उम्मीद थी कि मोदी सरकार आने के बाद रेल यात्रियों को बदतर जन सुविधाओं से छुटकारा मिल जाएगा. सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री मोदी ने राजकाज चलाने के लिए नया मंत्र दिया ' न्यूनतम सरकार, अधिकतम सुशासन.' चोर रास्तों से यात्रियों के छलने का लंबा सिलसिला बंद हो जाएगा.
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बेहतरी के नाम पर भारतीय रेलवे के कई काम और जन सुविधाएं प्राइवेट क्षेत्र को सौंप दी गईं, लेकिन रेलवे की सेवाओं की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ. पिछले चार सालों में रेल के किराए, भाड़े और शुल्क में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है . वित्त मंत्री अरुण जेटली ने साफ-साफ कहा कि बेहतर सुरक्षा और सुविधाएं चाहिए, तो कीमत अदा करनी पड़ेगी. इसके बावजूद पिछले चार सालों में रेलवे की सेवाएं और बदतर हुईं हैं.
साफ-सफाई, खान-पान, सुरक्षा आदि को लेकर शिकायतों का अंबार पहले से ज्यादा है. भारतीय रेल को विश्व स्तरीय बनाने की दुहाई देने वाले रेल मंत्री सुरेश प्रभु की रक्षा खुद प्रभु भी नहीं कर पाए. एक बड़ी रेल दुर्घटना के बाद बड़े बेमन से उन्हें रेल मंत्रालय से रुखसत होना पड़ा.
बॉयो टॉयलेट्स से नहीं बनी बात
रेल यात्रा में टॉयलट शुरू से यात्रियों के लिए नहीं, रेल प्रबंधन के लिए सिरदर्द रहे हैं. टॉयलट में गंदगी, दुर्गंध के आतंक से कई बार यात्री उसके इस्तेमाल का साहस खो बैठते हैं. पुराने टॉयलटों की इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए बायो टॉयलट को एक जादुई विकल्प के रूप में पेश किया गया. कहा गया कि इससे दुर्गंध और पटरियों को होने वाले नुकसान से छुटकारा मिल जाएगा.
अब तक 25 हजार कोचों में 93 हजार से ज्यादा बायो टॉयलट लगाए जा चुके हैं. 2019 तक सभी कोचों में ये टॉयलट लगाने का टारगेट है. कुल यात्री कोचों की संख्या तकरीबन 50 हजार है. यानी 2019 तक 25 हजार कोचों में बायो टॉयलट लगाया जाना है.
2016-17 में ही दो लाख से अधिक रेल यात्रियों ने दुर्गंध और गंदगी से दहकते बायो टॉयलटों की शिकायत दर्ज कराई है. इन टॉयलटों में चोक (जाम) होने की शिकायत आम है. भारतीय रेलवे ने 24 साल तक विकल्पों की जांच परख के बाद बायो टॉयलटों को लगाने का फैसला लिया था.
लेकिन शुरू से ही बायो टॉयलटों की उपयोगिता पर सवाल उठते रहे हैं. भारतीय रेलवे को बायो टॉयलट डीआरडीओ (डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट आॅरगानाइजेशन) की देन है. टॉयलट की कार्य पद्धति एक विशेष बैक्टीरिया पर निर्भर है जो मल को मीथेन और पानी में बदल देता है.
बायो टॉयलट पर छीछालेदर
डीआरडीओ के एक अधिकारी आशोक बाबू ने तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को आधिकारिक दावों को कबाड़ बताते हुए एक पत्र में लिखा था कि बायो टॉयलट गोबर गैस प्लांट के अलावा कुछ नहीं है. बेसिक ट्रेनिंग के बाद गांव का राजमिस्त्री भी ऐसे टॉयलट बना सकता है. यह योजना अधिकारियों और वेंडरों की मिलीभगत से चल रही है. इसी अधिकारी ने 2004 में ही तत्कालीन मुख्य सतर्कता कमीशनर प्रदीप कुमार को एक चिट्ठी लिख कर आगाह किया था कि बायो टॉयलट महज स्वांग है. वैसे देश के दो आईआईटी संस्थान इन टॉयलटों की उपयोगिता पर सवाल उठा चुके हैं.
इन टॉयलटों की हालात पर कैग ने भी गंभीर टिप्पणियां की हैं. पिछले दिनों संसद में पेश कैग की रिपोर्ट में बताया गया है कि बोतल, सिगरेट के ठूंठ, गुटका, सैनेटरी नैपकिन आदि फेंके जाने से ये टॉयलट जाम हो जाते हैं. इन टॉयलटों में फ्लश के लिए पर्याप्त पानी भी नहीं होता है, न ही पर्याप्त जल दबाव.
कैग ने इस रिपोर्ट में यह भी बताया है कि अनेक टॉयलटों में न मग होते हैं, न कूड़ादान. नतीजतन कूड़े से टॉयलट के जाम होने की आशंका 100 फीसदी रहती है. और रेल कर्मियों को जाम टॉयलटों की सफाई भी भारी दिक्कत होती है. रेलवे के एक अधिकारी का कहना है कि लगाए गए 95 फीसदी टॉयलट खराब हैं. कुल मिलाकर इन टॉयलटों ने रेल यात्रियों का सफर पहले से और नारकीय बना दिया है.
पर राजनीतिक दबावों से इन टॉयलटों को अब भी कोचों में लगाया जा रहा है. दूसरी तरफ भारतीय रेलवे अब टॉयलटों में वैक्यूम टॉइलट लगाने का निर्णय ले चुकी है. जनवरी 18 तक प्रीमियम ट्रेनों की 100 कोचों में वैक्यूम टॉयलट लगाने का लक्ष्य है. ऐसे टॉयलट हवाई जहाजों में इस्तेमाल होते हैं. वैसे भारतीय रेलवे 24 घंटे पैसे का रोना रोती है. पर जब वैक्यूम टॉयलट लगाने का सैद्धांतिक फैसला हो चुका है, तो अब बायो टॉइलटों पर पैसा बरबाद करने की तुक किसी के गले नहीं उतरेगी. अब तक भारतीय रेलवे इन जादुई टॉयलटों पर 13 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च कर चुकी है. लगभग इतनी रकम 2019 तक इन पर और खर्च हो जाएगी.
ऐसे खाने से भगवान बचाए
रेल स्टेशनों और ट्रेनों में मिलने वाले फूड प्रोडक्ट की गुणवत्ता, घटतौली और कीमतों से अधिक वसूली की शिकायतें साल दर साल बढ़ती जा रही है. पर लगता है इन शिकायतों की लीपापोती करना रेलवे का धर्म बन गया है.
बीती जुलाई में संसद में पेश कैग की रिपोर्ट में सख्त टिप्पणियां की गई हैं कि भारतीय रेलवे की कैटरिंग (खान -पान व्यवस्था) में तमाम खामियां हैं. कई स्टेशनों और ट्रेनों में मिलने वाला खाना खाने लायक नहीं होता. यह हालात तब है जब भोजन प्रबंध को लेकर जीरों टॉलरैंस पॉलिसी रेलवे लागू कर चुकी है.
कैग ने 74 स्टेशनों और 80 ट्रेनों में सर्वेक्षण कर यह रिपोर्ट तैयार की है. इस रिपोर्ट में साफ कहा है कि सर्वेक्षण में अनेक खाद्य पदार्थ खाने योग्य नहीं हैं. संक्रमित खाद्य पदार्थ, रीसाइकिल्ड भोजना सामाग्री, एक्सपायर्ड पैकेज्ड खाद्य सामग्री और बोतलबंद पेय, अनधिकृत ब्रांड के बोतलबंद पानी को खरीदारों को बेचे जाने के कई उदाहरण सामने आए.
कैग ने अपने सर्वे में पाया कि साफ-सफाई और हाइजीन (स्वास्थ्यकर) के मानकों का पालन नहीं हो रहा था. स्टेशनों और ट्रेनों में पेय पदार्थ तैयार करने के लिए अशुद्ध पानी का इस्तेमाल हो रहा है. कूड़ेदान पर ढक्कन नहीं था, न ही उनको नियमित खाली किया जाता है. मक्खी, मच्छर, धूल और चूहों से बचाने के लिए कोई पर्याप्त इंताजम नहीं हैं. कैग की इस रिपोर्ट को पढ़कर कोई रेल यात्री शायद ही रेल यात्रा में स्टेशन या ट्रेन में खाने का साहस जुटा पाएगा. वैसे रेलवे का नया दावा है कि वह हवाई जहाज से ताजा खाना यात्रियों को मुहैया कराती है.
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