भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण ही उनकी तमाम समस्याओं की एकमात्र रामबाण दवा नहीं है. बैंकों की समस्याओं को दूर करने के लिए बड़े कर्ज लक्ष्य का बोझ उन पर डालने और बैंक शाखाओं के जरिए सरकारी योजनाओं को आगे बढ़ाने के मामलों में कमी लाई जानी चाहिए.
उन्होंने कहा कि सांविधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) को कम किए जाने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि इसके स्थान पर बासेल के जरिए तय नकदी कवरेज अनुपात और शुद्ध वित्त पोषण अनुपात को लाया जाना चाहिए. पिछले सप्ताह आरबीआई ने जनवरी से प्रत्येक तिमाही में एसएलआर में 0.25 प्रतिशत की कटौती का फैसला किया था. यह कटौती इसके 18 प्रतिशत पर नीचे आने तक जारी रहेगी. वर्तमान में एसएलआर दर 19.5 प्रतिशत पर है. इससे बैंकों के पास अतिरिक्त नकदी उपलब्ध होगी और वह अधिक कर्ज दे सकेंगे.
राजन ने कहा, 'अधिकतर समस्याएं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के साथ हैं लेकिन आईसीआईसीआई और एक्सिस बैंक सहित निजी क्षेत्र के कुछ अन्य पुराने बैंक भी बहुत मजबूत स्थिति में नहीं हैं. संचालन, पारदर्शिता और व्यवस्था में प्रोत्साहन जैसे मुद्दों को बेहतर बनाए जाने की जरूरत है. हालांकि कुछ निजी बैंकों की दिक्कतें इस ओर इशारा करती हैं कि सभी सरकारी बैंकों का निजीकरण ही समस्याओं का एकमात्र समाधान नहीं है.'
आलसी सरकार
राजन ने यहां कहा, 'यह आलसी सरकार है. यदि कोई कार्रवाई करनी जरूरी है तो उसके लिए बजटीय प्रावधान होना चाहिए. यह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के छोटे शेयर धारकों के हितों के खिलाफ भी है. इसमें निजी क्षेत्र को क्यों नहीं प्रतिस्पर्धा के लिए लाया जाता है.' उन्होंने इस बात पर भी चिंता जताई कि सरकारी योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए बैंकों पर काम का बोझ डाला जाता है और इसके लिए उन्हें कोई क्षतिपूर्ति भी नहीं दी जाती है. सबसे खतरनाक मामला सरकारी कर्ज लक्ष्य रखना और अनिवार्य रूप से कर्ज माफी के मामले हैं.
सरकार विभिन्न क्षेत्रों में कर्ज देने के लक्ष्य तय करती है जिन्हें पूरा करने के लिए बैंक कर्ज देने वालों की जरूरी जांच परख भी ठीक से नहीं कर पाते हैं. यह कर्ज बाद में एनपीए का खतरा पैदा करता है.
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