केंद्र सरकार के पूर्व प्रमुख आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने एनडीटीवी चैनल के मुखिया प्रणय रॉय से बातचीत में कहा कि रिजर्व बैंक (RBI) पर धावा बोलना गलत होगा. एनडीटीवी पर इस बातचीत का प्रसारण बीते शनिवार यानी 8 दिसंबर 2008 को शाम 8 बजे से 9 बजे के बीच किया गया.
सुब्रमण्यन का कहना था कि सरकारी बैंकों के रीकैपिटलाइजेशन (दोबारा पूंजी डालना) के लिए RBI के पास मौजूद पर्याप्त रिजर्व का इस्तेमाल करने और बजटीय घाटे के लिए इसे काम में लाने के बीच काफी अंतर है. उन्होंने सरकारी बैंकों के रीकैपिटलाइजेशन के लिए इसे हरी झंडी दे दी, लेकिन बजटीय घाटे वाले मामले पर आपत्ति जताते हुए हुए कहा कि यह केंद्रीय बैंक पर हमला करने जैसा होगा. RBI के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी हाल में कुछ इसी तरह की राय व्यक्त की थी.
आचार्य ने कहा था RBI पर इस तरह के हमले के खिलाफ आगाह करते हुए कहा था कि बाजार को यह बिल्कुल रास नहीं आएगा. इस सिलसिले में उन्होंने अर्जेंटीना का हवाला दिया था, जहां केंद्रीय बैंक के हाथों 6.6 अरब डॉलर के सरप्लस रिजर्व माने जाने वाले फंड के ट्रांसफर ने बाजार में घबराहट का माहौल पैदा कर दिया था.
अर्जेंटीना से भारत के मामले की तुलना ठीक नहीं
यह सही चेतावनी नहीं थी, क्योंकि अर्जेंटीना का राजकोषीय घाटा काफी ज्यादा था, जिसकी वजह से बाजार में उथल-पुथल मची. भारत में ऐसी स्थिति नहीं है. आचार्य ने की इस मामले में तुलना सेब और संतरे की तुलना जैसी रही, वहीं अरविंद सुब्रमण्यम ने भी आरबीआई पर इस तरह के हमले या धावा बोले जाने की निंदा की है. हालांकि, उन्होंने अनुचित और दिखावटी कारणों से ऐसा किया है- उनके मुताबिक, RBI के फंडों का उपयोग पब्लिक सेक्टर बैंकों में नई पूंजी डालने जैसे ज्यादा सार्थक ढंग से किया जाना चाहिए. उनकी कहने के अंदाज में दम है, ऐसा माना जा सकता है.
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उन्होंने रहस्यपूर्ण और धामे ढंग से यह बात कही कि आरबीआई से प्राप्त फंड के जरिए सरकारी बैंकों में पूंजी डालना जाहिर तौर पर पूरे बैंकिंग सुधार का हिस्सा है. हम काफी लंबे वक्त से पब्लिक सेक्टर बैंकों के सुधार की बात कर रहे हैं, जिसमें पूंजी पर्याप्तता अनुपात का सख्ती से पालन, किसी के आदेश पर कर्ज देने या क्रोनी कैपिटलिज्म एसेट लाइबिलिटी मिसमैच (एएलएम), चीजों के नियंत्रण के बाहर होने से पहले स्ट्रेस्ड एसेट्स (जोखिम में फंसे कर्ज) का निपटारा आदि शामिल हैं. हालांकि, जमीनी स्तर पर कुछ भी नहीं बदला है और हम एक बैंकिंग संकट से दूसरे ऐसे संकट संबंधी झटके खाते रहते हैं.
जैसा कि उनका कहना है, मौजूदा परिस्थिति में आरबीआई पर धावा बोलना उचित नहीं है तो बुरे के बाद अच्छा पैसा डालना (फेंकना) भी उतना ही बेवकूफाना है. नरेंद्र मोदी सरकार की तरफ से हाल में पब्लिक सेक्टर बैंकों में बड़े पैमाने पर (2.11 लाख करोड़ रुपये तक) पूंजी डाली गई है, जो पिछले 31 साल यानी 1985-86 से 2016-17 के दौरान बैंकों में डाली गई कुल पूंजी (तकरीबन 1.5 लाख करोड़ रुपये) से ज्यादा है.
हाल में बड़े पैमाने पर बैंक के रीकैपिटलाइजेशन के लिए जारी हुआ बॉन्ड
इसके श्रेय के तहत यह जरूर कहा जाना चाहिए मोदी सरकार ने चालाकी से 1.35 लाख करोड़ रुपये तक का रीकैपिटलाइजेशन बॉन्ड जारी कर जिम्मेदारी भविष्य की सरकार की तरफ बढ़ा दी और इस तरह से सिर्फ 0.76 लाख करोड़ रुपये बजटीय संसाधनों पर दबाव के मद्देनजर छोड़े. बहरहाल, मामला जो भी हो, यहां कहने का आशय यह है कि नए सिरे से कैपिटलाइजेशन के जरिये बुरे के बाद अच्छा पैसा इधर-उधर जा रहा है.
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अरविंद सुब्रमण्यन को उदय कोटक और उनकी नई टीम की गतिविधियों से समझना चाहिए, जो वे लोग आईएल एंड एफएस के सिलसिले में कर रहे हैं. उदय कोटक और उनकी टीम आईएल एंड एफएस में नई पूंजी डालने के आइडिया की बजाय वैसी यूनिट्स और संपत्तियां वैसे उद्यमों को बेचने पर फोकस कर रहे हैं, जो अपने मौजूदा बिजनेस में मदद के लिए इन्हें खरीदने के लिए आकर्षित हो रहे हैं. यहां तक कि इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2015 (आईबीसी) के तहत जबरदस्त हेयरकट (लोन के भुगतान में की जाने वाली कटौती) स्वीकार करना भी बुरे के बाद अच्छे पैसे को इधर-उधर करने को प्राथमिकता देने जैसा है. इसलिए आरबीआई के 3.6 लाख करोड़ के रिजर्व फंड का इस्तेमाल को लेकर अरविंद सुब्रमण्यन की तरफ से पहले नतीजे निकालना उचित नहीं है.
सरकार की तरफ से इस तरह के ट्रांसफर की बात करना या पॉलिसी बनाने के दायरे में घुसपैठ किए बिना कामकाज में दखल देना सामान्य बात है. बजटीय घाटे के लिए आरबीआई के फंड का इस्तेमाल करना उतना बड़ा अनुचित कदम नहीं है, जितना यह नजर आता है. आरबीआई केंद्र सरकार का अंग है. हालांकि, दोनों को जरूरी तौर पर एक-दूसरे के बीच थोड़ी सी दूरी बनाकर रहना चाहिए.
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