोनू के चेहरे पर विश्वास देखकर रविशंकर ने राहत की सांस ली. उन्होंने गर्व के साथ बांग्ला में कहा- ‘जाओ, उधर उनके पास बैठकर बजाओ, उनको सुना दो’. ये मास्को की धरती पर हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी संगीतकारों की लाज बजानेवाली बात थी और रोनू ने वो कर दिखाया.
जब ये जुगलबंदी मंच पर हुई तो इसका सीधा प्रसारण दूरदर्शन पर किया गया. इसके बाद रोनू मजूमदार पूरे भारत में सेंसेशनल फ्लूट प्लेयर के तौर मशहूर हो गए.
इसके बाद रोनू मजूमदार की संगीतकार की शख्सियत बड़ी होती चली गई. बिल क्लिंटन की जिंदगी पर आधारित फिल्म प्राइमरी कलर्स के लिए म्यूजिक कंपोज किया. मर्चेंट आईवरी की फिल्म इन कस्टडी में भी उनकी बांसुरी गूंजी जिसमें संगीत दिया था उस्ताद जाकिर हुसैन ने.
जॉर्ज हैरिसन, जॉन हैसेल्स, लैरी कोरिएल जैसे दिग्गजों के साथ स्टेज शेयर किया. 1996 में अलबम ‘टाबुला रसा’ के लिए ग्रैमी नॉमिनेशन मिला जिसमें विश्वप्रसिद्ध बैंजो वादक बेला फ्लेक और मोहनवीणा बजानेवाले पंडितविश्व मोहन भट्ट भी साथ थे. हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत के दिग्गजों के साथ भी उन्होने जुगलबंदियां कीं.
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