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मॉब-लिंचिग और गोरक्षकों की 'गुंडई' ने चमड़ा उद्योग को तबाह किया

चमड़े उद्योग के लक्ष्यों पर मेक-इन-इंडिया की भी जबरदस्त विफलता

Updated On: Sep 07, 2018 06:19 PM IST

FP Staff

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मॉब-लिंचिग और गोरक्षकों की 'गुंडई' ने चमड़ा उद्योग को तबाह किया

देश में बढ़ रही मॉब लिंचिंग और गाय से संबंधित हिंसा की घटनाओं का भारी प्रभाव चमड़ा उद्योग पर देखने को मिल रहा है. चमड़ा उद्योग की तरफ से निर्यात यानी इंपोर्ट में गिरावट दर्ज की गई है. हालिया उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, 2016-17 के वित्तीय वर्ष में 3 फीसदी से अधिक और 2017-18 की पहली तिमाही में 1.30 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.

जबकि 2013-14 में, 18 फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई थी. यह जानकारी व्यापार डेटा पर इंडियास्पेंड द्वारा किए गए विश्लेषण में सामने आई है. जैसा कि आंकड़ों से पता चलता है वर्ष 2014-15 में निर्यात वृद्धि 9.37 फीसदी तक धीमी हुई और 2015-16 में 19 प्रतिशत अंक से अधिक की गिरावट हुई है.

चमड़ा उद्योग राष्ट्रीय स्तर पर 2.5 मिलियन लोगों को रोजगार देता है. रोजगार पाने वालों में से अधिकतर मुस्लिम या दलित हैं. विश्व स्तर पर जूता उत्पादन में भारत के चमड़ा उद्योग की 9 फीसदी की हिस्सेदारी है, जबकि चमड़ा और खाल उत्पादन में 12.93 फीसदी हिस्सेदारी है.

जैसा कि 25 जून, 2017 को 'द हिंदुस्तान टाइम्स' की रिपोर्ट में बताया गया है पशुवध के लिए मवेशी बिक्री पर प्रतिबंध ने एक बार बढ़ते चमड़े के उद्योग और उसके सबसे गरीब कर्मचारियों, विशेष रूप से मुस्लिम और दलितों को प्रभावित किया है.

वर्ष 2014-15 में चमड़ा निर्यात 6.49 बिलियन डॉलर से घटकर 2016-17 में 5.66 बिलियन डॉलर हो गया. यह वित्तीय वर्ष 2014-15 की तुलना में 12.78 फीसदी कम है. दूसरी तरफ, चीन से चमड़े और जूते के निर्यात में 3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है. चीन के लिए 2017 में यह आंकड़े 76 बिलियन डॉलर से 78 बिलियन डॉलर हुए है.

गाय से संबंधित हिंसा का प्रभाव चमड़ा उद्योग पर

'देश में मवेशी वध में कमी के बाद घरेलू आपूर्ति में 5 फीसदी से 6 फीसदी की गिरावट आई है,' जैसा कि 4 फरवरी, 2016 को 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' द्वारा चमड़ा निर्यात के अध्यक्ष परिषद रफीक अहमद को इस रिपोर्ट में उद्धृत किया गया था. औद्योगिक उत्पादन सूचकांक , जो आर्थिक गतिविधि को मापता है और उद्योगों के लिए महत्व निर्देशित करता है, पर 2014-15 में लगभग 14 अंक की वृद्धि के बाद, चमड़े के उत्पादों के लिए 2015-16 में 2 अंक की गिरावट देखी गई.

2012 से 2013 में एक-एक और 2014 में तीन और 2017 में गाय से संबंधित 37 हिंसा की सूचना मिली है,इसलिए उत्पादन और चमड़े के निर्यात में गिरावट आई है. इस तरह की हिंसा के लिए यह अब तक का सबसे बुरा साल है.

ऐसी हिंसा में वृद्धि 2015 के बाद से विशेष रूप से नजर आता है, जब उत्तर प्रदेश में कृषि कार्यकर्ता मोहम्मद अखलाक सैफी की हत्या हो गई थी. अखलाक की हत्या के बाद, 2015 में गाय से संबंधित 12 हिंसक घटनाओं में से 10 की मौत हुई है, जबकि 2016 में 24 घटनाओं में आठ, 2017 में 11 और 2018 में सात लोगों की मौत की खबर मिली है, जैसा कि Factchecker.in के आंकड़ों से पता चलता है.

गाय से संबंधित घटनाओं में वृद्धि और चमड़े के सामानों के निर्यात में गिरावट सरकार की नीतियों के अंतःस्थापित परिणामों के रूप में दिखाई देती है.

चमड़े उद्योग के लक्ष्यों पर मेक-इन-इंडिया की जबरदस्त विफलता

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के 'मेक इन इंडिया' कार्यक्रम के उद्देश्य में से एक था- 2020 तक, चमड़े के निर्यात में 5.86 बिलियन डॉलर से 9 बिलियन डॉलर की वृद्धि करना और मौजूदा 12 बिलियन डॉलर के घरेलू बाजार को 18 बिलियन डॉलर तक बढ़ाना था.

भारत में गाय से संबंधित हिंसा में पहली बार मौत की सूचना के बाद, देश ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से प्रतिक्रिया मांगी, जो सांप्रदायिक सद्भाव और गरीबी का जिक्र करते हुए इस बयान के रूप में 8 अक्टूबर, 2015 को आया था.

मोदी ने बिहार में एक चुनावी रैली के दौरान कहा, 'हिंदुओं को यह तय करना चाहिए कि मुसलमानों से लड़ना है या गरीबी से लड़ना है. वहीं मुसलमानों को यह तय करना है कि हिंदुओं से लड़ना है या गरीबी से लड़ना है. दोनों को गरीबी से लड़ने की जरूरत है, जैसा कि ‘द हिंदू’ ने 8 अक्टूबर, 2017 की रिपोर्ट में बताया है. उन्होंने कहा था, 'देश को एकजुट रहना है, केवल सांप्रदायिक सद्भाव और भाईचारा देश को आगे ले जाएंगे. लोगों को राजनेताओं द्वारा किए गए विवादास्पद वक्तव्यों को नजरअंदाज करना चाहिए, क्योंकि वे राजनीतिक लाभ के लिए ऐसा कर रहे हैं.'

पवित्र गाय के मामले में अधिकांश हमलों में, पीड़ित या तो मुस्लिम या दलित थे. 2014 और 2018 के बीच 115 मुसलमानों पर हमला किया गया था, जबकि 2016 और 2017 के बीच 23 दलितों पर हमला किया गया. दलितों के लिए सबसे खराब वर्ष 2016 का रहा है, क्योंकि इस वर्ष गाय-संबंधी हिंसा में 34 फीसदी पीड़ित दलित रहे हैं.

गाय से संबंधित घटनाओं में से 51 फीसदी बीजेपी शासित राज्यों में हुई, जबकि कांग्रेस शासित राज्यों में 11 फीसदी घटनाएं हुई हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि गाय से संबंधित हिंसा के लगभग सभी पीड़ित कम आय वाले परिवारों से हैं जो कृषि या मवेशी या मांस व्यापार पर निर्भर रहते हैं.

बीजेपी घोषणापत्र और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष

मई 2017 में, केंद्र सरकार ने भारत भर के पशु बाजारों में वध के लिए मवेशियों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के लिए जानवरों पर क्रूरता को रोकने के लिए नियम में संशोधन किया, जिससे चमड़े के सामान उद्योग को एक और झटका लगा है.

वर्ष 2014 के चुनावी घोषणापत्र में, बीजेपी ने 'गाय और उसके वंश' की रक्षा के लिए आवश्यक कानूनी ढांचे का वादा किया था. गाय एक पवित्र पशु है, जिसे हिंदू शास्त्र में 'मां' की तरह माना गया है.

मई 2017 की अधिसूचना अक्टूबर 2017 में वापस ले ली गई और बाद में परिवहन मंत्री नितिन गडकरी की अध्यक्षता में मंत्रियों के एक समूह द्वारा चर्चा के बाद संशोधित किया गया.

जैसा कि ‘द मिंट’ ने 24 जुलाई, 2018 की रिपोर्ट में बताया है मुस्लिम परिवारों के बीच मवेशी देखभाल करने वाले परिवार 18.6 फीसदी, सिखों में 40 फीसदी, हिंदुओं में 32 फीसदी और ईसाइयों के बीच 13 फीसदी है.

लगभग 63.4 मिलियन मुस्लिम (या देश में 40 फीसदी मुस्लिम) गोमांस या भैंस का मांस खाते हैं. कुल मिलाकर, 80 मिलियन भारतीय 12.5 मिलियन हिंदुओं सहित गोमांस या भैंस का मांस खाते हैं. भारत में केवल 15 फीसदी परिवार गैर-दुग्ध जानवरों का स्वामित्व करते हैं.

यदि भारत पूरी तरह से मवेशियों की हत्या पर प्रतिबंध लगाता है, तो परिणाम स्वरूप इसकी अर्थव्यवस्था पर 'गंभीर खतरा' हो सकता है, जैसा कि 9 जुलाई, 2017 को हिंदू बिजनेस लाइन की रिपोर्ट में बताया गया है.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री विकास रावल ने कहते हैं, 'प्रत्येक वर्ष, इस देश में 34 मिलियन नर बछड़े पैदा होते हैं. अगर हम मानते हैं कि वे आठ साल तक जीवित रहते हैं, तो आठ साल के अंत तक लगभग 270 मिलियन अतिरिक्त अनुत्पादक मवेशी होंगे. इन मवेशियों की देखभाल के लिए अतिरिक्त व्यय 5.4 लाख करोड़ रुपए का होगा, जो केंद्र और सभी राज्यों के वार्षिक पशुपालन बजट को एक साथ रख दें तो उसका 35 गुना है.'

(इंडिया स्पेंड से नीलेश जैन का लेख)

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