राजस्थान के चित्तौड़गढ़ किले के पद्मिनी महल में क्षत्रिय समाज के संगठन करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने पुरातात्विक महत्व के महल में घुसकर उस ऐतिहासिक दर्पण को तोड़ दिया, जिसके बारे में कहा जाता है कि इससे पद्मिनी का सौंदर्यवान चेहरा उस वक्त के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी को दिखाया गया था.
इस महल में गोल आकार के तीन कांच लगे थे और करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने ये तीनों दर्पण तोड़ दिए. पिछले दिनों जब फिल्म निर्माता-निर्देशक संजय लीला भंसाली अपनी फिल्म पद्मावती की शूटिंग जयपुर में कर रहे थे तो करणी सेना ने उन्हें पीट दिया था.
अब करणी सेना का यह कहना है कि उस दौर में दर्पण का आविष्कार ही नहीं हुआ था तो कैसे पद्मिनी का चेहरा अलाउद्दीन को दिखाया गया और कैसे यहां दर्पण दिखाए जा रहे हैं.
प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाती
लेकिन उत्तर भारत के इतिहासकारों और इतिहास के जानने वालों की मानें तो यह स्पष्ट है कि मुगलकाल की बहुत सी ऐसी बातें हैं जो राजपूत समाज ही नहीं, भारत में उस समय रहने वाले बहुत से समाजों की जातिगत और सामुदायिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाती हैं. ऐसा इतिहास में भी रहा है और पौराणिक तथा वैदिक काल में भी.
इतिहास की कितनी ही पुस्तकों में लिखा गया है कि जयपुर के राजा भारमल जब अकबर के करीब आए तो उनकी बेटी यानी भगवंत दास की बहन से अकबर की शादी हुई थी. इस शादी के लिए सांभर और सांगानेर क्षेत्र में बहुत बड़े शामियाने लगाए गए और आयोजन हुए. इसी रिश्ते से अकबर बादशाह कुंवर मानसिंह के फूफा लगते थे.
युद्ध को तैयार, समर्पण को नहीं
जिस समय हल्दीघाटी का युद्ध हुआ, उससे ठीक पहले जब महाराणा प्रताप और अकबर के बीच संधि वार्ताएं चल रही थीं तो प्रताप युद्ध को तैयार थे, समर्पण को नहीं.
यह फूफा शब्द मेवाड़ और दिल्ली के बीच संघर्ष के दौरान बहुत बार गूंजता है. अकबर का संदेश लेकर जब मानसिंह मेवाड़ आये तो प्रताप ने बातचीत के लिए मिलने से इनकार कर दिया और बेटे को भेज दिया. मानसिंह के व्यंग्य पर प्रताप ने संदेश भेजा: 'आप अपनी ताकत से आएंगे तो चित्तौड़ मालपुओं से आपका स्वागत करेगा, लेकिन अगर आप अपने फूफा के जोर से आएंगे तो जहां मौका मिलेगा, उस युद्ध के मैदान में आपकी खातिर की जाएगी.'
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प्रताप के इस जवाब पर मानसिंह बिलबिला उठा. गुस्से में उसने भोजन को हाथ भी नहीं लगाया. उसने चावल के कुछ दाने उठाकर अपनी पगड़ी पर बांध लिया और एलान किया: आपके सम्मान की खातिर जयपुर ने अपने सम्मान का बलिदान दिया और अपनी बहन-बेटियां तुर्काें को दे दीं.
आमेर के राजा भारमल की बेटी की कोख से ही शहजादे सलीम का जन्म हुआ था. यह बात बताने वाली इतिहास की सैकड़ों पुस्तकें हैं. भारमल की इसी बेटी का नाम इतिहास में मरियम जमानी बताया जाता है.
दिल्ली का राज तुर्कों का नहीं, हिंदुओं का
अकबर और जयपुर राजघराने के परिवार इतने मजबूत थे कि अकबर मानसिंह को फरजंद यानी बेटा कहा करता था. मानसिंह की शान में एक कवि ने यहां तक लिखा कि दिल्ली का राज तुर्कों का नहीं, हिंदुओं का है.
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इतिहास का एक और पन्ना देखिए, जिसमें साफ लिखा है कि अकबर ने अपने शहजादे सलीम की शादी जोधपुर के मोटा राजा उदयसिंह की बेटी मानी बाई से जोड़ी थी. जोधपुर की होने की वजह से ये जोध बाई कहलाईं. अकबर खुद बेटे की बरात लेकर जोधपुर गए और इस शादी के वैभव के किस्से इतिहास में बिखरे पड़े हैं.
कहते हैं कि जब शादी हो गई तो दुल्हन की पालकी पहले अकबर और सलीम ने उठाई और फिर अमीर उमरा में इतनी होड़ लगी कि कहारों को पालकी उठाने की नौबत ही नहीं आई.
इतिहास बताता है कि जोधपुर की इस बेटी को मुगल खानदान में बहू बनकर जाने के बाद ताज बीबी का खिताब दिया गया और खुर्रम यानी शाहजहां इसी का बेटा था.
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