चेतन भगत के पास खुश होने की वजह है. उनकी किताब 'फाइव प्वाइंट समवन' जल्द ही दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन जाएगी. इसे पॉपुलर फिक्शन कैटगरी में शामिल किया जा रहा है.
उनकी किताब एम एल्कॉट की 'लिटिल वुमन', अगाथा क्रिस्टी की 'मर्डर ऑन दि ओरिएंट एक्सप्रेस' और जे के रोवलिंग की 'हैरी पॉटर एंड दि फिलॉस्फर्स स्टोन' के साथ सुशोभित होगी. लेकिन अंग्रेजी विभाग के इस फैसले से बहुत से साहित्य प्रेमी खुश नहीं हैं.
दिल्ली विश्वदियालय के इस कदम से लोकप्रिय बनाम अभिजात की बहस ताजा हो गई है. चेतन भगत के आलोचक कहते हैं कि उनकी किताबों का कोई स्तर नहीं है. उनका गद्य नीरस है. वे अपनी किताबों के विषयों का चयन इस तरह करते हैं कि कम पढ़े-लिखे पाठक भी उनकी तरफ आकर्षित हों. वे हमारे बुझते दौर के चमकते सितारे हैं.
चेतन भगत अपने आलोचकों को तिरस्कार पूर्ण तरीके से ही जवाब देते हैं– 'मेरी किताबें लाखों की संख्या में बिकती हैं. उन पर सफल फिल्में बनती हैं. लोग उन्हें पसंद करते हैं. फिर आपको क्या परेशानी है?' वे यहीं नहीं रुकते. वे अपने आलोचकों को अभिजात्य मानसिकता का करार देते हैं जो हर लोकप्रिय रचना को तुत्छ नजर से देखते हैं.
दरअसल, यह जल्द खत्म न होने वाली बहस नहीं है. आलोचक चेतन भगत की किताबों को निचले दर्जे की बता कर अपनी विद्वता के दंभ का प्रदर्शन कर सकते हैं. लेकिन भगत के पास प्रशंसकों की भारी फौज है और वे उसकी शरण में जा सकते हैं. यह हमारे वक्त की लोकप्रिय बनाम अभिजात वाली बहस का एक नया आयाम है.
लेकिन सवाल उठता है कि क्या सिर्फ लोकप्रियता ही किसी किताब को विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल करने का मानदंड होना चाहिए? चेतन भगत की रचनाओं को पाठकों के विशाल वर्ग की स्वीकृति हासिल है. यह अपने आप में एक पुरस्कार है.
लेकिन कम साहित्यिक रुझान वाला व्यक्ति भी यह कह सकता है कि भाषा, शिल्प और गहराई के साहित्यिक मानकों पर 'फाइव प्वाइंट समवन' कहीं नहीं टिकती. यह पढ़ने लायक किताब जरूर है और पाठकों को आनंदित भी करती है. लेकिन यह छात्रों में साहित्य की समझ विकसित करने के लिहाज से सही चुनाव नहीं हो सकती.
बेहतर विकल्प मौजूद
हमारे पास अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों के बहुत से बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं. आप किरन नागरकर के बारे में क्या कहेंगे जिसके कथानक सामान्य और मामूली सी बातों को भी जादुई बना देते हैं? 'दि एसोसिएशन ऑफ स्मॉल बॉम्स' के करन महाजन, 'एन ओबिडिएंट फादर' के अखिल शर्मा, 'वेनिटी बैग' और 'विक्स मैंगो ट्री'' के लेखक अनीस सलीम का क्या होगा?
मैं पहले से स्थापित बड़े नामों की चर्चा नहीं कर रहा हूं. मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि इनमें से किसी की रचना को पॉपुलर फिक्शन कैटगरी में शामिल किया जाना चाहिए था. लेकिन इनकी लिखने की अलग शैली इन्हें पढ़े जाने के काबिल तो बनाती ही है. हो सकता है कि लोकप्रियता के पैमाने पर इन लेखकों की किताबें चेतन भगत का मुकाबला न कर सकें लेकिन साहित्य के विद्यार्थी के लिहाज से इनकी किताबें ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.
क्या आप किसी फिल्म इंस्टीट्यूट में छात्रों को आजकल हर रोज बन रही मसाला फिल्मों को पढ़ाएंगे क्योंकि वे बेहद सफल हैं? अगर छात्रों में फिल्मों की बेहतर समझ पैदा करनी है तो उनके सामने कुछ ऐसा पेश करना पड़ेगा जिससे उनमें नये विचार पैदा हों.
साहित्य के साथ भी यह बात उतनी ही लागू होती है. हो सकता है समसामयिक भारतीय साहित्य पर विचार करते समय ऊपर गिनाए गये नामों पर भी चर्चा हो, लेकिन किसी किताब की व्यावसायिक सफलता की आरती उतारना तो खटकता ही है.
अब बात अभिजातीय होने की. ऐसा भी वक्त आता है जब आप के लिए किसी कैटेगरी में बंधने का खतरा हो. लेकिन यहां चेतन भगत की क्षमता को कमतर आंकना नहीं है. साहित्यिक अभिजात्य वर्ग अक्सर किताबों के पढ़े जाने के महत्व को भूल जाता है.
एक कालजयी साहित्यिक रचना मुट्ठी भर लोगों के मनोरंजन तक सीमित नहीं हो सकती. उसकी व्यापक जनमानस में स्वीकार्यता जरूरी है. महान पुस्तकों, फिल्मों और दूसरी रचनाओं के साथ ऐसा हुआ है.
हर लोकप्रिय और सफल रचना कालजयी नहीं हो सकती. साहित्य एक ऐसा विषय है जिसमें कुछ गंभीरता तो होनी ही चाहिए और इसके साथ मजाक नहीं किया जा सकता. लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग ने कुछ ऐसा ही किया है.
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