बजट 2018-19 पर गुजरात के परिणामों की छाप स्पष्ट है. गौरतलब है कि गुजरात के ग्रामीण इलाकों में BJP को बुरी शिकस्त मिली है. शहरी इलाकों ने अगर BJP को न बचाया होता, तो गुजरात में BJP सत्ता से बाहर होती.
गुजरात के चुनाव बहुत बड़े सबक के तौर पर उभरे हैं BJP के लिए एक अहसास यह भी हो गया है कि शहरी मध्यवर्ग के पास BJP के अलावा कोई विकल्प नहीं है. इसलिए शहरी मध्यवर्ग को कुछ न दिए बगैर, शेयर बाजार से बतौर कर और ज्यादा लेकर, शेयर बाजार थोड़ा बहुत डुबोकर भी BJP को कोई नुकसान राजनीतिक तौर पर नहीं होगा. पर ग्रामीण और कृषिवाले भारत की उपेक्षा के बाद राजनीतिक नुकसान होना तय है, यह दिखा दिया गुजरात के चुनावी परिणामों ने.
मेरा गांव, मेरा देश- दो परसेंट बनाम तीस परसेंट
बजट में घोषणा की गई कि किसानों को उनकी फसलों की लागत का डेढ़ गुना देने का इंतजाम किया जाएगा समर्थन मूल्य की शक्ल में यानी फसलों की उपज का समर्थन मूल्य उनकी लागत से पचास प्रतिशत ज्यादा होगा. इस घोषणा के लिए बजट की जरूरत नहीं थी. यह घोषणा बजट के बाहर भी की जा सकती थी. पर बजट में इसकी घोषणा का अर्थ है कि सरकार के अपने किसान-हितचिंतक होने की घोषणा एक बड़े इवेंट में ही करना चाहती थी. पर समझने की बात यह है कि सिर्फ समर्थन मूल्य का मसला नहीं है. समर्थन मूल्य की घोषणा के बाद भी किसानों को अपनी फसलें समर्थन मूल्य से कम में बेचनी पड़ती हैं.
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इस स्थिति के निराकरण के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने एक और स्कीम निकाली है- भावांतर स्कीम यानी अगर बाजार मूल्य समर्थन मूल्य से कम होगा, तो उस अंतर की भरपाई मघ्यप्रदेश की सरकार करेगी. समर्थन मूल्य के ऊंचे होने भर से हल नहीं निकलता, इसके लिए कई बार भावांतर जैसी स्कीम भी राज्य सरकारों को लानी होगी. केंद्र की इस बजट घोषणा के बाद सरकार यह बात आसानी से कह सकती है कि यह किसान-प्रिय सरकार है. इस बात के राजनीतिक निहितार्थ हैं.
हाल में आए आर्थिक सर्वेक्षण में साफ किया गया था खेती का विकास मुश्किल से साल में दो प्रतिशत हो पा रहा है और दूसरी तरफ शेयर बाजार में सेनसेक्स एक ही महीने में तीस परसेंट से ऊपर चला गया. यह दो प्रतिशत साल बनाम तीस प्रतिशत महीने का विकास कहीं ना कहीं अर्थव्यवस्था के हित में नहीं है. लोकतंत्र के हित में नहीं है. संदेश यह जाता है कि कोई तो बहुत ज्यादा कमा रहा है और कोई बिलकुल भी नहीं कमा पा रहा है. चार करोड़ गरीबों को 16000 करोड़ रुपए खर्च करके बिजली दी जाएगी. यह भी एक महत्वपूर्ण राजनीतिक आधार है.
गेम चेंजर हेल्थ केयर स्कीम
बजट में घोषणा की गई है कि विश्व की सबसे बड़ी हेल्थ प्रोटेक्शन स्कीम भारत में लागू की जाएगी. स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए दस करोड़ गरीब परिवारों को प्रति परिवार पांच लाख रुपए दिए जाएंगे. मोटे तौर पर इस स्कीम के लाभार्थियों की संख्या 50 करोड़ होंगे. 50 करोड़ लोगों को अगर कोई योजना इस मुल्क में फायदा पहुंचा सकती है, तो समझा जाना चाहिए कि वह स्कीम गेम चेंजर है. वह स्कीम बहुत विराट राजनीतिक लाभांश की संभावनाओं से युक्त है. अकेली यह स्कीम ठीक ठाक तौर पर परिणाम दे दे, तो इसका बहुत राजनीतिक लाभ BJP के लिए संभव है. यह स्कीम जमीन पर कैसे उतरती है, यह देखना दिलचस्प होगा.
8 करोड़ लाभार्थी उज्जवला स्कीम के
विभिन्न तबकों में 8 करोड़ महिलाओं को उज्जवला स्कीम के दायरे में लाया जाएगा. 8 करोड़ का आंकड़ा बहुत बड़ा आंकड़ा है. 50 करोड़ हेल्थ स्कीम के लाभार्थी और 8 करोड़ उज्जवला स्कीम के लाभार्थी यानी करीब 60 करोड़ सीधे लाभार्थी बजट घोषणाओं यानी कुल जनसंख्या का करीब 46 प्रतिशत हिस्सा इन स्कीमों का लाभार्थी हो सकता है, यह बहुत बड़ा राजनीतिक संदेश है. राजनीतिक संदेश और ज्यादा मजबूत तौर पर और जाता, अगर उज्जवला स्कीम के लाभार्थियों को साल के दो सिलेंडर मुफ्त दे दिए जाते. उज्जवला स्कीम के कई लाभार्थियों की आर्थिक हैसियत इतनी नहीं है कि वो सिलेंडर आसानी से खरीद सकें. खास तौर पर जब यह तथ्य सामने हो कि कई मामलों में विभिन्न तबके के लोग अपने ईंधन का जुगाड़ सस्ती लकड़ी से इधर, उधर से तोड़कर कर लेते थे हैं और अब भी कई मामलों में कर लेते हैं.
सूट-बूट दुखी
बजट की घोषणाओं के दौरान शेयर बाजार में गिरावट दर्ज की गई. एक बारगी तो सेनसेक्स 400 बिंदुओं से ज्यादा गिर गया था. बाद में शेयर बाजार सुधरे. शेयर बाजार की गिरावट की एक वजह यह रही कि इस बजट ने लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन टेक्स लगाया वो भी 10 प्रतिशत की दर से. यानी एक साल तक शेयर रखने के बाद भी अगर किसी ने शेयर बेचकर एक लाख रुपए से ज्यादा का फायदा कमाया है तो उसे दस प्रतिशत का टैक्स देना पड़ेगा.
एक साल से पहले बेचकर फायदा कमाया तो शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन टैक्स यानी 15 प्रतिशत देना होगा. एक तरह से देखा जाए, तो अब शार्ट टर्म में जल्दी-जल्दी खरीद बेच की निवेश रणनीति और दीर्घकालीन निवेश की रणनीति में कर की दृष्टि से ज्यादा फर्क नहीं रहा.
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अब तक निवेशकों को समझाया जाता है कि दीर्घ अवधि के लिए निवेश करो, कोई कर नहीं लगता. पर अब सरकार उस कर को वसूलने के इरादे के साथ काम कर रही है. यह बात शेयर बाजार को पसंद नहीं आई. पर कुल मिलाकर यह बात अर्थव्यवस्था के लिए नकारात्मक बात नहीं है. सरकार का अनुमान था कि पिछले सालों में करीब 3,60,000 करोड़ रुपए के रिटर्न बिना कर के चले गए यानी अगर उन पर दस प्रतिशत का कर लगाया गया होता तो 36000 करोड़ रुपए के कर वसूल लिए गए होते. सरकार को अनुमान है कि इस मद से 20,000 करोड़ रुपए का कर वसूला जा सकता है.
दो करोड़ बनाम 128 करोड़
शेयर बाजार के निवेशकों को लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन टैक्स के दस प्रतिशत के कर से जरूर धक्का लगा है. पर राजनीतिक अर्थशास्त्र के छात्र जानते हैं कि सेनसेक्स की थोड़ी बहुत गिरावट से राजनीतिक उपलब्धियों पर खास फर्क नहीं पड़ता. देश में शेयर बाजार में निवेश करनेवालों की तादाद दो करोड़ से ज्यादा नहीं है. इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि शेयर बाजार की कोई वैल्यू नहीं है. पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि सिर्फ शेयर बाजार की ही वैल्यू है. शेयर बाजार शुरुआती नाराजगी के बाद फिर संभल गया. क्योंकि शेयर बाजार को देर सबेर समझ में आना ही कि कहीं से भी रकम लाकर देश के कृषि सेक्टर को देना अच्छा अर्थशास्त्र है और अच्छी राजनीति भी.
खेती किसानी जब चमकती है तो तमाम आइटमों की मांग बढ़ती है. तमाम आइटमों की मांग बढ़ने का मतलब है कि तमाम कंपनियों की सेल बढ़ेगी और देर सबेर कंपनियों के मुनाफे भी बढ़ेंगे ही. खेती से ही इस मुल्क में कुल रोजगाररत लोगों में से करीब पचास प्रतिशत लोगों को रोजगार मिलता है. खेती पर ही इस देश की करीब 65 प्रतिशत आबादी निर्भर है. इसलिए अंतत: खेती का भला समूची अर्थव्यवस्था का भला है. यह बात इस बजट ने समझाने की कोशिश की है.
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