नोटबंदी की घोषणा को दो साल हो चुके हैं. बहुत कुछ बदला है अर्थव्यवस्था में. पेटीएम जैसे नाम अब परिचित हो गये हैं. पेटीएम के पास करीब तीस करोड़ प्रयोक्ता हैं. यानी इस देश की करीब चौथाई आबादी पेटीएम की प्रयोक्ता है. पेटीएम की प्रयोक्ता संख्या अमेरिका की जनसंख्या के लगभग बराबर है. पेटीएम ब्रांड अब अपनी पहुंच के दूसरे प्रयोग कर रहा है. मुचुअल फंड में सीधे निवेश के लिए इसका मोबाइल एप्लीकेशन पेटीएम मनी काम कर रहा है. ऐसी खबरें लगातार आईं कि किसी महिला ने अपनी हाऊसिंग सोसाइटी की कामवाली बाईयों को डेबिट कार्ड का प्रयोग सिखाया. ऐसी खबरें लगातार आईं कि सत्तर साल के दादाजी ने आनलाइन बैंकिंग सीखने की कोशिश की. यानी कुल मिलाकर नकदहीन लेनदेन के प्रति जागरुकता का माहौल बना.
नवंबर 2016 में नोटबंदी के फौरन बाद तो यह माहौल मजबूरी की वजह से बना. कैश है नहीं तो पेटीएम या कार्ड का इस्तेमाल मजबूरी थी. उस दौर में गोलगप्पे से लेकर गोभी तक पेटीएम के जरिए बिकी है. पर उस वक्त की मजबूरी बाद में एक हद तक आदत के तौर पर भी नियमित हो गई. उस मजबूरी के दौर में जिन्होंने नकदहीन लेनदेन शुरु किए थे, वो अब भी अपने लेन-देन का बड़ा हिस्सा नकदहीन ही कर रहे हैं, मजबूरी में नहीं, बल्कि सुविधाओं और कैश बैक लेने के लिए. कैश बैक-यानी खर्च की गई रकम की वापसी-यह शब्द कईयों की डिक्शनरी में नोटबंदी के बाद ही आया है. तो नकदहीन लेन-देन में बढ़ोत्तरी के आधार पर अगर नोटबंदी का मूल्यांकन किया जाए, तो यह योजना कामयाब मानी जाएगी. लोगों को नकदहीन लेनदेन के लिए मजबूरी में ही सही, जितनी गति से नोटबंदी ने प्रेरित किया, उतनी गति आम परिस्थितियों में हासिल करना असंभव था.
ऑनलाइन लेनदेन में चौगुने से ज्यादा बढ़ोत्तरी
अगर पैसों के सारे डिजिटल लेनदेन का हिसाब लिया जाए तो नोटबंदी के बाद से अब तक ऑनलाइन लेनदेन में करीब 440 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है. अर्थव्यवस्था जितना ऑनलाइन तरीके से चलेगी उतना पारदर्शिता के लिहाज से बेहतर होता है. हालांकि नोटबंदी की शुरुआत में एक उद्देश्य को मुख्य बताया गया था-वह था कालेधन पर प्रहार.नोटबंदी से बड़ी उम्मीद यह थी कि करीब तीन लाख करोड़ रुपए का कालाधन रद्द हो जाएगा. ऐसा नहीं हुआ. रिजर्व बैंक की तरफ से आनेवाले आंकड़ों से साफ हुआ कि नवंबर 2016 में हुई नोटबंदी से जिस एक लक्ष्य के पूरे होने की उम्मीद की गई थी, उसकी पूर्ति होती नहीं दिखी. नवंबर 2016 में सरकार ने 500 और 1000 के नोटों को बंद करने की घोषणा की थी. उस समय 500 और 1000 के नोटों की करीब 15 लाख 41 हजार करोड़ रुपए की वैल्यू की मुद्रा प्रचलन में थी.
कई विशेषज्ञों को उम्मीद थी कि इसमें से करीब ढाई लाख करोड़ के 500-1000 के नोट वापस नहीं आएंगे. इस उम्मीद का आधार यह था कि बड़ी तादाद में काली मुद्रा बड़े नोटों की शक्ल में होती है. बड़े नोट वापस जमा कराने के काम को कालेधनवाले लोग नहीं करेंगे और अपने 500-1000 के नोटों को बेकार होने देंगे, पर बैंकों में वापस जमा कराने न आएंगे कि कहीं उनसे उनका हिसाब ना पूछ लिया जाए. करीब ढाई लाख करोड़ रुपए सिस्टम में वापस ना आएंगे, तो इतने वैल्यू का काला धन सिस्टम से बाहर हो जाएगा, ऐसी उम्मीद की गई थी. पर भारतीय पब्लिक और खास तौर पर कालेधनवाले सरकार से ज्यादा स्मार्ट निकले.
कुल 10720 करोड़ रुपए वैल्यू के नोट वापस ना आए, बाकी सारे नोट वापस आ गए. नोटबंदी के दिनों में देखा गया कि कारोबारियों ने अपने नौकरों को, काम वाली बाइयों को लाइन में लगाकर उनके ही खातों में रकम जमा कराई. यानी कुल मिलाकर काले का सफेद बहुत आसानी से हो गया.
पर इसके दूसरे सकारात्मक परिणाम जरुर सामने आए. नकदहीनता की वजह से कश्मीर में पत्थरबाजी कम हुई क्योंकि उन्हे देने के लिए नकद रकम अलगाववादियों के पास नहीं थी.
करदाताओं की तादाद में बढ़ोत्तरी
हालिया आंकड़ों के मुताबिक 2014-2015 से 2017-18 के बीच यानी करीब चार सालों में एक करोड़ रुपए सालाना से ज्यादा की आय दिखानेवाले व्यक्तिगत करदाताओं की संख्या में करीब 68 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है. आंकड़ों के मुताबिक 2014-15 में ऐसे करोड़पति करदाताओं की तादाद 48, 416 थी और 2017-18 में यह बढ़कर 81,344 हो गयी. इस खबर पर खुश हुआ जा सकता है कि चार सालों में करीब 68 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई.
नोटबंदी अपने मूल उद्देश्य यानी कालेधन को सिस्टम से बाहर करने में भले ही कामयाब नहीं रही हो, पर सरकार की वित्तीय दिक्कतें इससे एक हद कम हुईं. 2012-13 में कुल चार करोड़ 72 लाख करदाता थे, 2016-17 में यह बढ़कर 6 करोड़ 26 लाख हो गए. नोटबंदी के बाद की गई कार्रवाईयों में 5,400 करोड़ रुपये की अघोषित आय पकड़ में आई. 2016-17 में करीब नब्बे लाख नये करदाता जुड़े कर व्यवस्था में. हर साल जितने करदाता आम तौर पर बढ़ते हैं, उसके मुकाबले यह करीब 80 प्रतिशत ज्यादा बढ़ोत्तरी है यह. यह सब नोटबंदी के चलते हुआ, लोगों के मन में खौफ आया कि सरकार कुछ कड़े कदम उठा सकती है.
इसलिए सरकार का कर आधार व्यापक हुआ है. कुल मिलाकर नोटबंदी ऐसी फायरिंग साबित हुई, जो निशाने पर ना लगने के बावजूद कुछ सकारात्मक परिणाम लेकर आई. और इसका एक सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि लोग नकदहीन अर्थव्यवस्था की तरफ उन्मुख हुए. नकद-न्यूनतम अर्थव्यवस्था के कई फायदे हैं, कालेधन के नये सृजन पर इसमें एक हद तक रोक लग जाती है.
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