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तीन तलाक: सिर्फ मुस्लिम महिलाएं नहीं, मर्द भी तंग

मुसलमान पति के लिए भारतीय न्याय व्यवस्था के दरवाजे बंद हैं.

Updated On: Dec 08, 2016 01:14 PM IST

Tufail Ahmad Tufail Ahmad

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तीन तलाक: सिर्फ मुस्लिम महिलाएं नहीं, मर्द भी तंग

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तीन तलाक पर बड़ा फैसला सुनाया है. इसे मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ क्रूरता बताया है. वहीं आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस फैसले को शरियत के खिलाफ बताया है. बोर्ड अब इस फैसले को सर्वोच्च अदालत में चुनौती देगा. तीन तलाक के मुद्दे पर ही तुफैल अहमद ने विस्तार से लिखा था. आप इस मसले को इस लेख के जरिए समझ सकते हैं.

तीन तलाक को खत्म करने की मांग को मुसलमान महिलाओं की आजादी के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह एक मुसलमान पति की भी जरूरत है. मौजूदा कानूनों के तहत मुसलमान पति के लिए भारतीय न्याय व्यवस्था के दरवाजे बंद हैं. इसलिए तीन तलाक और इससे जुड़े मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट के सामने भारत सरकार का संवैधानिक रुख बिल्कुल सही है.

7 अक्टूबर को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा- ‘लैंगिक समानता और महिलाओं की गरिमा ऐसे संवैधानिक मूल्य हैं जिन पर समझौता नहीं हो सकता...’ और ‘धार्मिक रीति रिवाज अधिकारों (संविधान में दिए गए) की राह में बाधा नहीं बन सकते.’ सरकार का रुख साफ है- ‘तीन तलाक, एक से ज्यादा शादी और निकाह हलाला (यानी पूर्व पति से दोबारा शादी के लिए पहले किसी अन्य व्यक्ति से शादी करना) धर्म का जरूरी हिस्सा नहीं माने जा सकते और इसीलिए धार्मिक आजादी के अधिकार के तहत इन्हें संरक्षण नहीं दिया जा सकता.’

तलाक एक कलंक

भारत में आमतौर पर तलाक को कंलक माना जाता है, जिसे पुरूषों के मुकाबले महिलाओं को ज्यादा भुगतना पड़ता है.

इस्लाम में भी तलाक एक कंलक है क्योंकि ऐसा करने से मना किया जाता है. इसका नतीजा यह होता है कि जब कोई मुसलमान पति तलाक पर सलाह लेने किसी मुसलमान वकील के पास जाता है तो वकील इस बात को पसंद नहीं करता.
फिर इस बारे में अच्छी कानूनी सलाह लेने के लिए उसके पास दो ही रास्ते बचते हैं. एक, तीन तलाक का तरीका, जो उसे सिखाया गया है और दूसरा, तीन तलाक कहने से पहले या उसके बाद किसी मौलवी से मशविरा करना. भारतीय न्याय व्यवस्था और मौलवियों के हिसाब से, मुसलमान पति के पास तलाक लेने का एक ही तरीका बचता है- तीन तलाक. तीन तलाक भी दो तरह के होते हैं. पहला, एक बार में ही दो गवाहों के सामने तीन बार तलाक बोल देना. दूसरा, तलाक देने का फैसला तीन महीनों के दौरान किश्तों में किया जा सकता है. यानी पहले तरीके से बकरी को तुरंत मार दो और दूसरे तरीके से उसे तीन महीनों में धीरे-धीरे काटो. जो मुसलमान पति किश्तों में तलाक देने का फैसला करते हैं, उनके परिवार वाले अकसर दहेज के झूठे केसों में फंस जाते हैं.

मुसलमान पतियों की मुश्किल

किसी मुसलमान के लिए शादी को खत्म करने का कानूनी रूप से एक व्यवहारिक तरीका है कि वो अदालत जाए और घोषणा करे कि उसने इस्लाम छोड़ दिया है, इस तरह शादी अपने आप खत्म हो जाती है. ऐसे लोगों को धर्मभ्रष्ट कहा जाता है. मौलवी ऐसे लोगों का सिर कलम कर देने को कहते हैं. इस वजह से यह रास्ता भी खुला नहीं है. भारत में आजकल जिस तरह फर्जी धर्मनिरपेक्षता वाला माहौल है, उसमें हो सकता है कि भारतीय राज्य धर्म छोड़ने वाले के नहीं, बल्कि मौलवियों के हक में खड़ा होगा. मुश्किल यह है कि ऐसा कोई कानून ही नहीं है जिसके तहत एक मुसलमान पति तलाक लेने के लिए अदालत जा सके. अगर वह अदालत जाता है तो उसका आवेदन ही खारिज हो जाएगा. भारत में कोई लिखित मुस्लिम पर्सनल लॉ नहीं हैं, बल्कि शरिया के अनुरूप तीन कानून हैं जिनके तहत भारत में मुसलमानों की समस्याओं निपटाया जाता है.

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मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लिकेशन एक्ट, 1937: इस कानून के तहत मुसलमान लोग मौलवियों के बताए अनौपचारिक तरीकों से शादी कर सकते हैं और तलाक ले सकते हैं. इस कानून के तहत मुसलमान पति खुद तलाक “देने को” मजबूर हैं. यह मुसलमान पति के लिए बुरा अनुभव होता है. 1937 में बने इस कानून की जगह सब भारतीयों पर लागू होने वाले समान भारतीय नागरिक अधिकार विधेयक को लाने की जरूरत है.

मुसलमान शादियों को खत्म करने का कानून, 1939: यह कानून महिलाओं को सशक्त करने के लिए बनाया गया था. इसके तहत मुसलमान महिला तलाक मांग सकती है, दे नहीं सकती. इस कानून में मुस्लिम महिलाएं दो तरीके से तलाक ले सकती हैं: पहला वह मौलवियों के जरिए अपनी शादी को खत्म करा सकती है और दूसरा वह अदालत के जरिए तलाक ले सकती है. चूंकि भारत में तलाक को पसंद नहीं किया जाता तो महिलाएं तलाक का मुकदमा करने की बजाय पहले दहेज उत्पीड़न का मुकदमा दर्ज कराती हैं. 1937 और 1939 के दोनों कानूनों की जगह समान भारतीय नागरिक अधिकार विधेयक लाया जाना चाहिए.

तलाक और गुजाराभत्ता

मुस्लिम महिला (तलाक पर संरक्षण का अधिकार) कानून, 1986: इस कानून के तहत एक तलाकशुदा महिला शाह बानो को गुजारा भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया गया. इस कानून को खत्म किया जाना चाहिए. हालांकि आम धारणा यही है कि पूर्व पतियों का अपनी पत्नियों को गुजारा भत्ता देना आधुनिक दौर के लोकतांत्रिक कायदों की कसौटी पर फिट नहीं बैठता. कोई मुसलमान हो या नहीं, किसी भी पति और पत्नी को तलाक के बाद वित्तीय या किसी अन्य तरह का संपर्क नहीं रखना चाहिए.

हालांकि ये भी सच है कि तलाकशुदा महिलाओं को आर्थिक रूप से नुकसान उठाना पड़ता है और इसीलिए उनकी मदद के लिए कोई और तरीका निकालना होगा.
इस लेखक का मत है कि बीमा कंपनियां सरकार के निर्देश पर तलाक के बाद गुजारा भत्ता देने की पेशकश कर सकती हैं. मुसलमान हो या नहीं, पति-पत्नी को अपनी शादी के दौरान बीमा का प्रीमियम देना चाहिए.

मुसलमान महिलाओं की आज यह हालत इसलिए हैं क्योंकि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उसका महिला संस्करण भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन जैसे धार्मिक समूह पर्सनल लॉ की वकालत करते हैं. ये दोनों समूह इस्लामी जजों को ट्रेनिंग दे रहे हैं और भारत में समानांतर शरिया अदालतें चला रहे हैं. लेकिन इन दोनों संगठनों पर प्रतिबंध लगना चाहिए. हमें सभी लोगों के लिए समान भारतीय नागरिक अधिकार विधेयक चाहिए.

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लोकतांत्रिक मूल्यों से होगा महिला सशक्तिकरण

भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन हिंदू पत्रकारों को अच्छा लगता है क्योंकि इसकी बागडोर मुस्लिम महिलाओं के हाथ में है और यह तीन तलाक के खिलाफ है. लेकिन असल में तो यह कई मुद्दों पर शरिया के मुताबिक चलने वाला संगठन है. इस वजह से आगे चल कर यह भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा बनेगा क्योंकि यह देश में समानांतर न्याय व्यवस्था चला रहा है.

अगर तीन तलाक को खत्म कर दिया जाए, तो इससे मुसलमान पति भी सशक्त होंगे. वे अदालतों में जा सकते हैं और गरिमा के साथ तलाक ले सकते हैं. इसलिए तीन तलाक को खत्म करना मुसलमान पतियो का भी हक है. मुसलमान महिलाओं के लिए: जब तक आप बुरका नहीं छोड़ोगी, काम करके नकद पैसा नहीं कमाओगी, और सबसे जरूरी अपनी पोतियों को पढ़ा लिखा कर नौकरी के काबिल नहीं बनाओगी, तब तक तुम्हारी सारी इच्छाएं मर्द के पैसे के रहमो करम पर रहेंगी. तुम्हें आजादी नहीं मिलेगी.

ब्रिटेन में मुसलमान मुख्यधारा की कानून व्यवस्था को छोड़ रहे हैं. वह अपनी शरिया अदालतें चला रहे हैं. ब्रिटिश मुसलमानों में एक से ज्यादा शादी का चलन बढ़ रहा है क्योंकि मुसलमान औरतें दूसरी और तीसरी बीवी बनने को तैयार हैं. दीर्घकालीन रूप से, भारत के लोगों को यह समझना होगा कि सिर्फ कानून ही आपकी सब समस्याओं को हल नहीं कर सकते.

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