जो रोगी को भाये वही वैद्य सुनावे. भोजपुरी की एक कहावत का हिंदी में चलताऊ तर्जुमा बहुत कुछ ऐसा ही होगा. और, जहां तक बीमार-उपचार और दवा-अस्पताल यानि सेहत को आन घेरने वाले संकट और उनके समाधान का सवाल है वित्तमंत्री ने वही सुनाया जो देश के गरीब ना जाने कब से सुनना चाह रहे थे.
वित्तमंत्री ने लोगों को स्वास्थ्य-सेवा मुहैया कराने के बारे में जो कुछ कहा उसे एक समाचार के शीर्षक में कुछ यों समेटा गया था.‘आरोग्य का वरदान, दुनिया की सबसे बड़ी बीमा योजना.’ समाचारों के सैलाब में किसी राजहंस की तरह तैरते इससे मिलते-जुलते जुमले अब तक आपको याद हो गए होंगे क्योंकि इस ‘स्वास्थ्य बीमा-योजना’ के गुणगान खूब हो रहे हैं. वैसे वित्तमंत्री के बजट-भाषण के लिखित रुप में भी इसे ‘विश्व का सबसे बड़ा सरकारी वित्तपोषित स्वास्थ्य देख-रेख कार्यक्रम’ कहा गया है और नाम रखा गया है ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना.’
खैर, जब वैद्य रोगी का मनभाया सुनाने लगे तो चेत जाना चाहिए कि भलाई उसके सेहत की सोची जा रही है या बात कुछ और है. लेकिन राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना कामयाबी की राह पर आगे कितने कोस जायेगी, यह सोचने से पहले जरा टटोलें कि यह योजना है क्या.
क्या है यह योजना
यह योजना बड़ी महत्वाकांक्षी बताई जा रही है. वित्तमंत्री की बातों पर यकीन करें तो इस योजना से देश के 10 करोड़ परिवारों के सेहत को एक सुरक्षा-कवच मिल जाएगा. परिवार का औसत आकार पांच व्यक्तियों का मानें तो स्वास्थ्य संरक्षण योजना से देश के 50 करोड़ लोग अब मान सकते हैं कि अस्पताली उपचार के लिए पांच लाख रुपए का स्वास्थ्य-बीमा कवर देर-सवेर उन्हें मिल ही जाएगा क्योंकि घोषणा हो चुकी है !
सामाजिक-आर्थिक और जाति-जनगणना में भारत में परिवारों की कुल संख्या तकरीबन 25 करोड़(24.45 करोड़) बताई गई है तो माना जा सकता है देश के सर्वाधिक गरीबों में शुमार 40 फीसद आबादी को अब रोग के उपचार के लिए पहले की तरह घर-संपत्ति बेचनी या गिरवी नहीं रखनी होगी क्योंकि सरकार इसके लिए 'पर्याप्त धनराशि उपलब्ध' कराएगी.
दरअसल, वित्तमंत्री ने बजट भाषण में आश्वासन कुछ ऐसे ही पुर-उम्मीद लफ्जों में दिया है. बजट-भाषण में कहा गया है कि 'हमारे देश में लाखों लोगों को इन-डोर उपचार कराने के लिए उधार लेना पड़ता है या संपत्ति बेचनी पड़ती है. सरकार निर्धन और कमजोर परिवारों की ऐसी गरीबी से बहुत चिंतित है.
मौजूदा राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना गरीब परिवारों को 30 हजार रुपए की वार्षिक कवरेज प्रदान करती है.अब हम 10 करोड़ से अधिक गरीब और कमजोर परिवारों(लगभग 50 करोड़ लाभार्थी) को दायरे में लाने के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना आरंभ करेंगे जिसके तहत(अस्पताल में भर्ती होने पर) प्रति परिवार 5 लाख रुपए प्रतिवर्ष तक का कवरेज दिया जायेगा.'
लाखों लोगों को रोग के उपचार के लिए कर्ज लेना पड़ता है, घर-जमीन बेचनी पड़ती है. वित्तमंत्री ने ऐसा कहकर लोगों के दिल की बात कही. स्वास्थ्य मंत्रालय की नई रिपोर्ट (2017 में प्रकाशित) नेशनल हेल्थ अकाउंटस् 2014-15 के तथ्य बताते हैं कि स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च का दो तिहाई से ज्यादा (67फीसद) अभी लोगों को अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है.
मामले की गंभीरता को यों समझें कि अगर किसी परिवार को रोग के उपचार पर 10 रुपए खर्च करने पड़े तो इसमें 4 रुपए सिर्फ दवाइयों की खरीद पर जाते हैं और सिर्फ दवाइयों की खरीद पर हुए खर्च के कारण 3 करोड़ 30 लाख लोग देश में प्रतिवर्ष गरीबी-रेखा से नीचे चले जाते हैं.
लेकिन असल सवाल है कि प्रस्तावित राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना इस संगीन हालात से उबारने में किस हद तक कामयाब होगी ? इसके बारे में अनुमान लगाना का एक तरीका हो सकता है यह देखना कि मौजूदा सरकारी स्वास्थ्य-बीमा योजना का हश्र क्या हुआ है.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना काम ना आई
इस सिलसिले में पहली बात यह याद रखने की है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना की पेशकश पिछली बार के ही बजट में कर दी गई थी. योजना नई नहीं है, हां राशि जरुर बढ़ गई है क्योंकि पिछले बजट में स्वास्थ्य बीमा के नाम पर गरीब परिवारों को 1 लाख रुपए का कवर देने की बात कही गई थी.
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक ऐसा करने के पीछे इरादा यूपीए सरकार के राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना से पिण्ड छुड़ाना था. लेकिन दिलचस्प यह है कि पिछले बजट में पेश की जा चुकी राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना साकार नहीं हो पाई और आरएसबीवाय को जारी रखना पड़ा. आरएसबीवाय में बीपीएल श्रेणी के परिवारों (अधिकतम पांच सदस्य) को 30 हजार रुपए का बीमा-कवर दिया जाता है.
आरएसबीवाय की शुरुआत 2008 में हुई थी और शुरुआत के बाद से इस पर अमल करने वाले राज्यों की संख्या घटती गई, साल 2016-17 में आरएसबीवाय पर केवल 15 राज्य अमल कर रहे थे. रोचक होगा यह जानना कि आरएसबीवाय पर अमल करने वाले इन 15 राज्यों में से 10 राज्यों में मुख्यमंत्री बीजेपी के नहीं बल्कि किसी और दल के थे.
साथ में यह भी जोड़ लें कि साल 2015-16 में आरएसबीवाय के लिए पंजीकृत परिवारों की संख्या 4.13 करोड़ थी जो 2016-17 में घटकर 3.63 करोड़ पर पहुंच गई. इस बीमा-कवर के तहत उपचार मुहैया कराने वाले निजी अस्पतालों की संख्या भी घटी. साल 2009-10 में आरएसबीवाय के तहत 7865 प्रायवेट हास्पिटल उपचार मुहैया करने को तैयार थे तो 2015 में इनकी संख्या घटकर 4926 हो गई.
फिलहाल हालत एक अनार सौ बीमार वाली है
खैर, संक्षेप में किस्सा यह कि केंद्र सरकार राज्यों को योजना(आरएसबीवाय) पर अमल के लिए समझाती रही और राज्य एक ना एक बहाने से इसे लागू करने से कतराते रहे. तथ्य यह है कि आरएसबीवाय की अवधि का विस्तार 2018 के मार्च तक किया गया और अवधि की समाप्ति चूंकि एकदम नजदीक है तो फिर से इस बार के बजट में ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना’ की पेशकश की गई है.
लेकिन यहां सवाल है कि राज्य अगर 30 हजार रुपए सालाना का बीमा-कवर देने वाली योजना पर अमल से कतराते रहे तो कैसे यकीन करें कि 5 लाख रुपए का बीमा-कवर देने वाली योजना के लिए हामी भर देंगे. और, एक सवाल यह भी है कि राज्य-सरकारें मान भी जायें तब भी डाक्टर, नर्स, अस्पताली बेड और दवाइयों के घनघोर अभाव वाले देश भारत में इस बात की क्या गारंटी है कि रोग का समय पर समुचित उपचार हो पाएगा ? अभी की हालत तो एक अनार और सौ बीमार की है.
बीमा कवरेज से पहले जरुरी है बुनियादी ढांचा
हाल ही में कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री(सीआईआई) ने स्वास्थ्य सेवाओं के बाजार की संभावनाओं पर केंद्रित एक रिपोर्ट प्रकाशित की. इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में मौजूद स्वास्थ्य-सेवा के ढांचे का 70 फीसद हिस्सा सिर्फ 20 शहरों तक सीमित है. सो, अचरज की बात नहीं कि 30 फीसद भारतीय प्राथमिक स्तर की भी चिकित्सा सुविधा से वंचित है. मतलब एक बड़ी जरुरत तो अभी स्वास्थ्य-सेवाओं के समतापूर्ण विस्तार की है ताकि लोगों को आए दिन की बीमारियों के उपचार तक के लिए उठकर शहरों में जाना ना पड़े.
दूसरी बड़ी जरुरत है स्वास्थ्य सुविधा के मौजूदा बुनियादी ढांचे के अभाव को दूर करने की. देश में आबादी की जरुरत के हिसाब से डाक्टर, नर्स और अस्पताल में बेड की संख्या बहुत कम है. सीआईआई के दस्तावेज के मुताबिक देश में प्रति 1000 आबादी पर 0.7 डाक्टर, 1.3 नर्स और अस्पताली बेड की संख्या 1.1 है.
अभाव की इस तस्वीर में इतना और जोड़ लें कि रुरल हैल्थ स्टैटिक्स 2017 के तथ्यों के मुताबिक महिला स्वास्थ्य-कर्मियों के 13 प्रतिशत और पुरुष स्वास्थ्यकर्मियों के 37 फीसद पद अभी खाली हैं. फिलहाल 13 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 11 प्रतिशत स्वास्थ्य उप-केंद्र के बारे में ही कहा जा सकता है कि वे आईपीएचएस यानि इंडियन पब्लिक हैल्थ स्टैंडर्डस के अनुकूल हैं.
स्वास्थ्य के मद पर सरकारी खर्चा कब बढ़ेगा
तीसरी बड़ी जरूरत है स्वास्थ्य के मद में सरकारी खर्च बढ़ाने की. सीआईआई के दस्तावेज के मुताबिक भारत पर बीमारियों का बोझ ज्यादा है लेकिन लोगों के लिए उपचार का खर्च उठा पाना भी बहुत मुश्किल है. भारत बीमारियों के कारण विश्व पर पड़ने वाले बोझ का 21 फीसद हिस्सा वहन करता है और 30 फीसद भारतीय उपचार पर होने वाले खर्च के कारण गरीबी-रेखा से नीचे चले जाते हैं.
जाहिर है, इसकी एक बड़ी वजह है स्वास्थ्य सेवा के मद में होने वाले खर्च को बढ़ाने से सरकार का अपने हाथ रोके रखना. हालात का अनुमान इस तथ्य से लगाइए कि अपने बजट-भाषण में जिस राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 का जिक्र वित्तमंत्री ने किया है उसमें लक्ष्य रखा गया है कि सरकार स्वास्थ्य के मद में होने वाले खर्च को जो अभी जीडीपी का 1.15 प्रतिशत है, बढ़ाकर 2015 तक 2.5 प्रतिशत करेगी. ब्राजील, थाइलैंड और दक्षिण अफ्रीका जैसे मुल्क भी इस मामले में भारत से आगे हैं जो अपने सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के मकसद से जीडीपी का 3 से 5 प्रतिशत हिस्सा खर्च करते हैं.
खैर, सरकारी स्वास्थ्य ढाचें की खस्ताहाली पर रोने की रीत पुरानी हुई. उम्मीद चाहे जितनी धुंधली हुई, आखिर उम्मीद होती है सो आइए, सपने देखें कि देश के 10 करोड़ गरीब परिवारों को उपचार के लिए अब कर्ज नहीं लेना होगा क्योंकि पांच लाख रुपए के बीमा-कवर का वादा इस बजट में हासिल हो गया है!
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