प्रधानमंत्री मोदी भारतीय सेनाओं के जबरदस्त हिमायती रहे हैं. उनके राज में उम्मीद थी कि भारतीय सेनाओं के अच्छे दिन जरूर आएंगे. सेनाओं का आधुनिकीकरण तेज होगा. इसके लिए रक्षा मंत्रालय के बजट में काफी बढ़ोतरी होगी. रक्षा मंत्रालय के तंत्र और कामकाज में फैली काहिली टूटेगी और रक्षा मंत्रालय को फंड के पूरे इस्तेमाल न होने की कुप्रथा से छुटकारा मिलेगा.
वित्त और रक्षा मंत्रालय के बीच तालमेल और आपसी समझदारी बढ़ेगी. दिन रात सेना के पराक्रम, शौर्य और त्याग की हुंकार भरनेवाले प्रधानमंत्री मोदी के चार साल के राज में यह भरोसा तार-तार हुआ है. उनके राज में रक्षा मंत्रालय का बजट लगातार घट रहा है.
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मेक इन इंडिया का घरेलू रक्षा उत्पादन अभियान अब तक नॉन स्टार्टर रहा है, इससे सेनाओं की खरीद और उसके आधुनिकीकरण कार्यक्रम को तेज झटका लगा है. मोदी राज के अब तक चार सालों में रक्षा मंत्री को लेकर चार बार फेरबदल हो चुके हैं.
तनाव बढ़ा, रक्षा बजट घटा
पाकिस्तान और चीन को ललकारने में मोदी के मंत्री आगे रहते हैं. पर रक्षा बजट बढ़ाने के लिए उनमें से कोई नहीं बोलता है. पिछले तीन सालों में भारत-पाक सीमा पर तनाव बढ़ा है. डोकलाम विवाद से भी पूर्वी सीमाओं पर चीन से तनाव बढ़ा है. बीते तीन सालों में पाकिस्तान सीमा पर युद्ध विराम उल्लंघन और घुसपैठ की वारदातों में भारी बढ़ोतरी हुई, जिससे पिछले तीन सालों में भारतीय जवानों के शहीदों होने की संख्या भी बढ़ी है.
2017 में 820 बार पाकिस्तान ने युद्ध विराम का उल्लंघन किया. यह संख्या 2016 में 228 थी और 2015 में 152 थी. इसी प्रकार पाकिस्तान ने 310 बार भारतीय सीमाओं में घुसपैठ की कोशिश की. 2016 में उसने 270 और 2015 में 130 बार घुसपैठ की कोशिश की थी.
पिछले तीन सालों में सीमा पर तनाव बढ़ा है, पर इस अवधि में रक्षा मंत्रालय का असल बजट लगातार घटा है. सैन्य विशेषज्ञों का कहना है कि इससे युद्ध के लिए चौकस रहने की सैन्य तैयारियों और सुविधाओं पर बुरा असर पड़ा है, जो पहले से ही काफी दयनीय स्थिति में है.
रक्षा मंत्रालय को पिछले बजट 2017-18 में 2.74 लाख करोड़ रुपए दिए गए थे, जो 2016-17 के रक्षा बजट से 6.4 फीसदी अधिक था. पर यह आवंटन जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का महज 1.56 फीसदी था जो 1962 के चीन युद्ध के बाद सबसे कम है. 2014-15 में रक्षा व्यय जीडीपी का 2.06 फीसदी, 2015-16 में 1.96 और 2016-17 में 1.65 फीसदी था. यानी रक्षा बजट में लगातार घट रही है.
पिछले साल 2017-18 में रक्षा बजट में चालू कीमतों पर 6.4 फीसदी की वृद्धि हुई थी. यदि इसमें से महंगाई के असर को कम कर दें, तो वास्तविक वृद्धि महज 1.4 फीसदी ही रह जाती है. यह बेहद कम है और इसका असली नुकसान सेना के आधुनिकीकरण यानी सैन्य हथियार, उपकरण और गोलाबारूद पर पड़ता है.
पिछले रक्षा बजट में सैन्य खरीद के लिए 86 हजार करोड़ रुपए ही मिले. पर इसमें 76 हजार करोड़ रुपए पिछली सैन्य खरीद की किश्ते देने में ही चला जाता है. नए हथियार और सैन्य साम्रग्री खरीदने के लिए रक्षा मंत्रालय के पास महज 10 हजार करोड़ रुपए ही बचते हैं, जबकि थल, वायु और जल सेनाएं पिछले कई सालों से हथियारों और उपकरणों की भारी कमी से जूझ रही है.
रक्षा विशेषज्ञ लक्ष्मण के बेहरा का कहना है कि असल में सेनाओं के आधुनिकीकरण का बजट पिछले साल 0.9 फीसदी कम हुआ है. इसमें जल और थल सेना का आधुनिकीकरण बजट 12 और 6.4 फीसदी कम हुआ है, जबकि राफेल फाइटर शिनूक और अपाचे हेलिकॉप्टरों की खरीद के कारण वायु सेना का आधुनिकीकरण बजट बढ़ा है.
संसदीय स्थायी समिति ने किया आगाह
सेनाओं के पास सैन्य साज सामान और गोलाबारूद की कमी अरसे से चल रही है. इसका कारण है कि सैन्य खरीद के लिए रक्षा मंत्रालय को पर्याप्त फंड बजट में नहीं दिया जाता है.
रक्षा की संसदीय स्थायी समिति ने ताजा रिपोर्ट में रक्षा मंत्रालय को पर्याप्त फंड न देने और सेना की आॅपरेशनल कमजोरियों को दूर करने और रक्षा खरीद को चुस्त न बनाने के लिए तीखी आलोचना की गई है. समिति ने चिंता जताई है कि फंड की कमी से रक्षा तैयारियों पर व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है.
गोलाबारूद की भारी कमी
गोलाबारूद के भंडारण के लिए सेना में मानक तय हैं. पर अरसे से सेना में गोलाबारूद की भारी कमी चल रही है. कैग ने कई बार अपनी रिपोर्ट में सेना में गोलाबारूद की सतत् कमी पर सख्त टिप्पणियां की हैं. पर गोलाबारूद के भंडारण में कोई कारगर अंतर नहीं आया.
जुलाई 2017 में संसद में पेश रिपोर्ट के अनुसार युद्ध की अकस्मात स्थिति से निपटने के लिए 40 दिन का गोलाबारूद होना चाहिए. पर 152 प्रकार के गोलाबारूद में 61 प्रकार के गोलाबारूद या युद्ध लड़ाने की सामग्री का भंडारण मानकों से काफी कम है जिससे 10 दिन का युद्ध भी नहीं लड़ा जा सकता है.
कैग ने 2013 में गोलाबारूद की खामियों को अपनी रिपोर्ट में उजागर किया था. 2016 में उरी की दुखद घटना ने अचानक युद्ध जैसी स्थिति में भारतीय सेना की तैयारियों की भयावह खामियों को उजागर किया था. पर पहले रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने और अब देश की पहली रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कैग की इस रिपोर्ट का खंडन किया है.
पर सैन्य विशेषज्ञ इन खंडनों से सहमत नहीं हैं. कई सैन्य विशेषज्ञों का कहना है पिछले कई दशकों से कि ब्यूरोक्रेसी की लाल फीताशाही और मनमानी प्रवृत्ति के कारण सेनाओं का भारी नुकसान हुआ है. एक रिपोर्ट के अनुसार विदेश से जितने गोलाबारूद का आयात किया जाना था, उसका केवल 20 फीसदी ही आयात हुआ है.
मेक इन इंडिया को भी रक्षा खरीद के खस्ता हाल के लिए रक्षा विशेषज्ञ दोषी ठहरा रहे हैं. इस महत्वाकांक्षी योजना के तहत प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में घोषणा की थी कि हथियारों और गोलाबारूद के आयातों को कम और इनके घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाएगा. तब प्रधानमंत्री मोदी ने इच्छा जाहिर की थी कि भारत को हथियार और गोलाबारूद के निर्यातक के रूप में उभरना चाहिए. लेकिन तब से देश के गोलाबारूद के उत्पादन में कोई खास तरक्की नहीं हो पायी है.
रक्षा में नॉन स्टार्टर रहा मेक इन इंडिया
प्रधानमंत्री मोदी को मेक इन इंडिया के तहत सैन्य उपकरणों, हथियारों और गोलाबारूद के घरेलू उत्पादन से भारी उम्मीदे थीं. तब उम्मीद जताई गई थी कि इससे आगामी दस सालों में देश में ढाई करोड़ रोजगार के मौके बनेंगे. मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की जीडीपी में हिस्सेदारी 17 फीसदी से बढ़ कर 25 फीसदी हो जाएगी जो 90 के दशक से लगभग स्थिर है. यह भी आकलन था कि आगामी दस सालों में इन प्रयासों से 40 लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त बढ़ोतरी जीडीपी में होगी, जिससे जीडीपी ग्रोथ 1.7-1.8 फीसदी बढ़ जाएगी.
इसके लिए रक्षा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा 100 फीसदी कर दी गई. आॅटोमैटिक रूट के लिए यह सीमा 49 फीसदी रखी गई. 2016 में नई रक्षा खरीद प्रक्रिया पॉलिसी भी घोषित की गई. पर इससे भी कोई मदद देश में घरेलू रक्षा उत्पादन को नहीं मिल पाई.
हाल ही में दक्षिण कोरिया के साथ माइंस वीपर्स निर्माण की योजना को भी टाल दिया गया. इसके तहत गोवा शिपयार्ड की सहायता से 32 हजार करोड़ रुपए की लागत से 16 माइंस वीपर्स का निर्माण होना था. इस परियोजना पर गोवा शिपयार्ड 700 करोड़ रुपए खर्च कर चुका था. पर अब नए सिरे से इस पर बातचीत होगी.
इसी प्रकार मेक इन इंडिया के चलते 72400 असॉल्ट राइफलों और 93,895 कारबाइन खरीदने का मामला अधर में लटका हुआ है. जानकारों कहना है कि विदेश में तैयार सैन्य सामान खरीदना सस्ता पड़ेगा, क्योंकि समान सैन्य उत्पादन इकाई लगाने में इंफ्रास्ट्रक्चर पर भारी खर्च होगा और इकाई अपनी उत्पादन क्षमता का अधिकतम इस्तेमाल भी नहीं कर पाएगी.
इससे उत्पादन लागत विदेश से ज्यादा आएगी. एक और व्यावाहारिक दिक्कत से मेक इन इंडिया के रक्षा उत्पादन योजना को पंख नहीं लग पाए. शुरुआत में भारतीय सेना ही इन घरेलू सैन्य उत्पादनों की एक मात्र खरीदार होगी, जिसके पास देसी-विदेशी सैन्य सामग्री खरीदने के लिए फंड का हमेशा टोटा रहता है.
सैन्य खरीद को चाहिए 25 लाख करोड़ रुपए
13वें रक्षा प्लैन (2017-22) में पाकिस्तान और चीन से बढ़ते खतरों और भारत के भू -रणनीतिक हितों की रक्षा के लिए भारतीय सेनाओं ने सरकार से 26.84 लाख करोड़ रुपए आगामी पांच सालों के लिए मांगे हैं. वित्त मंत्री ने आश्वस्त किया है कि सेना के आधुनिकीकरण की आवश्यकता को प्राथमिकता मिलेगी.
13वें रक्षा प्लैन को जल्द स्वीकृत करने की मांग भी सेनाओं ने की है. इस हिसाब से सेनाओं के रखरखाव और आधुनिकीकरण के लिए 5 लाख करोड़ रुपए की दरकार औसत हर साल होगी जो मौजूदा रक्षा बजट का लगभग दोगुना है. यह किसी से छुपा नहीं है कि थल सेना आर्टिलरीज, इन्फ्रैंट्री हथियार, हल्के हेलिकॉप्टर, नाइट फाइटिंग डिवाइस आदि की कमी से जूझ रही है.
वायु सेना में लडाकू विमानों का जखीरा कम होता जा रहा है. जल सेना भी सबमेरिन, मल्टी रोल हेलिकॉप्टरों और माइंस वीपर्स की भारी कमी है. पर चुनावी साल में क्या वित्त मंत्री सेनाओं की आवश्यकता को पूरा करने के लिए रक्षा बजट के आवंटन में 10-12 फीसदी की वृद्धि आगामी बजट कर पाएंगे, जो अपने बजट भाषण में रक्षा बजट का उल्लेख करना ही भूल जाते है.
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