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NPA पर रघुराम राजन का पत्र: लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई

राजन ने कहा है, वर्तमान बैड लोन (एनपीए) संकट के बीज 2006-08 के बीच ही बोए गए थे. तब यूपीए की कार्यप्रणाली ने भारत की बैंकिंग संरचना में एनपीए वृद्धि की. असल में, मोदी ने एक बार एक उपमा का इस्तेमाल किया था, ‘फोन बैंकिंग’

Updated On: Sep 12, 2018 08:25 PM IST

Dinesh Unnikrishnan

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NPA पर रघुराम राजन का पत्र: लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई

मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति को भेजे रघुराम राजन के पत्र पर राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है. इस पत्र में कहा गया है कि बैंकों की बढ़ती एनपीए समस्या को इस तरह से डिजाइन किया गया है, ताकि मूल समस्या से ध्यान हट जाए और सिर्फ निंदात्मक प्रचार को बढ़ावा मिले.

राजनीतिक चश्मे से इतर देखें तो राजन का पत्र स्पष्ट रूप से यूपीए-युग की उन गलतियों को बताता है, जिसने देश में सबसे बड़े बैड लोन (एनपीए) समस्या को जन्म दिया. राजन के शब्दों में ही, ‘बैंक अपने हाथों में चेकबुक लहराते हुए प्रमोटर्स का पीछा करते थे और उनसे चेकबुक में कोई भी राशि भरने की गुहार लगाते थे.’

यही वह समय था, जब यह समस्या धीरे-धीरे एक स्वीकार्य प्रणालीगत बीमारी के तौर पर विकसित होती चली गई. किसी ने भी (नियामक समेत) लंबे समय तक इस पर सवाल करने की हिम्मत नहीं की. पेशेवर उत्तरदायित्व की अवधारणा हास्यास्पद स्थिति में पहुंच गई. अंत में, यह समस्या खुद बैंकों के लिए ही एक बुरा सपना साबित हुआ.

तथ्यों को देखते हुए, यह विडंबना ही है कि कॉर्पोरेट ऋण धोखाधड़ी और एनपीए समस्या के लिए कांग्रेस आज मोदी को दोषी ठहरा रही है. क्योंकि यह सब यूपीए 1 और 2 के दौरान घटी घटनाएं है. कथित धोखाधड़ी करने वालों को तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने अपने आशीर्वाद के साथ दिल से स्वागत किया था. चाहे वह विजय माल्या हो, नीरव मोदी हो, मेहुल चोकसी हो या फिर और कोई नाम. इनमें से किसी को भी अभी तक पकड़ कर सलाखों के पीछे नहीं भेजा जा सका है. मोदी के आने के बाद भी ऐसा नहीं हो सका है. लेकिन यह कह कर कांग्रेस अपनी गलतियों से पल्ला नहीं झाड़ सकती, क्योंकि यह मुद्दा कांग्रेस की ही देन है.

फोन बैंकिंग युग

जैसा कि राजन ने कहा है, वर्तमान बैड लोन (एनपीए) संकट के बीज 2006-08 के बीच ही बोए गए थे. तब यूपीए की कार्यप्रणाली ने भारत की बैंकिंग संरचना में एनपीए वृद्धि की. असल में, मोदी ने एक बार एक उपमा का इस्तेमाल किया था, ‘फोन बैंकिंग’. एनपीए के सन्दर्भ में, यूपीए युग की व्याख्या करने के लिए यह उपमा काफी काम आती है. उन दिनों बैंकों के लिए नॉर्थ ब्लॉक या अन्य छोटे-बड़े नेताओं के सहयोगियों की तरफ से फोन कॉल आना असामान्य नहीं था. ऐसे फोन कॉल के जरिए बैंकों को एक विशिष्ट प्रमोटर या समूह को ऋण देने के लिए निर्देश दिए जाते थे. बैंकों की 70 फीसदी संपत्ति सरकारी नियंत्रण के तहत थी. ऐसे में यूपीए 1 और 2 के दौरान, बैंकिंग प्रणाली अनौपचारिक आधिकारिक निर्देशों का पालन करते थे. यानी, फोन कॉल पर ही बैंक लोन दे देते थे.

New Delhi:  Former Congress president Sonia Gandhi, former Prime Minister Manmohan Singh and Congress President Rahul Gandhi during 'Bharat Bandh' protest called by Congress and other parties against fuel price hike and depreciation of the rupee, in New Delhi, Monday, Sept 10, 2018. (PTI Photo/Manvender Vashist)(PTI9_10_2018_000138B)

इस बीमारी की शुरुआत और इसका एक विकराल समस्या के रूप में तब्दील हो जाना, सबकुछ कांग्रेस सरकार की देखरेख में हुआ. इस समस्या का समाधान निकाला जा सकता था, लेकिन किसी ने कोई कार्रवाई नहीं की. क्योंकि सरकार द्वारा संचालित बैंक राजनेताओं के लिए पिग्गी बैंक माने जाते थे. कुछ बैंकरों को रिश्वत तक मिले. यहां तक कि कभी-कभी घड़ी या सोने के आभूषण जैसे छोटे रिश्वत भी, जबकि अन्य को सेवानिवृत्ति के बाद दिए जाने वाले फायदे के वादे भी मिले.

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असल में, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकरों के लिए अयोग्य उधारकर्ताओं के लिए अपने दरवाजे खोलने के लिए किसी राजनीतिक झुकाव या दबाव की भी जरूरत नहीं थी. वे वैसे भी इस काम के लिए तैयार थे. जैसा कि राजन ने कहा है कि उच्च आर्थिक विकास वाले चरण ने छुपे हुए भविष्य जोखिमों के बारे में अधिकतर बैंकरों को अन्धा बना दिया था. उन्होंने लोन देते वक्त केवल कंपनियों के पिछले प्रदर्शन को देखा और भविष्य में भी बेहतर प्रदर्शन की ही उम्मीद रखी.

उन्होंने उम्मीद की कि दो अंकों वाला आर्थिक विकास जारी रहने वाला है और ऋण चुकाने के लिए पर्याप्त कैश फ्लो बना रहेगा. कई मामलों में, अधिकांश बैंकरों ने लोन स्वीकृत करते समय केवल नामों को देखा. जैसे, विजय माल्या एक बड़ा उदाहरण है. मुझे याद है. किंगफिशर ऋण धोखाधड़ी की जब खबर आई थी, तब एसबीआई के साथ कर चुके एक बैंकर ने मुझसे कहा था,’माल्या जैसे व्यक्ति को आखिर कौन ‘ना’ कह सकता था?’

याद रखें, यह सबकुछ तब हुआ जब एयरलाइन व्यवसाय के बारे में थोड़ा-बहुत जानने वाले को भी यह पता था कि किंगफिशर का कोई भविष्य नहीं है और इसकी वित्तीय हालत खराब है.

Vijay Mallya arrives to attend 'Magistrates Court in London,

बैंकर, ब्लैंक चेक और प्रमोटर

बैंकरों ने जमानत सूची में 'मित्रता' और 'ब्रांड नेम' को भी जगह दी. माल्या की निजी गारंटी कुछ हजार करोड़ का लोन देने के लिए पर्याप्त थी. इसके अलावा, सरकार के समक्ष बड़ा लोन बुक दिखाने के लिए बैंकरों के बीच अंधी प्रतिस्पर्धा थी. प्रमुख समाचार पत्रों के मास्टहेड पर कुल व्यावसायिक आंकड़े दिखाना तब बैंकों के लिए एक आम बात थी (हालांकि इससे बैंक व्यापार की गुणवत्ता का कोई संकेत नहीं मिलता था, बल्कि एक आकर्षक आंकड़ा दिखाने की कोशिश भारत होती थी). प्र

त्येक बैंकर कॉर्पोरेट ऋण का एक बड़ा हिस्सा चाहता था. उधार देने के गोल्डन रूल्स को पीछे कर दिया गया और वर्षों तक लोन देने के लिए आवश्यक समझदारी को ताक पर रख दिया गया. इस सबका प्रमाण एक प्रमोटर की उन बातों से मिलता है, जो उसने राजन से कही थी. उस प्रमोटर ने कहा था कि कैसे बैंकर ब्लैंक चेक ले कर उनका पीछा कर रहे थे. पहले कांग्रेस ने इस तरह की गंभीर चूक की अनुमति दी और बैंकिंग एनपीए संकट को बढ़ने दिया. अब कांग्रेस-यूपीए द्वारा इसका दोष मोदी पर मढ़ना विडंबनापूर्ण नहीं तो और क्या है.

बैड लोन मतलब बैड लोन

इससे भी हास्यास्पद यह है कि कांग्रेस एनपीए में तीव्र बढ़ोत्तरी के लिए मोदी शासन को जिम्मेदार बता रही है. एनपीए समस्या पर गलतफहमी फैलाने या भ्रमित रणनीति का यह एक और गंभीर मामला है. एनपीए तेजी से इसलिए बढ़ी क्योंकि एक आलसी और गैर जिम्मेदार बैंकिंग प्रणाली के एक दशक बाद, बैंकों ने एनपीए की समस्या को एक समस्या माना और बैड लोन को बैड लोन कहना और मानना शुरू किया. अपने जख्म को छुपाने के लिए एक अच्छा पोशाक पहन लेने से आप स्वस्थ नहीं बन जाएंगे.

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मोदी सरकार के समर्थन से और आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन के साथ मिल कर बैंकों ने समस्या समाधान की दिशा में काम करना शुरू किया. 2014-15 में तनावग्रस्त परिसंपत्तियों की शुरुआती पहचान पर एक पेपर पेश किया गया. बैंकों के लिए एनपीए घोषित करने के लिए समयसीमा तय की गई और इस तरह बैड लोन की सफाई प्रक्रिया शुरू हुई. बेशक, ये कदम चौंकाने वाले थे. यह एक गंभीर किस्म की सर्जरी थी. लेकिन यह बुरी तरह बीमार बैंकिंग प्रणाली के लिए बहुत जरूरी था. इन वजहों से ही एनपीए में अचानक बढ़ोतरी दिखाई देने लगी. लेकिन, अर्थव्यवस्था के लिए सफाई का यह काम कभी न कभी तो होना ही था. इसलिए, राहुल गांधी और पी चिदंबरम द्वारा एनपीए बढ़ोतरी के लिए मोदी को दोषी ठहराना अतार्किक और अजीब है.

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असल में, मोदी शासन के दौरान ही दिवालियापन कानून बना और कॉर्पोरेट ऋण धोखाधड़ी एक केंद्रीय मुद्दा बना. यह सब इसलिए हुआ, ताकि बैंकिंग सेक्टर की दीर्घकालिक बीमारी को ठीक किया जा सके. मौजूदा सरकार ने समस्या को छिपाने और एक विशिष्ट नौकरशाही रवैया नहीं अपनाया बल्कि समस्या का दृढ़ता से सामना किया. बैड लोन वसूली और तनावग्रस्त संपत्तियों की पहचान के लिए तेज प्रयास किए गए. कॉर्पोरेट ऋण का प्रबंधन सरकारी आदेशों के जरिए नहीं हो सकता था. ये काम बैंक द्वारा जांच, अदालतों और आईबीसी अदालतों के माध्यम से ही किया जा सकता था.

एनपीए पर संसदीय समिति को राजन द्वारा भेजा गया पत्र असल में यूपीए-युग के बैड लोन निर्माण कार्यक्रम का एक निंदा पत्र है. दूसरी तरफ, एनपीए समस्या के लिए मोदी को दोषी ठहराना, कांग्रेस पार्टी द्वारा फैलाया जा रहा भ्रम और अतार्किक बयानबाजी भर है. राजन का पत्र देश की आंख खोलने वाला एक उपकरण है. यह पत्र बताता है कि कैसे देश की अर्थव्यवस्था को सबसे बुरे ऋण संकट में धकेल दिया गया था और यह भी कि कैसे इस गलती को दोहराने से रोका जा सकता है.

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