स्वीडन के पत्रकार और लेखक बर्टिल फॉक ने हाल ही में फिरोज गांधी की जिंदगी पर ‘द फॉरगॉटेन गांधी’ किताब लिखी है. उन्होंने करीब 40 साल तक रिसर्च करने के बाद गांधी परिवार के ऐसे सदस्यों के बारे में जानकारियां जमा कीं, जो बहुत चर्चा में नहीं रहे थे.
इन्हीं में एक थे फिरोज गांधी, जो इंदिरा गांधी के पति थे. फिरोज गांधी का इंदिरा गांधी के साथ रिश्ता कैसा था? क्यों पंडित नेहरू फिरोज से दूर-दूर रहा करते थे? कांग्रेस में उनकी भूमिका इतनी छोटी क्यों थी? इन्हीं मुद्दों पर बर्टिल फॉक ने फ़र्स्टपोस्ट से खास बात की. पेश है उसी बातचीत के कुछ खास हिस्से.
फर्स्टपोस्टः आपने अपनी किताब में लिखा है कि नेहरू फिरोज से खौफजदा थे. ये कौन से नेहरू थे जिन्हें फिरोज से इतना डर लगता था. क्या ये वो नेहरू थे जो भारत के प्रधानमंत्री थे? या वो नेहरू जो फिरोज के ससुर थे? या फिर ये दोनों. क्या नेहरू सिर्फ फिरोज की सियासत से डरते थे? दामाद के साथ इस रिश्ते को नेहरू ने कैसे संभाला था? आपने अपनी रिसर्च में क्या पाया?
बर्टिल फॉक: मोरारजी देसाई ने अपनी आत्मकथा ‘द स्टोरी ऑफ माई लाइफ वोल्यूम-II’ में जिक्र किया है कि दो या तीन बार ऐसे मौके आए जब नेहरू कुछ फैसले लेने से घबराए, क्योंकि उन्हें डर था कि इससे उनके दामाद फिरोज नाखुश हो सकते हैं.
ये जगजाहिर था कि नेहरू ने कभी फिरोज को समझा ही नहीं था. हमेशा उनकी काबलियत और प्रतिभा को कमतर ही आंका. मुझे खुद भी ऐसा ही लगता है कि नेहरू फिरोज गांधी के साथ अपने रिश्ते को कभी भी बहुत अच्छी तरह से नहीं निभा पाए.
फ़र्स्टपोस्ट: आपने अपनी किताब में लिखा है कि फिरोज का अपने बेटों के साथ ज्यादा बेहतर और सुलझा हुआ रिश्ता था, जबकि अपनी पत्नी इंदिरा के साथ ऐसा नहीं था. बाप-बेटों के इस रिश्ते को इंदिरा कैसे देखती थीं? क्या इन दोनों के रिश्ते का सच कभी भी आम जनता के सामने आया था?
बर्टिल फॉक: इंदिरा और फिरोज के बीच झगड़े अक्सर होते थे. हर बात पर झगड़ा होता था. मुझे यकीन है बेटों की परवरिश को लेकर भी दोनों के बीच नोकझोंक होती ही होगी. इस बात का जिक्र न सिर्फ बीएन पांडे ने किया है, बल्कि लाल बहादुर शास्त्री ने भी इन दोनों के रिश्ते की तल्खी के बारे में जिक्र किया है.
और तो और फिरोज की मौत के बाद खुद इंदिरा गांधी ने मोहम्मद युनूस को खत लिखकर बताया था कि, ‘युनूस तुम तो अच्छी तरह से इस बात से वाकिफ हो कि मेरा और फिरोज का अक्सर झगड़ा होता रहता है’. इसी तरह की बातें बी.एन पांडे के सामने भी हुई थीं.
अब ये बातें आम जनता के बीच कभी आई थीं या नहीं, यहां खुद आपको ये समझना होगा कि पब्लिक से आपका क्या मतलब है. अगर बीएन पांडे के सामने इस तरह की बातें होती थीं, तो कहीं ना कहीं घर के बाहर लोग भी मियां-बीवी के झगड़े से वाकिफ थे.
फ़र्स्टपोस्ट: फिरोज गांधी के सफर में सबसे अहम टर्निग प्वाइंट वो था. जब केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी तो कांग्रेस ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी और इसका फिरोज ने विरोध किया था. जब परिवार ही तानाशाही के समर्थक और लोकतंत्र के समर्थकों के बीच बंट गया, तो उस वक्त नेहरू कहां थे? क्या फिरोज गांधी अपने ससुर, पंडित नेहरू से ज्यादा बड़े डेमोक्रेट थे?
बर्टिल फॉक: मेरे ख्याल में फिरोज, पंडित नेहरू से ज्यादा डेमोक्रेट थे. केरल के हालात को इंदिरा जिस तरह से नियंत्रित कर रही थी उससे नेहरू नाखुश थे. मगर वो इंदिरा को रोक नहीं पाए थे. इंदिरा ने डोरोथी नॉर्मन को जो खत लिखे थे. उससे साबित हो जाता है कि वो अपने पिता को कमजोर समझती थीं.
फ़र्स्टपोस्ट: इंदिरा और नेहरू के अलावा बाकी कांग्रेस पार्टी फिरोज गांधी को कैसे देखती थी? आपने किताब में लिखा है कि बहुत से मंत्रियों के साथ उनके अच्छे रिश्ते थे. रिपोर्टिंग के दौरान आपकी कई लोगों से बात हुई होगी. लोगों का इस पर क्या ख्याल था?
बर्टिल फॉक: मेरी जितने भी लोगों से बात हुई उनमें से ज्यादातर लोग फिरोज को पसंद करते थे. हालांकि वो इंदिरा की निंदा भी नहीं करते थे. अलबत्ता जगदीश कुदसिया, मेरी शैलवांकर ने मुझे बताया था कि इंदिरा पूरी सत्ता की कमान अपनी हाथ में रखना चाहती थीं. जबकि फिरोज सत्ता का विकेंद्रीकरण चाहते थे. वो मिजाज से ही फेडरल थे.
फ़र्स्टपोस्ट: क्या आप ये कहना चाहते हैं कि फिरोज गांधी एक बागी थे. इसी वजह से पार्टी में उन्हें जो मकाम मिलना चाहिए था वो उन्हें नहीं मिल पाया था. क्या फिरोज सत्ता से ज्यादा आजादी को अहमियत देते थे?
बर्टिल फॉक: कुछ मायनों में फिरोज को बागी कहा जा सकता है. और इस बात में भी कोई शक नहीं कि वो सत्ता से ज्यादा इंसान की आजादी को अहमियत देते थे. उन्हें पार्टी में अपने हिस्से की जगह नहीं मिली, इसके लिए इंदिरा जिम्मेदार थीं. क्योंकि इंदिरा ने फिरोज को और उनके काम को हमेशा ही हाशिये पर रखा. और ये बात जगजाहिर थी.
संसद में भ्रष्टाचार के खिलाफ फिरोज की लड़ाई भारत के इतिहास का वो हिस्सा है जिसे इतिहास से कभी मिटाया नहीं जा सकता. इंदिरा गांधी की कमजोर विरासत के चलते आज भी पार्टी में एक वफादार कार्यकर्ता. और स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर फिरोज की भूमिका सवालों के घेरे में है.
फ़र्स्टपोस्ट: एक पति और पिता से ज्यादा फिरोज ने एक सांसद के तौर पर बहुत कुछ हासिल किया था. उनकी जिंदगी में बुलंदी का कौन सा मकाम था? और ऐसी क्या चीज थी जिसे करने या नहीं करने का उन्हें मलाल या पछतावा था? उनकी विरासत क्या हो सकती है?
बर्टिल फॉक: फिरोज की विरासत? वो भी उनकी मौत के इतने साल बाद? कहना मुश्किल है. वैसे मैं ये यकीन के साथ नहीं कह सकता कि उन्हें किस बात का पछतावा रहा होगा. वो एक ईमानदार और अजीम शख्सियत थे.
जवानी के दिनों से जबसे उन्होंने पार्टी के लिए काम करना शुरू किया था, तभी से पूरी ईमानदारी से अपना काम कर रहे थे. लेकिन अपनी जिंदगी के आखिरी हफ्तों में उन्हें इस बात से बेखबर रखा गया कि पार्टी में किस तरह का भ्रष्टाचार चल रहा है.
अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली में उन्होंने जो काम किया था, वही शायद उनकी जिंदगी का सबसे बुलंद समय था. इसके साथ ही लोकसभा में रहते हुए लोकतंत्र के लिए उन्होंने जो अमूल्य योगदान दिया. वो कभी नहीं भुलाया जा सकता. मेरे मुताबिक वो एक जबरदस्त सियासतदां और लोकतंत्र के हीरो थे.
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