हाल के दिनों में केंद्रीय बैंक यानी रिज़र्व बैंक की स्वतंत्रता पर जोर-शोर से बहस हो रही है. ये बहस इसलिए मौजूं है क्योंकि सैद्धांतिक रूप से सभी केंद्रीय बैकों को सरकार के चंगुल से आजाद होना चाहिए. इस स्वतंत्रता की जरूरत इसलिए है क्योंकि मौद्रिक नीति के लिए जिम्मेदार संस्था की ये जवाबदेही होती है कि अर्थव्यवस्था में स्थायित्व रहे.
नियम-कायदों से समझौते न हों. सरकार का मकसद होता है कि अर्थव्यवस्था तेजी से तरक्की करे. इसके लिए सरकार कई बार देश के तंत्र के लिए लॉबीइंग का काम भी करने लगती है. केंद्रीय बैंक सरकारी व्यवस्था का हिस्सा नहीं होता. उसका सियासी एजेंडे से कोई वास्ता नहीं होता. हालांकि वो निजाम के दायरे में रहकर ही काम करता है. ऐसे में उसका सरकार से संवाद करना तो लाजमी है. लेकिन, वो सरकार के सुझावों पर ही चले, ऐसा भी नहीं होना चाहिए.
अर्थशास्त्र में किसी भी मुद्दे पर दो या इससे भी ज्यादा राय हो सकती हैं. यही वजह है कि हमें एक ही विचार रखने वाला अर्थशास्त्री ढूंढे से भी नहीं मिलता. इसकी वजह इस मिसाल से साफ हो जानी चाहिए कि ब्याज दरें बढ़ाई जाएं या नहीं. बढ़ाने के हक में भी ठोस तर्क हैं और न बढ़ाने की भी मजबूत वजहें गिनाई जा सकती हैं. सैद्धांतिक रूप से देखें, तो दोनों ही रास्तों पर चलने के ठोस कारण हैं. इन्हीं बुनियादी दायरों में रहकर हमें, हाल ही में रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर के बयानों की समीक्षा करनी चाहिए.
लंबे वक्त से ये माना जाता रहा है कि बैंकों के एनपीए की समस्या को हल करने के एक फॉर्मूले की तलाश थी. जब फरवरी में 180 दिनों का नोटिफिकेशन जारी किया गया, तो यूं लगा कि इस दिशा में कुछ काम हो रहा है. लेकिन उस बात को छह महीने बीत चुके हैं.
अब सरकार ये कह रही है कि बिजली कंपनियों को उस नोटिफिकेशन से छूट मिलनी चाहिए. वरना इसका सीधा असर देश की विकास दर पर पड़ेगा. बिजली कंपनियों पर कार्रवाई से विकास दर कमजोर होगी. लेकिन, रिज़र्व बैंक भी अपने तर्क पर मजबूती से खड़ा है. रिज़र्व बैंक का कहना है कि अगर कुछ खास कंपनियों को एनपीए के मामले में रियायत दी जाएगी, तो आगे चल कर ये दूसरे सेक्टर की कंपनियों के लिए भी मिसाल बन जाएगी. फिर तो एनपीए की चुनौती से सख्ती से निपटने की नीति ही ढुलमुल हो जाएगी. ये शायद ऐसा मुद्दा है, जिसमे रिजर्व बैंक की बात ज्यादा वजनदार है.
दूसरी चुनौती सरकारी बैंकों पर नियंत्रण की है. रिज़र्व बैंक ने जैसी सख्ती निजी बैंकों के साथ दिखाई है, वैसा चाबुक सरकारी बैंकों पर वो नहीं चला सका है. समस्या की शुरुआत ही इससे होती है. नतीजा ये कि सरकारी बैंकों की बीमारी का इलाज मुश्किल होता जा रहा है. एक बात और भी है. जब कुछ निजी बैंक मुश्किल में थे, तो रिज़र्व बैंक ने मामले में दखल देकर उन्हें मुश्किलों से निकालने की कोशिश की.
चुनौतियां झेल रहे बैंकों का दूसरे बैंकों में विलय कराया. रिज़र्व बैंक सरकारी बैंकों के साथ ऐसा नहीं कर सकता. वजह साफ है. सरकारी बैंकों का नियंत्रण सरकार के हाथ में है. तो, अगर ग्लोबल ट्रस्ट बैंक को मुश्किल से निकालने के लिए जो फॉर्मूला कारगर होगा, वो किसी सरकारी बैंक पर लागू नहीं किया जा सकता. या फिर उन बैंकों को ही लीजिए, जिन्हें रिजर्व बैंक पीसीए (Prompt Corrective Action) यानी फौरी सुधारात्मक कार्रवाई के दर्जे में डाल देता है.
ऐसे बैंकों को तब तक कर्ज बांटने की इजाजत नहीं होती, जब तक वो अपनी गड़बड़ियों को दूर नहीं कर लेते. जब इस व्यवस्था की शुरुआत हुई थी, तो सब ने ताली बजाकर इसका स्वागत किया था. किसी भी कमजोर बैंक को सुधारने का ये तरीका बहुत मुफीद लगा था. कम पूंजी वाले ऐसे किसी बैंक को, जिसका एनपीए बहुत ज्यादा हो, उसे अगर कर्ज बांटने की इजाजत दे जाए तो हालात और बिगड़ने का अंदेशा रहता है. लेकिन, आज सरकार ये चाहती है कि बैंकों को पीसीए से रियायत दे दी जाए, क्योंकि बाजार में पूंजी की कमी महसूस की जा रही है और 11 बैंक अभी पीसीए के दर्जे में हैं, यानी वो कर्ज नहीं दे सकते.
सवाल ये है कि क्या रिजर्व बैंक को अपने ही नियम-कायदे से समझौता कर के बैंकों को कर्ज बांटने की इजाजत दे देनी चाहिए? ये ठीक वैसा ही है जैसे ज़्यादा से ज़्यादा छात्रों को पास कराने के लिए पासिंग मार्क कम कर दिया जाए, भले ही वो छात्र काबिल और पास होने लायक हों या नहीं.
मजे की बात ये है कि आज जब रिजर्व बैंक वित्तीय व्यवस्था के कई और अंगों अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रहा है, ताकि बैंकों और वित्तीय सिस्टम के दूसरे अंगों के बीच आपसी संबंध मजबूत हों. वहीं, सरकार लेन-देन के लिए अलग से रेगुलेटर लाने की बात कर रही है. इससे भी रिज़र्व बैंक की ताकत कम होगी. सिस्टम पर उसकी पकड़ कमजोर होगी. वजह साफ है. हर लेन-देन बैंकिंग व्यवस्था से होकर ही गुजरता है. अगर इस पर रिज़र्व बैंक की पकड़ होगी, तो सिस्टम में पैसों की आवा-जाही पर उसका काबू होगा.
नतीजा ये कि रिजर्व बैंक जो नीतियां लागू करेगा, वो ज्यादा असरदार होंगी. अगर रिजर्व बैंक की जगह कोई नई व्यवस्था लेन-देन की निगरानी करेगी, तो रिजर्व बैंक से एक और व्यवस्था नियंत्रित करने की आजादी छिन जाएगी, जो उसकी ही जिम्मेदारी है. अब ये देखना दिलचस्प होगा कि ऐसी कोई व्यवस्था बनती भी है या नहीं.
आखिर में बात उन बयानों की जो प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार पारिषद और नीति आयोग के सदस्य दिया करते हैं. वो ब्याज दरें न घटाने के लिए रिज़र्व बैंक को कोसते हैं. आरोप लगाते हैं कि रिज़र्व बैंक का महंगाई दर पर काबू नहीं है. ये इस बात की साफ मिसाल है कि सरकार ब्याज दरें घटाकर विकास दर बढ़ाने पर जोर दे रही है. हालांकि ब्याज दरों और विकास दर के बीच कोई सीधा ताल्लुक अब तक साबित नहीं हो सका है.
पिछले कुछ सालों से लेकर इस साल मार्च तक के आंकड़े इशारा करते हैं कि ब्याज दर और विकास दर के बीच कोई मजबूत ताल्लुक नहीं है. अब जबकि महंगाई दर काबू में लाने की जिम्मेदारी कानून बनाकर एमपीसी यानी मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी को दे दी गई है. इस कमेटी में रिजर्व बैंक के बाहर के तीन सदस्य नामित होते हैं. साफ है कि महंगाई को काबू में लाने के लिए हमेशा रिजर्व बैंक की सलाह पर ही अमल नहीं किया जाता. बल्कि ये काम अब उन विशेषज्ञों के कहने पर होता है, जिन्हें सरकार नियुक्त करती है.
किसी भी मुद्दे पर बहस होना अच्छी बात है. इस से दोनों पक्षों के बीच मुद्दे की समझ बेहतर होती है. ये जरूरी है कि केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता बनाए रखी जाए. अगर कर्ज बांटने के नियमों में ढील देने, कर्ज न लौटाने वालों को रियायतें देने का एलान होगा, तो एनपीए की समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकेगा. इससे तो कर्ज न लौटाने का हौसला बढ़ेगा. जिसके पास सियासी पकड़ होगी, वो कर्ज लौटाने की सोचेगा ही नहीं. अब जबकि किसी न किसी राज्य में हर साल चुनाव होते रहते हैं, तो ऐसे ऐलानों की सियासी जमीन तो हमेशा तैयार रहती है. राजनैतिक फायदे के लिए लोक-लुभावनी घोषणाएं होती रहेंगी. ऐसे माहौल में स्थिरता बनाए रखने के लिए रिजर्व बैंक को आजाद ही रहने दिया जाना चाहिए. इससे वित्तीय व्यवस्था कम से कम बाहरी दबाव में काम करेगी.
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