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बजट 2018: डिफेंस सेक्टर को क्यों चाहिए ज्यादा पैसा?

एक फरवरी को वित्त वर्ष 2018-19 के केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री द्वारा जो भी आवंटन किया जाएगा, सेना में उसका बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है

Updated On: Jan 24, 2018 08:51 AM IST

Prakash Katoch

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बजट 2018: डिफेंस सेक्टर को क्यों चाहिए ज्यादा पैसा?

एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में हाल में ही संपादकीय पेज पर छपे लेख में अन्य कारणों के साथ हथियारों और प्रणालियों की निरंतर कमी पर चिंता जताई गई थी. इस सूची में युद्धक विमान, पनडुब्बी और तोपखाना की सामग्री से लेकर भरोसेमंद राइफल, सुरक्षित हेलमेट और शारीरिक कवच की कमी से सेना में बढ़ती अप्रसन्नता पर व्यावसायिक चिंता जताई गई थी.

शून्यता को बढ़ने का मौका मिला तो इसके कई कारण थे. इसमें निहित स्वार्थ भी शामिल है, जिसमें किसी व्यक्ति विशेष के पक्ष में गंभीर स्थिति पैदा कर आयात की सुविधा मुहैया कराना है और आपात स्थिति खड़ी हो जाने पर उनका सामूहिक फायदा उठाना भी शामिल है.

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एक उदाहरण ये भी

एक हालिया उदाहरण है, ‘मेक इन इंडिया’ के तहत गोवा शिपयार्ड में दक्षिण कोरियाई फर्म के साथ 12x एडवांस माइंस वीपर या माइन-काउंटर मेजर्स व्हीकल (एमसीएमवी) का प्रोजेक्ट रद किया जाना. पूरी प्रक्रिया दोबारा शुरू करने का मतलब है कई सालों की देरी.

गोवा शिपयार्ड एमसीएमवी के निर्माण के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करने पर 700 करोड़ रुपये निवेश कर चुका था, अब किसी को दोबारा इस काम को करने में करीब-करीब एक दशक लग जाएंगे. और देरी का अर्थ है नौसेना पर विध्वंशकारी प्रतिगामी असर होगा, जो कि तैयार अभी 30 साल पुरानी छह माइंस वीपर तैयार कर रही है, जिन्हें साल 2018 के अंत तक शामिल कर लिया जाएगा.

इसकी तुलना में चीन को देखें जिसके पास तकरीबन 100 माइंस वीपर हैं और उसकी परंपरागत और परमाणु पनडुब्बी हिंद महासागर में गश्त करते हुए चीन की माइंस बिछाने की क्षमता का प्रदर्शन कर रही हैं. माइंस जो मात्र कुछ सौ डॉलर की पड़ती हैं, नौसेना या जलमार्ग से होने वाले कारोबार को बहुत गहरा नुकसान पहुंचा सकती हैं.

नीति आयोग ने पिछले साल कहा था कि 15 साल के नए दीर्घकालिक दृष्टिकोण पर काम चल रहा है, जिसमें रक्षा और आंतरिक सुरक्षा भी शामिल होगा. मुद्दा यह है कि नीति आयोग, जिसमें रक्षा मंत्रालय की तरह ही कोई मिलिट्री प्रोफेशनल नहीं है,  राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (एनएसएस) और विस्तृत रक्षा समीक्षा (सीडीआर) के अभाव में 15 साल की रक्षा योजना कैसे बना सकता है?

आजादी के बाद से किसी भी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को परिभाषित करने की जहमत नहीं उठाई. पूर्व के सभी लांग टर्म प्रोक्योरमेंट प्लान (एलटीआईपीपी) भी बिना एनएसएस और सीडीआर के तैयार किए गए. विडंबना है कि रक्षा के उच्च प्रतिष्ठान और रक्षा मंत्रालय बिना किसी मिलिट्री प्रोफेशनल के काम कर रहे हैं क्योंकि सरकार नौकरशाही के साथ ही ठहरे हुए समय में कैद हो गई है.

एनएसएस और सीडीआर के अभाव में समग्र खरीदारी योजना प्रभावित होती, जिसके नतीजे में आपाधापी में खरीद की जाती है. ऐसा ही माइंसवीपिंग क्षमता के मामले में देखने को मिल रहा है, जिसका कई साल पहले निदान हो जाना चाहिए था. किराए पर माइंसवीपर लेने से वह कमी मुश्किल से पूरी हो पाएगी, जो हिंद-प्रशांत महासागर में गंभीर रूप ले चुकी हैं.

क्या मिलेगा इस बजट में?

एक फरवरी को वित्त वर्ष 2018-19 के केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री द्वारा जो भी आवंटन किया जाएगा, सेना में उसका अधीरता के साथ इंतजार किया जा रहा है. मौजूदा सरकार के तहत रक्षा बजट में लगातार कमी होती गई है, और अभी यह जीडीपी का 1.5 फीसद है. यह जरूर देखा जाना चाहिए 2012-2027 की अवधि के लिए एलटीआईपीपी, जिसे रक्षा मंत्री की अध्यक्षता वाली डिफेंस एक्विजिशन काउंसिल (डीएसी) से मंजूरी मिलने का इंतजार है, के साथ ही 12वीं पंचवर्षीय योजना में भी 'जीडीपी का 3%' रक्षा बजट की बात थी. लेकिन रक्षा क्षेत्र के लिए हमेशा इससे काफी कम आवंटन किया गया, जिसे हमारी सेना और चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की क्षमता के अंतर के परिप्रेक्ष्य में देखा चाहिए.

सीएजी रिपोर्ट इस बिंदु को उठाती है कि डीआरडीओ द्वारा उपलब्ध कराए गए उपकरण अच्छी क्वालिटी के नहीं हैं और इसको ऊंची कीमत पर मुहैया कराया गया. इसके अलावा सेना के पास उपलब्ध हथियार, प्रणाली और उपकरण काफी पुराने पड़ चुके हैं. साथ ही नए संग्रहण और आधुनिकीकरण पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.

याद करें कि वित्त वर्ष 2015-16 और वित्त वर्ष 2016-17 के लिए आवंटन बिना बदलाव के 2,46,727 करोड़ रुपए ही रहा. मीडिया ने इस बात तो फटाफट हाथों-हाथ लिया कि वित्त वर्ष 2017-18 के लिए 2,74,114 करोड़ रुपये का आवंटन करके 6.2 फीसद बढ़ोत्तरी की गई है. लेकिन इस आवंटन को रुपए के अवमूल्यन और वार्षिक मुद्रास्फीति के परिप्रेक्ष्य से अलग करके देखना नादानी होगा. यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि वर्ष 2015-2016 में 2,46,727 करोड़ का रक्षा आवंटन 40 अरब डॉलर के बराबर था, जबकि पिछले 2016-2017 के बजट में 2,46,727 करोड़ का आवंटन व्यावहारिक रूप से 40 अरब डॉलर से कम था.

ये बदलाव जरूरी

इसके साथ ही एनएसएस और सीडीआर के अभाव में, हमारी बजट-पूर्व प्रक्रिया में भी बड़े बदलाव की जरूरत है. मौजूदा परिप्रेक्ष्य में तीनों सेनाओं को अपनी मांग मुख्यालय से संबद्ध स्टाफ (आईडीएस) के सामने पेश करनी होती है, जो संकलित मांग को रक्षा मंत्रालय को अग्रसारित कर देता है. कुछ मामूली फेरबदल के साथ रक्षा मंत्रालय इसे वित्त मंत्रालय को भेज देता है. वित्त मंत्री बिना ऑपरेशनल जरूरतों पर विचार किए रक्षा आवंटन पर अपनी मर्जी से सीमा बांध देते हैं.

इसके एकदम उलट यूएस में, कांग्रेस की एक कमेटी बनाई जाती है, जिसके सामने सैन्य कमांडर और स्पेशल ऑपरेशंस कमांड (एसओसीओएम) के कमांडर  बजट-पूर्व प्रजेंटेशन देते हैं, जिसमें उनकी मौजूदा युद्धक क्षमताओं और उनकी भविष्य की ऑपरेशनल क्षमता के लिए क्या जरूरतें होंगी इसके बारे में बताया जाता है और इसके लिए उन्हें कितने फंड की जरूरत होगी.

इसके आधार पर कांग्रेस कमेटी कांग्रेस के सामने बजट आवश्यकता के बारे में बताती है. कोई वजह नहीं कि हम ऐसा सिस्टम नहीं बना सकते, खासकर यह देखते हुए कि इस समय रक्षा मामलों पर संसद की स्थायी समिति का नेतृत्व दो सितारों वाले सेना के एक दिग्गज के हाथों में है. इस कमेटी को सरकार को बजट आवश्यकता के बारे में ऑपरेशनल जरूरतों के औचित्य के बारे में लिखित में बताने दीजिए, जो कि रेकॉर्ड में भी रहेगा.

रक्षा बजट में से बचे हुए फंड को वापस कर दिए जाने (फंड सरेंडर), जो कि किसी अन्य मंत्रालय द्वारा नहीं किया जाता, का भी मसला है. हालांकि ऐसे भी उदाहरण हैं जब किसी वित्त वर्ष में पूरा रक्षा बजट इस्तेमाल कर लिया गया. फंड लौटाने का कारण लालफीताशाही है, जो कई बार फंड लौटाने के लिए इरादतन ‘मजबूर’ करती है.

एक पूर्व वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को, जिनको रक्षा मंत्रालय (वित्त) में काम करने वाले नजदीकी दोस्त ने बताया था कि उन्हें तिमाही रिपोर्ट देनी होती है कि रक्षा बजट में से कितना पैसा संभावित रूप से वापस ‘कराया’ जा सकता है. एनडीए-1 में रक्षा मंत्री रहे जसवंत सिंह ने इस विचार को आगे बढ़ाया था कि खर्च नहीं हुए रक्षा बजट को अगले  वित्त वर्ष में कैरी फारवर्ड किया जा सके. रक्षा मामलों पर संसद की स्थायी समितियों की कई रिपोर्ट में  भी इसकी सिफारिश की गई थी, लेकिन इस विचार की खामोश मौत हो गई. ऐसा सोचना हकीकत से दूर की बात है कि नई खरीद के लिए घोषित हालिया सुधार “रोल ऑन” प्लान हर वित्त वर्ष के अंत में ‘फंड सरेंडर’ की समस्या को खत्म कर सकता है, क्योंकि इसमें अभी भी कई खामियां हैं.

पाकिस्तान के साथ बढ़ा छद्म युद्ध

इस गुजरते साल में चीन-पाकिस्तान की मिलीभगत के साथ भारत के खिलाफ छद्म युद्ध में तेजी आई है. चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने गिलगिट-बाल्टिस्तान और ग्वादर पोर्ट पर रणनीतिक पैठ बना ली है. नेपाल, मालदीव और श्रीलंका चीन के लिए अपनी बाहें फैलाए खड़े हैं. बीते साल दिसंबर में तूतिंग क्षेत्र में खोजबीन की कार्रवाई के साथ ही पूरी हिमालय पट्टी में चीनी आक्रामकता बढ़ी है.

संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी कट्टरपंथियों का समर्थन करने वाला चीन डोकलाम तनाव के बाद भी आक्रामक गतिविधियां जारी रखे है, और इसका सरकारी मीडिया धमकी देता है. भारत अगर कश्मीर में पाकिस्तान पर दबाव बनाता है तो चीन हमारे उत्तर-पूर्व में अस्थिरता फैला सकता है. हमें सेना की गंभीर खामियों, आधुनिकीकरण की जरूरत और प्रतिगामी रणनीतियों के नतीजे में “खोखले” हो गए सुरक्षा तंत्र का समग्र रूप से समाधान करना होगा.

इसके साथ ही ऑपरेशनल जरूरतें बताती हैं कि भारत को क्यों सालाना जीडीपी का 3 फीसद रक्षा बजट के आवंटन की जरूरत है. रक्षा मामलों पर संसद की स्थायी समिति ने कहा है कि सशस्त्र सेनाओं के लिए समग्र रूप से कम फंड का आवंटन करने के बाद इस तरह के रटे-रटे जवाब से सही नहीं ठहराया जा सकता कि, ‘सेनाओं के लिए आवंटन वित्त मंत्रालय द्वारा लगाई गई सीमा पर आधारित है.’ आशा कर सकते हैं कि सरकार यह बात याद रखेगी.

(लेखक भारतीय सेना से सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हैं.)

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