पुरानी कहावत है कि रोम एक दिन में नहीं बना था. अब जबकि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूती से पटरी पर लौट रही है, तो ये सही वक़्त है जब हम उस दौर पर फिर से नज़र डालें, जब मोदी सरकार को यूपीए से तोहफ़े में कैसी अर्थव्यवस्था मिली थी. एनडीए को पूर्ववर्ती सरकार से विरासत में जो अर्थव्यवस्था मिली, उसमें कौन सी संरचनात्मक चुनौतियां थीं. इस बात के मूल्यांकन के बगैर हम आर्थिक क्षेत्र में एनडीए की उपलब्धियों को सही तरीक़े से नहीं समझ पाएंगे. और अगर ऐसा नहीं हुआ, तो हम भारत के आर्थिक विकास को दोबारा पटरी पर लाने में एनडीए सरकार के मूल्यवान योगदान की तारीफ़ करने में कोताही करेंगे.
किसी भी सरकार की उपलब्धियों की समीक्षा करते वक़्त और ख़ास तौर से अर्थव्यवस्था की तरक़्क़ी को लेकर हम उसकी तुलना पहले की सरकार की उपलब्धियों से करते हैं. इस मामले की समीक्षा करते वक़्त हमें याद रखना होगा कि जाते-जाते यूपीए सरकार, बीजेपी को लुटी-पिटी और बदहाल अर्थव्यवस्था सौंप कर गई थी.
मोदी को आर्थिक चुनौतियों के ऐसे भंवरजाल से पार पाने के लिए अपनी सियासी पूंजी को दांव पर लगाना पड़ा, ताकि वो अर्थव्यवस्था के बुनियादी स्वरूप में बदलाव कर सकें. इन सुधारों की वजह से कुछ वक़्त के लिए देश को तकलीफ़ें भी उठानी पड़ीं. अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के इस होड़ में मोदी के सियासी तौर पर हाथ भी जले और उनकी राजनैतिक पूंजी को भी चोट पहुंची. साथ ही इन सुधारों के चलते जो अस्थाई कमज़ोरी आई, उसने विपक्ष को मोदी पर हमले का एक और बहाना भी दे दिया.
ये विकास की वो दर है, जो बैड लोन्स यानी अनाप-शनाप कर्ज़ बांटकर नहीं हासिल की गई
लेकिन, हमें इस बात के लिए प्रधानमंत्री की तारीफ़ करनी चाहिए कि विरोध और चुनौतियों के बावजूद वो विकास के पथ पर अडिग रहे. 2018-19 के वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी की 8.2 फ़ीसद की विकास दर अहम है. साथ ही हमें ये भी याद रखना होगा कि ये विकास दर देश ने अर्थव्यवस्था की अंतरराष्ट्रीय और अंदरूनी चुनौतियों के बावजूद हासिल की है.
last five quarterly GDP growth trend (%) 5.6, 6.3, 7.0, 7.7, 8.2. impressive upward trend. difficult to sustain in remaining part of this year. pic.twitter.com/susVWw3FiU
— Ajit Ranade (@ajit_ranade) August 31, 2018
आज विकास दर में जो ये तेज़ी दिख रही है, उसके लिए सरकार ने बुनियादी सुधारों के ज़रिए देश की अर्थव्यवस्था में संगठित बदलाव ला कर, एनपीए के दलदल को साफ़ कर के, पूंजीपतियों को अनुचित लाभ देने के चलन को ख़त्म कर के और बैंकिंग सिस्टम की सफ़ाई के लिए रिज़र्व बैंक को खुले हाथ देकर, वित्तीय सिस्टम को साफ़ सुथरा बनाया है. अर्थव्यवस्था में इन संरचनात्मक सुधारों का नतीजा ये है कि आज देश विकास के उस दौर में प्रवेश कर चुका है, जो साफ़-सुथरा है. ये विकास की वो दर है, जो बैड लोन्स यानी अनाप-शनाप कर्ज़ बांटकर नहीं हासिल की गई है. इन बातों की अहमियत से हम इनकार नहीं कर सकते.
विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे बेईमान कर्जदारों के देश छोड़कर भागने को लेकर एनडीए सरकार पर बहुत हमले हुए. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पूंजीपतियों के देश लूटकर विदेश भागने को लेकर पीएम मोदी पर हमला करने का कोई भी मौक़ा नहीं गंवाया. शायद राहुल गांधी इस बात से अनजान हैं कि उनके आरोपों से मोदी नहीं, मनमोहन सिंह की सरकार कठघरे में खड़ी होती है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी सरकार को इन बेईमानों को देश छोड़ने से पहले गिरफ़्तार कर लेना चाहिए था. ये नाकामी एनडीए सरकार की है. लेकिन, ये भी याद रखना होगा कि इन भ्रष्ट पूंजीपतियों ने यूपीए सरकार के राज में ही बैंकों को खुलेआम चूना लगाया और उन पर ख़राब कर्ज़ का बोझ बढ़ाया.
यूपीए के राज में एनपीए का संकट कितना बड़ा था ? इस ने अर्थव्यवस्था को कितना नुक़सान पहुंचाया ?
फर्स्टपोस्ट में 2016 के एक लेख में दिनेश उन्नीकृष्णन और किशोर कदम ने लिखा था कि, 'सितंबर 2008 में भारतीय बैंकों का एनपीए 53 हज़ार 917 करोड़ था, जो सितंबर 2015 तक आते-आते 3 लाख, 41 हज़ार 641 करोड़ पहुंच गया.' दूसरे शब्दों में कहें तो, बैंकों की कुल पूंजी में एनपीए की हिस्सेदारी 2.11 फ़ीसद से बढ़कर 5.08 प्रतिशत पहुंच गई.
इंडियन एक्सप्रेस की तरफ़ से दाखिल एक आरटीआई के जवाब में 'रिजर्व बैंक ने बताया था कि, मार्च 2012 में ख़त्म हुए वित्तीय वर्ष में ख़राब क़र्ज़ की रक़म थी 15 हज़ार 551 करोड़. लेकिन मार्च 2015 के आते-आते ये रक़म बढ़ कर 52 हज़ार 542 करोड़ पहुंच चुकी थी.' रिज़र्व बैंक के हवाले से छापी गई इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया था कि ' 2013 से 2015 के वित्तीय वर्ष के बीच 29 सरकारी बैंकों ने क़रीब 1 लाख 14 हज़ार करोड़ के क़र्ज़ अपने खातों से हटा दिए. ये वो बैड लोन थे, जिन्हें वापस नहीं किया गया.' ये रक़म पिछले 9 सालों में बैंकों के घोषित किए गए बैड लोन से ज़्यादा थी.
गोल्ड स्टैंडर्ड में अपने ब्लॉग में सिंगापुर के विश्लेषक वी अनंत नागेश्वरन ने लिखा है कि, 'जब मौजूदा सरकार ने काम संभाला तो देश की अर्थव्यवस्था मरणासन्न पर थी. नई सरकार के लिए अर्थव्यवस्था में जान फूंकना बहुत बड़ी चुनौती रही है. इस अर्थव्यवस्था को डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकार ने कोमा में लाकर छोड़ दिया था...आज भारत की अर्थव्यवस्था इतनी कमज़ोर है, तो इसकी ज़ड़ में यूपीए की गलतियां और नाकामियां हैं. बैंकों पर आज जो एनपीए का बोझ है वो यूपीए सरकार की विरासत है. ये मनमोहन सरकार की उन ग़लतियों में से एक है, जिससे भारत बच सकता था.'
इससे एक बात साफ़ है कि मोदी के इन आरोपों में तो दम है कि बैंकों का मौजूदा एनपीए यूपीए सरकार की ज़हरीली विरासत है. ये ऐसा घोटाला है, जो कॉमनवेल्थ, 2जी और कोयला घोटालों को मिला भी दें, तो उससे भी बड़ा है.
प्रधानमंत्री लगातार ये मुद्दा उठाते रहे हैं. उन्होंने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के जवाब में चर्चा के दौरान ये बात कही थी कि कांग्रेस ने एनपीए को लेकर झूठ बोला था. बैंकों ने जितनी रक़म एडवांस क़र्ज़ में बांटी थी, एनपीए असल में उसका 82 फ़ीसद थे, न कि 32 प्रतिशत जैसा कि कांग्रेस ने दावा किया था. बैंकों ने ऐसी एडवांस रक़म के तौर पर 18 लाख करोड़ नहीं बल्कि 52 लाख करोड़ रुपए क़र्ज़ में बांटे थे.
शनिवार को प्रधानमंत्री मोदी ने बैंकिंग सिस्टम को हर नागरिक के दरवाज़े तक पहुंचाने के लिए पोस्ट पेमेंट बैंक की शुरुआत की. इसमें डाक विभाग के 1.55 लाख दफ़्तरों और 3 लाख डाकियों के नेटवर्क का इस्तेमाल होगा. इस मौक़े पर प्रधानमंत्री ने दावा किया कि, 'कांग्रेस ने देश की अर्थव्यव्था को बारूद पर रख दिया था. उन्होंने बताया कि आज़ादी के बाद से 2008 तक बैंकों ने जो कर्ज बांटा वो 18 लाख करोड़ था. यूपीए सरकार के दौरान बैंकों ने 2008 से 2014 के बीच 52 लाख करोड़ के कर्ज बांट दिए.'
प्रधानमंत्री ने कहा कि 'यूपीए सरकार के दौरान फोन बैंकिंग घोटाले ने बैंकों पर ऐसे कर्ज का बोझ बढ़ा दिया, जिनकी वापसी नहीं होनी थी. लेकिन पीएम ने कहा कि नामदारों के कहने पर बैंकों ने ये जो कर्ज बांटा है, वो इसकी एक-एक पाई वापस लाएंगे.'
'जब एक फ़ोन कॉल की मदद से लोगों को क़र्ज़ मिल जाते देते थे'
मोदी ने कहा कि, 'फ़ोन बैंकिंग बहुत लोकप्रिय नहीं थी. लेकिन नामदार फ़ोन पर बैंकिंग करते थे और एक फ़ोन कॉल की मदद से लोगों को क़र्ज़ दिला देते थे. जो भी पूंजीपति-उद्योगपति क़र्ज़ चाहता था, उसके लिए नामदार को बैंकों को बस एक फ़ोन करना होता था...हमारी सरकार ने बैंकों को लोगों के दरवाज़े तक पहुंचाया है. वरना, पांच साल पहले ऐसा माहौल बना दिया गया था, जिसमे बैंकों का पैसा एक ख़ास परिवार के क़रीबी लोगों को ही मिलता था.'
अमेरिकी के टेक्सस राज्य स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ डलास के सुमित मजूमदार ने अपने पेपर, कंसंट्रेशन, कॉल्यूज़न ऐंड करप्शन इन इंडिया में भारत में खराब कर्ज के संकट की जड़ तलाशने की कोशिश की है. उन्होंने इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में लिखा कि जिन एनपीए को भारत के बैंको के खाते से मिटाया जा रहा है, उनका बोझ भारत की अर्थव्यवस्था ज्यादा दिनों तक नहीं उठा सकती. उन्होंने इसे मैक्रोइकोनॉमिक क्राइसिस बताया है. मजूमदार कहते हैं कि 1.5 खरब डॉलर वाली भारतीय अर्थव्यवस्था पर न वसूले जा सकने वाले कर्ज का बोझ 12 फ़ीसद है. मजूमदार के मुताबिक कर्ज का इतना बड़ा ढेर लगने के पीछे साठ-गांठ बड़ी वजह रही है.
मजूमदार लिखते हैं, 'बैंकों के अधिकारियों, इन्हें नियुक्त करने वाली सरकार और बैंकों से बड़े कर्ज लेने वाले औद्योगिक घरानों के बीच जरूर कुछ लेन-देन हुआ होगा. बैंकों में कुछ खास सीनियर अधिकारियों की नियुक्ति में बड़े पूंजीपति घराने मदद करेंगे. इसके एवज में ये बैंक अधिकारी ऐसे लोगों को बड़े-बड़े कर्ज देंगे, जो इसके लायक़ नहीं हैं. ये कर्ज सरकार की पूरी जानकारी में दिए जाएंगे कि आगे चल कर ये कर्ज बैड लोन में तब्दील हो जाएंगे.'
तो, भले ही राहुल गांधी, मोदी सरकार पर 'पूंजीपतियों की सरकार' होने का आरोप लगाएं, असल में तो ये आरोप कांग्रेस सरकार पर लगना चाहिए. अपनी गलतियों, अनदेखी और साझेदारी की वजह से यूपीए ने भारतीय अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई है. हम ये कह सकते हैं कि यूपीए सरकार के दौरान कर्ज लेकर मौज करने वाले तब भागने को मजबूर हो गए, जब एनडीए सरकार के आने के बाद 'टेलीफोन बैंकिंग' से और कर्ज मिलना नामुमकिन हो गया.
सच ये है कि यूपीए की छोड़ी ऐसे कर्ज के बोझ से दबी अर्थव्यवस्था को मुक्त कराना मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि है. उन्हें इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने मज़बूत इच्छाशक्ति से ऐसे बड़े कर्जदार पूंजीपतियों का पीछा किया.
उद्योगों को घटिया ढंग से चलाने वाले ताकतवर लोगों के खिलाफ हो रही कार्रवाई
विश्व बैंक के पूर्व सलाहकार और टाइम्स ऑफ इंडिया में कॉलम लिखने वाले स्वामीनाथ अय्यर ने लिखा कि, 'मोदी का सबसे बड़ा सुधार आईबीसी (Insolvency and Bankruptcy Code) रहा है. इसने बड़े कर्ज लेकर न चुकाने वाली कंपनियों से उनके मालिकों के निकलने का रास्ता खुला है. ऐसा पहली बार हुआ है कि देश के बड़े उद्योगपति, भारत की बड़ी कंपनियों पर से मालिकाना हक़ खो रहे हैं. वो कंपनियां जिन्हें इन उद्योगपतियों ने बहुत ख़राब तरीक़े से चलाया. एस्सार को एस्सार ऑयल बेचना पड़ा और एस्सार स्टील पर से उसका कब्जा छूटा. जेपी को अपने कारखाने बेचने पड़े. एक दर्जन से ज्यादा बड़े कर्जदारों की संपत्तियां या तो नीलाम हो रही हैं, या बंद की जा रही हैं. सैकड़ों ऐसी कंपनियां कतार में हैं...आखिर में ये पूंजीपतियों से साठ-गांठ के खिलाफ कार्रवाई हो रही है. अमीर और ताकतवर लोग बड़े उद्योगों से हटाए जा रहे हैं, जिन्होंने उन उद्योगों को घटिया ढंग से चलाया.'
द इकोनॉमिस्ट ने सही ही लिखा है कि ये भारतीय पूंजीवाद के किरदार में आ रहे बदलाव के संकेत हैं. लंदन स्थित अखबार ने लिखा कि, 'कई दशकों से भारतीय उद्योगपतियों के लिए कामयाबी का ज़रिया नेताओं से निजी संबंध था.' अख़बार आगे लिखता है कि, 'मौजदा सिस्टम इसलिए ख़तरे में है क्योंकि बड़े कारोबारियों ने दिल्ली में अपना प्रभाव खो दिया है. क्योंकि मोदी और उनसे नीचे के नेता अब समझने लगे हैं कि ऐसे भ्रष्ट उद्योगपतियों के साथ दिखना कितना नुक़सानदेह है. इससे संकेत जाता है कि नेताओं और इन 'बॉलीगार्च' यानी बड़े पूंजीपतियों के बीच गठजोड़ है. आज भारत के कुछ बहुत बड़े उद्योगपति शिकायत करते हैं कि आज वो पीएम से मिलने नहीं पाते हैं क्योंकि वो विदेशी पूंजीपतियों को ही लुभाने को तरजीह देते हैं. पारदर्शिता बढ़ाने के लिए आज कई सरकारी संपत्तियों की ऑनलाइन नीलामी हो रही है.'
आज भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 8.2 फ़ीसद है, तो इसके आगे बड़ी चुनौती तरक़्क़ी की इस रफ़्तार को बनाए रखने की है. ये ख़ुशी की बात है कि आज मैन्युफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन और कृषि की विकास दर ने इस तरक़्क़ी में भरपूर योगदान दिया है. ये इस बात का संकेत है कि नोटबंदी और जीएसटी लागू करने से विकास दर को लगे झटकों का असर ख़त्म हो रहा है. और जैसा कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अप्रैल में ही भविष्यवाणी की थी कि, 'हाथी दौड़ने को तैयार है.'
नोटबंदी और जीएसटी से असंगठित अर्थव्यवस्था को करारा झटका लगा है
अर्थव्यवस्था के इस तरह पटरी पर लौटने की भविष्यवाणी कई ऐसे जानकारों ने की थी, जिनका किसी ख़ास राजनैतिक विचारधारा की तरफ़ झुकाव नहीं है और जो निष्पक्ष राय रखते हैं.
सितंबर 2017 में जब नोटबंदी और जीएसटी के दोहरे झटकों ने देश की अर्थव्यवस्था को हिला कर रख दिया था. तब विपक्ष और मीडिया के एक तबक़े ने मोदी को अर्थव्यवस्था को तबाह करने और भ्रष्ट पूंजीपतियों को बढ़ावा देने के आरोप लगाए थे. तब जेपी मोर्गन के मुख्य अर्थशास्त्री साजिद शेनॉय ने कहा था कि, 'नोटबंदी और जीएसटी का मक़सद अर्थव्यवस्था को साफ़-सुथरा बनाना है. ये इसलिए ज़रूरी है कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा धार और रफ़्तार में ख़लल डाला जाए, जो असंगठित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देते हैं. उम्मीद ये है कि आख़िरकार अर्थव्यवस्था की घरेलू सप्लाई चेन संगठित क्षेत्र के दायरे में आएगी. इस दौरान विकास में बाधा आनी तय है. इसकी भरपाई आयात से पूरी हो रही है. कुल मिलाकर नोटबंदी और जीएसटी से असंगठित अर्थव्यवस्था को करारा झटका लगा है.'
ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था में उठापटक का वो दौर अब ख़ात्मे की ओर है. मोदी ने न सिर्फ़ अर्थव्यवस्था को दोबारा तरक़्क़ी की तेज़ रफ़्तार दी है, बल्कि यूपीए सरकार के दौरान इसकी सेहत को पहुंचे नुक़सान को भी दुरुस्त किया है.
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