संजय लीला भंसाली की बेहद कामयाब फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी (2015)’ का गीत ‘पिंगा’ पेशवा बाजीराव की पत्नियों काशीबाई और मस्तानी की मुलाकात को नए तरीके से पेश करता है. दो मुख्य अभिनेत्रियां प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण खुद को बाजीराव का सच्चा प्यार साबित करने की जुगत में हैं. यह फिल्म के सबसे नाटकीय दृश्यों में एक है.
इस गाने का नजदीक से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह गाना मराठी फिल्मों ‘अमर भूपाली (1951)’ के गीत ‘लटपट, लटपट तूजा चलाना’ और ‘चंदानाची चोली अंग अंग चली (1975)’ के लोकगीत ‘नाच आ घूमा’ से काफी मिलता-जुलता है.
काबिल इंटेलेक्चुअल्स और स्कॉलर्स ने पिंगा गाने के नृत्य संयोजन और लावणी के इस पर जरूरत से ज्यादा असर के लिए इसकी आलोचना की है. लावणी नृत्य करने वालों ने भी इस गाने के नृत्य संयोजन की यह कहते हुए आलोचना की है कि यह लावणी की महाराष्ट्रीय परंपरा से जुड़ा हुआ नहीं है.
लावणी को गलत तरीके से पेश किया जाता रहा है
‘पिंगा’ लावणी को गलत तरीके से पेश करने का पहला मामला नहीं है. ‘अग्निपथ’ का गाना ‘चिकनी चमेली’ और ‘फरारी की सवारी’ का गीत ‘मल्ला जाउ दे’ भी इसके लिए दोषी हैं. अगर आप इतिहास में थोड़ा पीछे जाएं तो यह पता चलेगा कि ज्यादातर उपलब्ध साहित्य में लावणी को गलत तरीके से पेश किया गया है. इसे समझने के लिए उस राजनीति को समझना होगा जिससे नृत्य खुद को जुड़ा हुआ मानता है.
उस तारीख का पक्के तौर पर पता लगाना मुश्किल है जब लावणी एक नृत्य-शिल्प के रूप में स्थापित हुआ. कई स्कॉलर्स का कहना है कि इसकी शुरुआत 13वीं सदी में हो गई थी और 19वीं सदी में पेशवा शासन के दौरान यह समृद्ध हुआ. इसकी वजह यह थी कि ब्राह्मण पेशवाओं और पश्चिम महाराष्ट्र के नेताओं और शासकों से इस नृत्य को काफी समर्थन और सहयोग मिला.
लावणी का जाति, जेंडर, सेक्सुअलिटी और इसकी राजनीति से मुश्किल भरा रिश्ता रहा है. ऐतिहासिक रूप से बड़े पैमाने पर लावणी नृत्य करने वाले ज्यादातर भातू, कलवट, कोल्हाटी, महार, मतंगी और डोंबरी जातियों से जुड़े रहे हैं, जो महाराष्ट्र की दलित जातियों में शामिल हैं.
लावणी का मूल्यांकन पुरुषवादी नजरिए से किया जाता था
लावणी का संगीत संयोजन करने वाले मुख्य रूप से महाराष्ट्र के उच्च जाति और वर्गों से ताल्लुक रखते थे. जब महिलाएं इस नृत्य को करती थीं तो इससे जाति, वर्ग और क्षेत्र को लेकर कई बहसें खड़ी हो जाती थीं. यह बहसें पुरूषवाद और नारीत्व की स्थापित मान्यताओं पर आधारित होती थीं और समस्याग्रस्त पुरुष नजरिये से की जाती थी.
अम्बेडकर का मानना था कि लावणी परफॉर्मेंस एक शोषणकारी और भ्रष्ट माध्यम है, जिसके जरिये दलित जातियों की महिलाओं का यौन शोषण होता है और बाद में वे उच्च जातियों के मर्दों के जरिये वेश्यावृति में धकेल दी जाती हैं. इन्हीं लोगों के लिए लावणी नृत्य 19वीं सदी में मनोरंजन का एक बड़ा साधन था.
लावणी में औरतों की सेक्सुऐलिटी का ही चित्रण किया जाता था
लावणी को खासतौर से स्थानीय लेखकों द्वारा लिखा और संगीतबद्ध किया जाता था, जिनके विषय महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमते थे. उनमें ज्यादातर विपरीतलिंगी कामुक कथाओं पर आधारित होते थे और वे महिलाओं की सेक्सुअल जरूरतों और अाकांक्षाओं के विवरण से भरे रहते थे. लावणी नृत्य करने वालों की खूबसूरती और शारीरिक सौंदर्य की उनमें काफी चर्चा रहती थी.
लावणी की ऐसी कई कथाएं हैं जिनमें कई तरह के सेक्सुअल पोजीशन्स, दूर बसे साथियों के साथ महिलाओं के सेक्स करने की इच्छा को दर्शाया गया है. लावणी को परगमन (Adultery), अपने पार्टनर की सेक्सुअल असक्षमता से निराश महिलाओं और अपने मासिक धर्म के दौरान सेक्स के लिए मना करने वाली महिलाओं को विषय बनाकर भी लिखा गया है.
जेंडर, सेक्सुअलिटी और सेक्स जैसे विषयों पर अपनी बेबाक टिप्पणी की वजह से लावणी के प्रदर्शन के तौर-तरीकों को लेकर बहसों का एक सिलसिला शुरू हो गया.
लावणी पर अश्लील होने का तमगा लगा
1948 का एक वाकया है, जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बालासाहब खेर ने बॉम्बे शहर में तमाशा के प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी. क्योंकि तमाशा और लावणी दोनों को जनता के मनोरंजन के लिहाज से अश्लील और गलत समझा जाता था. लावणी पर प्रतिबंध इस शर्त के साथ हटा कि अश्लील गीत और नृत्य को प्रदर्शन से पहले निकाल दिया जाएगा. इस काम को सुनिश्चित करने और अश्लील प्रदर्शनों पर शिकंजा कसने के लिए महाराष्ट्र में कानूनी समूहों का गठन किया गया.
इस दौर में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला. इस प्रक्रिया में कला और जनता के मनोरंजन के लिए की जाने वाली अश्लीलता का अंतर स्पष्ट किया जाने लगा. इन शिकंजों और सख्त सेंसरशिप के जरिये लावणी के कई रूपों को साफ-सुथरा बनाया गया, जिसका सीधा असर इसे करने वाले वंचित समुदाय के कलाकारों को झेलना पड़ा.
पुराने नृत्य और बॉलीवुड धुनों का मिश्रण है आधुनिक लावणी
आधुनिक लावणी जिसे आप टीवी पर देखते हैं, वह इस नृत्य का यही साफ-सुथरा रूप है. यह संभव है कि लावणी को मराठी और हिन्दी चैनलों के रियलिटी टीवी शो के जरिये बहुत लोकप्रियता हासिल हुई हो, लेकिन लावणी के नाम पर जिस नृत्य का प्रदर्शन इन टीवी चैनलों पर होता है, वह आमतौर पर मराठी और हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय धुनों पर ही आधारित होती हैं. इस कला का एक नया सौंदर्यबोध रचते हुए लावणी के पुराने तरीकों की तुलना में इन्हें तरजीह दी जाती है.
हाल के वक्त में लावणी को थियेटर के अलग-अलग रूपों, पॉपुलर कल्चर और डिजिटल माध्यम पर कई मजेदार तरीकों से पेश किया गया है.
लावणी पर बनी एक डॉक्यूमेंटरी का प्रोमो यहां देखे. (लेखिका नृत्यांगना और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी स्कॉलर हैं)
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