दिल्ली के खाने की बात होती है तो पुरानी दिल्ली का नाम सबसे पहले आता है. और उसमें भी सबसे पहले बात होती है जामा मस्जिद के आसपास के खाने की. यूं तो दिल्ली में अलग-अलग तरह के कई क्वीज़ीन और रवायती खाने आपको मिल जाएंगे लेकिन पुरानी दिल्ली का नॉनवेज, मांसाहारियों के जेहन में एक खास जगह रखता है. देश भर में मुगल खाने के नाम से बेचे जा रहे इस खाने का ज्यादातर हिस्सा वो है जिसका मुगल बावर्चीखाने से ज्यादा ताल्लुक नहीं है लेकिन फिर भी एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद, जामा मस्जिद के सामने मिलने वाले इस खाने का स्वाद बहुतों को दीवाना बनाता है.
मटिया महल का स्वाद
दिल्ली मेट्रो की येलो लाइन के चावड़ी बाज़ार या वॉइलेट लाइन के जामा मस्जिद स्टेशन पर उतर कर पैदल 5 मिनट की दूरी पर है जामा मस्जिद का गेट नंबर एक. इस गेट के ठीक सामने है मटिया महल. इस गली को खाने के मामले में दुनिया की सबसे मशहूर गलियों में से एक कहा जाए तो गलत नहीं होगा. यूं तो इस मटिया महल की हर दुकान की अलग खूबी है, हर डिश के पीछे एक अलग कहानी है लेकिन आज बात करेंगे निहारी और पायों की.
निहारी ग्रेवी वाला मीट है जो पारंपरिक रूप से भोर का नाश्ता है. पाए बकरे के खुरों को कहते हैं. दोनों को ही रात में 8-10 घंटे तक तक पकाया जाता है और सुबह-सुबह निहार मुंह (खाली पेट) खाते हैं. निहारी में पड़ने वाले ज्यादातर मसाले ऐसे होते हैं जो आपको सुबह की ठंडक (खास तौर पर सर्दियों में) थोड़ी गर्माहट देंगे. ढेर सारी अदरक, लौंग, प्याज़ और मिर्च में बनी निहारी खाने वाले को तरोताज़ा करने के लिए काफी होती है.
कामगारों का खाना था निहारी
निहारी कहां से आई इस बारे में दो मत हैं. दिल्ली वाले कहते हैं कि नादिरशाह के वक्त निहारी दिल्ली में आई, कुछ इसे शाहजहां से जोड़ते हैं. दूसरी ओर लखनऊ वालों के पास एक अलग कहानी है. कहते हैं कि जब अवध में लंबा अकाल पड़ा तो नवाब आसफउद्दौला ने लोगों को रोजगार देने के लिए इमामबाड़े बनवाए. उस समय रोज सुबह काम शुरू करने से पहले निहारी खिलाई जाती थी.
पहली निहारी किसने खिलाई की बात छोड़ दें तो एक बात तय है कि निहारी की कल्पना वर्किंग क्लास और सिपाहियों को ध्यान में रखकर की गई होगी. देर रात में देग पर मीट चढ़ा दिया गया. आटा माड़कर रख दिया गया. सुबह होते-होते मीट पक गया. आटा खमीर में फूलकर दोगुना हो गया. लोग फज्र की नमाज़ पढ़कर आए, निहारी रोटी खाई और काम पर निकल गए. जिस दौर में चाय, बिस्कुट और ब्रेड का चलन नहीं था ताज़ादम होने का ये कारगर तरीका रहा होगा.
चूंकि अब दिल्ली में भी लेट नाइट कल्चर खूब है और हर एक का सुबह 7-8 बजे जामा मस्जिद, मटिया महल पहुंचना मुश्किल है तो निहारी शाम को भी मिलने लगी है. करीम जैसे प्रसिद्ध होटल में अब शाम की निहारी का ही प्रचलन ज्यादा है.
कितनी मुगल है निहारी?
निहारी और पुरानी दिल्ली के दूसरे ज़ायकों के बारे में कोई दो राय नहीं है. लेकिन इसके पूरी तरह मुगलिया होने की बात नहीं कही जा सकती. सबसे पहली बात तो ये मुगल खाने का रूप बाबर से बहादुरशाह जफर तक बहुत बदला है. समरकंद से आए बाबर के समय का खाना अकबर के समय के खाने बहुत अलग था. अकबर ने राजपूतों से काफी संधियां, संबंध स्थापित किए इसका सीधा असर रसोई पर भी पड़ा. शाहजहां के आते-आते पुर्तगाली और दूसरे यूरोपियन भारत में जड़े जमा चुके थे. इन सब का सीधा असर मुगल खाने पर पड़ा.
उदाहरण के लिए टमाटर और हरी मिर्च अब पुरानी दिल्ली के खाने का अहम हिस्सा है, दोनों भारत में पुर्तगालियों के साथ आए. आज दिल्ली में नॉनवेज खाने की कल्पना तंदूर के बिना नहीं की जा सकती है, लेकिन तंदूर दिल्ली का हिस्सा सन 1947 में उस पार से आए शरणार्थियों के साथ बना.
दरअसल तंदूर का इस्तेमाल लंबे समय तक पंजाब और अफगानिस्तान में रोटियां पकाने में होता रहा. इन समूहों में सांझे चूल्हे की रवायत थी जिसमें एक साथ कई रोटियां पकाना आसान था. दिल्ली में जब बंटवारे के बाद पेशावर वगैरह से लोग आए तो शरणार्थी कैंप्स के आस-पास तंदूर लगे. इनसे तंदूर चिकन का ऐसा चलन शुरू हुआ कि आज दिल्ली में तंदूरी मोमोज़ जैसी डिश भी खोज ली गई है. 1947 के बंटवारे ने तंदूर ने दिल्ली का स्वाद बदलने के साथ-साथ बिगाड़ा भी है.
अगर आपको अभी भी न यकीन न हो तो गौर करिए कि भारत का ज्यादातर मुस्लिम नॉनवेज, कबाब, कीमा, हलीम, स्ट्यू और बिरयानी वगैरह में कुछ भी तंदूर पर नहीं पकता. तंदूर पर पके चिकन के नाम पर हमें इस्लामिक नहीं पंजाबी खाना याद आता है.
वैसे मुगल बादशाहों के मुगल खाने की बात करें तो वो आज की तारीख में लगभग अप्राप्य है. समरकंद से आए बाबर के दौर में बिरयानी नहीं पुलाव का चलन ज्यादा रहा होगा. बिरयानी और पुलाव के फर्क पर फिर कभी बात करेंगे, मगर भारत से बाहर अपने मूल स्थान ईरान में बिरयानी (बिरयान) में चावल नहीं होता है. बल्कि मीट को रोटी में लपेट कर परोसा जाता है. एम्परर'स टेबल किताब में सलमा हुसैन बताती हैं कि उस समय के खाने में कई अलहदा बातें थीं. मिसाल के तौर पर अक्सर पुलाव के सारे चावल सोने या चांदी के वर्क में लिपटे होते थे.
मुगल बादशाहों के किचन का मेन्यू तय करने में हकीम की सलाह भी ली जाती थी. और इसी हिसाब से खाना पकता था. मीट को सेहतमंद बनाने के लिए मुर्गियों को सोने-चांदी के दाने तक खिलाए जाते थे. अकबर के समय में सब्जियों को गुलाबजल में सींचा जाता था ताकि खाने में अलग खुशबू आए.
हर किसी के लिए सुकून भरी है जामा मस्जिद
मेट्रो स्टेशन से जामा मस्जिद पहुंचने का रास्ता छोटा सा है. लेकिन इस रास्ते में काफी भीड़ और गंदगी मिलती है. ऊपर चढ़ने की कई सीढ़ियां हैं जिनमें रैंप न होने से व्हीलचेयर यूज़र और बुज़ुर्गों को समस्या होती है.
इन सबके बाद भी जामा मस्जिद के अंदर पहुंच कर काफी सुकून मिलता है. बड़ा सा अहाता और बीच में पानी का हौद सुकून देते हैं. शाम के समय डूबता हुआ सूरज (मस्जिद का मुंह पश्चिम की तरफ होता है) अच्छा लगता है. यहां एक मीनार भी है जिसपर चढ़कर आप पुरानी दिल्ली का दीदार कर सकते हैं. इसके लिए आपको टिकट लेना पड़ेगा.
गौर करने वाली बात ये है कि जामा मस्जिद एक मस्जिद से ज्यादा आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की इमारत है. इसमें महिलाओं और किसी भी धर्म के लोग बेरोकटोक आ जा सकते हैं. इसलिए मौका लगे तो कभी जामा मस्जिद जाइए और निहारी का लुत्फ उठाइए. यहां करीम, रहमतुल्ला, अलजवाहर जैसी तमाम प्रसिद्ध दुकानें हैं. इन सभी के पास अपनी-अपनी कहानियां हैं. मटिया महल में मावे की काली जलेबी, फालूदा और शाही टुकड़े जैसी मिठाइयां भी हैं. इन सबके अलग-अलग स्वाद हैं और इनकी अलग कहानियां, कभी उनका भी ज़िक्र करेंगे.
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