देहरादून में 27 दिसंबर 2016 को हुई अपनी पहली चुनावी रैली में पीएम नरेंद्र मोदी ने उत्तराखंड के लोगों से एक खास राजमार्ग बनाने का वादा किया. चारधाम की यात्रा के लिए बनने वाला ये राजमार्ग मौसम में खुला रहेगा और इसमें 13 आधुनिक ब्रिज होंगे.
ऐसा राजमार्ग अगर सचमुच बनता है तो यह किसी हनुमान-कूद से कम नहीं होगा क्योंकि इसको बनाने में कई साल लगेंगे और अरबों रुपये खर्च होंगे. खैर, इस वादे से पहली बात यह झलकती है कि प्रधानमंत्री को उत्तराखंड के पहाड़ों और प्रकृति-परिवेश की खास समझ नहीं है.
दरअसल, चारधाम यानि बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के लिए पहले से ही चौड़ी सड़कें मौजूद हैं. बद्रीनाथ और गंगोत्री तक तो बड़ी आसानी से कार चलाते हुए जाया जा सकता है. जरुरत सड़कों के बेहतर रख-रखाव और उनके आस-पास बेहतर सुविधा मुहैया कराने की है.
दूसरी बात यह कि चारधाम जाने के लिए हर मौसम में खुली रहने वाली सड़क नहीं हो सकती. ऐसा लिए क्योंकि सारे धाम जाड़े के दिनों में बंद हो जाते हैं और सडकें भारी बर्फ से ढंक जाती हैं. तीसरे, राजमार्ग के बनने पर पहाड़ी प्रकृति-परिवेश और सेहत को भारी नुकसान पहुंचेगा. सड़कों की बहुतायत होने से यहां का प्रकृति-परिवेश पहले ही बहुत नुकसान उठा चुका है.
प्रधानमंत्री ने इस बात की पूरी तरह से अनदेखी की है. उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके, खासकर टिहरी, पौड़ी और चमोली में विकास-परियोजनाओं की भरमार है क्योंकि यहां से हमारी दो बड़ी नदियां गंगा और यमुना निकलती और बहती हैं. यहां कुछ और नदियों का भी उदगम और प्रवाह-क्षेत्र है. इन नदियों के कारण उत्तराखंड का पहाड़ी इलाका बिना नदी वाले पहाड़ी इलाकों की तुलना में ज्यादा नम और नाजुक है. टिहरी बांध से बनी झील में मिट्टी और पत्थर का गिरना आज यहां एक आम बात है.
पर्यटन उद्योग पर चोट
इसमें कोई शक नहीं कि पर्यटन, खासकर तीर्थस्थानों का पर्यटन उत्तराखंड की आमदनी का बड़ा जरिया साबित हुआ है. राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में पर्यटन से होने वाली आमदनी का हिस्सा 4.4 फीसदी है. 2013 की भयावह बाढ़ से यहां के पर्यटन पर करारी चोट पड़ी थी और 12 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था. लेकिन उत्तराखंड के सकल घरेलू उत्पाद की तुलना इसके छोटे पड़ोसी हिमाचल प्रदेश से करें तो एक अलग ही तस्वीर उभरकर सामने आती है.
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हिमाचल प्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद में पर्यटन-उद्योग का योगदान 7.8 फीसद का है जबकि वहां उत्तराखंड की तुलना में कम तीर्थस्थल हैं. लेकिन, दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश में पर्यटन-स्थल बहुत ज्यादा हैं. वहां कम से कम पच्चीस खूब मशहूर और शोर-शराबे से दूर बेहतर सुविधा वाले ऐसे ठिकाने मौजूद हैं जिनके आकर्षण में बंधकर विदेशी सैलानी हर साल खींचे चले आते हैं.
उत्तराखंड में भी प्राकृतिक पर्यटन स्थल कम नहीं हैं, लेकिन चंद जानी-पहचानी जगहों को छोड़ दें तो बाकी सभी जगहों का अभी पूरी तरह से विकास होना बाकी है, ताकि वे पर्यटकों की भीड़ को संभाल सकें. ये जानकर बड़ा आश्चर्य लगता है कि उत्तराखंड के तकरीबन सारे ही पर्यटन-स्थल आजादी से पहले के वक्त में अंग्रेजों के खोजे हुए हैं.
चमोली जिले का औली एक मात्र पर्यटन-स्थल है जिसे आजादी के बाद के वक्त में शीतकालीन खेलों के केंद्र के रुप में विकसित किया गया. यहां भी रख-रखाव और सुविधाओं की कमी है. अंग्रेजी जमाने से ही उत्तराखंड के साथ एक दुर्भाग्य यह लगा रहा कि अधिकतर पर्यटन-स्थलों पर फौजी छावनियां हावी रहीं.
रानीखेत, कौसानी, चकराता, लैंड्सडाउन, हरसिल जैसी कुदरती खूबसूरती की नायाब जगहों पर सेना हावी है. इस वजह से इनके विस्तार और सुधार में बाधा है क्योंकि यहां सेना की अनुमति के बगैर बुनियादी ढांचा खड़ा करने का कोई काम नहीं किया जा सकता.
राजनैतिक दलों की उदासीनता
जब यह इलाका उत्तरप्रदेश में था या फिर जब यह एक अलग सूबे के रुप में सामने आया तब भी किसी सरकार या राजनीतिक दल ने यहां देश और विदेश के सैलानियों को अपनी तरफ खींचने वाले नये 'पर्यटन स्थल-खोजने-बसाने' की बात नहीं सोची. ऐसा होता तो पर्यटन से राज्य को मोटी कमाई होती.
मिसाल के लिए गंगोत्री जाने वाले रास्ते के एक मुकाम हरसिल को ही लें. भगीरथी की तंग घाटी में यह एक दुर्भल चौरस जगह है. इसकी खोज कैप्टन विल्सन नाम के एक फौजी ने की थी जिसे बाद में राजा विल्सन के नाम से पुकारा गया. कैप्टन विल्सन 1857 विद्रोह के वक्त की ब्रिटिश फौज का भगोड़ा था. उसने उम्दा किस्म के सेबों की खेती शुरु की और भगीरथी के पानी का इस्तेमाल लट्ठों को ढोने में किया. उस वक्त अंग्रेजी सरकार में इन लट्ठों की बड़ी मांग थी. लट्ठों का इस्तेमाल रेल की पटरी बिछाने में हो रहा था.
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विल्सन ने इस कारोबार से इतनी रकम कमायी की टिहरी के राजा का राजस्व दस गुना बढ़ गया. विल्सन ने अपनी मुद्रा भी चलायी और मुकामी तौर पर बिजली बनाना शुरु किया. उसने लकड़ी का एक विशाल महल बनवाया था जो दो दफे अगलगी का शिकार होकर ढह गया. महाज्ञानी राहुल सांकृत्यायन अपनी तिब्बत-यात्रा के दौरान कवि नागार्जुन के साथ इस महल में ठहरे थे. उनकी तिब्बत-यात्रा का मकसद बौद्ध-धर्म की मूल पांडुलिपियां भारत लाना था.
हरसिल को देश के सबसे सुंदर और निर्मल पर्यटन-स्थल के रुप में विकसित किया जा सकता है लेकिन यहां फौजी छावनी है. सो, सैलानियों के रहने-ठहरने की यहां क्षमता सीमित है और आने वालों के लिए यहां कोई खास स्वागत-भाव भी नहीं है. दरअसल, उत्तराखंड मे हर ओर कई अनोखी शांत-सुरम्य जगहें मौजूद हैं लेकिन उन्हें खोजना और एक भरे-पूरे पर्यटन-स्थल के रुप में विकसित करना इस राज्य के किसी राजनीतिक दल की प्राथमिकता में शामिल नहीं है.
इस हालत का नतीजा हैं तीर्थस्थलों पर बेहिसाब भीड़. तीर्थयात्री किस संख्या में तीर्थस्थलों पर पहुंचे इसे लेकर कोई नियम या नियंत्रण नहीं लागू हुआ. साल 2013 की भयावह बाढ़ और त्रासदी घटी हुई तो केदारनाथ में कम से कम 34000 तीर्थयात्री मौजूद थे. इसके त्रासदी के बाद तीर्थयात्रियों की संख्या पर पहली बार नजर रखना शुरू किया गया है.
अब भी भीड़-भाड़ के दिनों में तीर्थस्थलों पर यात्रियों का इतना बड़ा हुजूम जुटता है कि हालात बेकाबू हो जाते हैं.
ऐसी सूरत में प्रधानमंत्री का वादा कि चारधाम के लिए एक विशाल राजमार्ग बनेगा, उत्तराखंड की समस्या को देखते हुए मुंह बिराने की बात जान पड़ता है जबकि इस समस्या का निदान ज्यादा से ज्यादा नये और आधुनिक पहाड़ी स्थल ढूंढ़कर किया जा सकता है. ऐसा करने से उत्तराखंड का राजस्व भी बढ़ेगा और सूबा ज्यादा सुंदर, ज्यादा रहने लायक जगह में तब्दील हो सकेगा.
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