मोदी सरकार वैकल्पिक ईंधन के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के बड़े प्रयास कर रही है. इन प्रयासों की गंभीरता का इजहार करते हुए सरकार ने धान के पुआल आदि से बनने वाले जैव-इथेनॉल (लिग्नो-सेल्यूलोजिक) के उपयोग में निवेश को गति देने के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार किया है. लिग्नो-सेल्युलोजिक इथेनॉल गन्ने की पेराई से निकलने वाले राब से बनाए जाने वाले परंपरागत किस्म के इथेनॉल से अलग तरीके से तैयार किया जाएगा.
इस नई तकनीक के इस्तेमाल का लक्ष्य 2030 तक एक ऐसी स्थिति को हासिल करना है जब पेट्रोल में 20 प्रतिशत तक इथेनॉल मिलाया जा सके. पेट्रोलियम मंत्रालय ने अपने एक मसौदे में कहा है कि 5000 करोड़ रुपए के बजट के भीतर नए किस्म के इथेनॉल के सालाना 1 अरब लीटर उत्पादन का लक्ष्य पूरा कर लिया जाएगा.
भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने भी हाल में कहा था कि जैव-इथेनॉल के उत्पादन के लिए गांवों में 1500 औद्योगिक इकाइयां खड़ी करने की जरुरत है और इससे 25 लाख गांववासियों को रोजगार मिलेगा.
ईंधन में इथेनॉल का मिलाया जाना भारत में शुरू हो चुका है लेकिन अभी मिश्रण की मात्रा कम है. राज्यों की मिल्कियत में चलने वाले रिफाइनर भी इथेनॉल उत्पादन के संयंत्र स्थापित करने की प्रक्रिया में हैं.
मिथेन को भी दिया जा रहा है बढ़ावा
वैकल्पिक ईंधन की एक और प्रौद्योगिकी कोयले और बायोमॉस से मिथेन के उत्पादन से जुड़ी है और इस प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल पर भी जोर दिया जा रहा है. चीन को ईंधन में 15-20 प्रतिशत मिथेन मिलाने में कामयाबी मिली है. अमेरिका में हर साल 10 लाख गैलन मिथेन गैसोलिन में मिलाया जाता है. इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए कोल इंडिया जल्दी ही पश्चिम बंगाल में मिथेन उत्पादन के संयंत्र लगाने जा रहा है.
मिथेनॉल में वे सारे गुण हैं जो इथेनॉल मे होते हैं लेकिन मिथेनॉल की आपूर्ति में वैसी कोई बाधा नहीं है जैसा कि इथेनॉल में. इथेनॉल का उत्पादन चूंकि धान-गेहूं जैसी फसलों पर आधारित है सो उसकी पूर्ति सीमित रहती है. मिथेन स्वच्छ ईंधन है, इसकी लौ से तेज आंच निकलती है और 1965 से 2008 के बीच दुनिया भर में सभी किस्म के ऑटोमोबाइल में इसके उपयोग की हिदायत की जाती थी.
पेट्रोलियम मंत्रालय के नीति-नियंता इस बात को भलीभांति समझते हैं कि मिथेनॉल किसी भी तरह के बॉयोमॉस से बनाया जा सकता है. नगरपालिका के जरिए इक्ट्ठा किए जाने वाले ठोस कचरे से भी इसका उत्पादन किया जा सकता है और भारत में ठोस कचरा विशाल मात्रा में एकत्र होता है.
वाहनों के जरिए होने वाले प्रदूषण में कमी के लिहाज से मिथेन बहुत काम की चीज साबित हो सकता है क्योंकि इसमें 35 प्रतिशत ऑक्सीजन होता है और यह ऑक्सीजन ईंधन के जलने में मददगार साबित होता है. इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि मिथेनॉल के इस्तेमाल से पार्टिकुलेट मैटर (पीएम सूक्ष्म कण) के उत्सर्जन में कमी आती है. भारत में पीएम सूक्ष्म कण सेहत के लिए भारी खतरा बनकर उभरा है.
मिथेनॉल से घटेगी पेट्रोल-डीजल पर निर्भरता
कच्चे तेल के शोधन के जरिए बनाए जाने वाले ईंधन की तुलना में वैकल्पिक ईंधन का उत्पादन एक तो लागत हिसाब से सस्ता है, दूसरे इसके इस्तेमाल के लिए किसी ऑटोमोबाइल के इंजन या देश के ऊर्जा संबंधित बुनियादी ढांचे में बदलाव की जरूरत नहीं है.
नीति आयोग के सदस्य और मिथेनॉल समिति के अध्यक्ष वी के सारस्वत का मानना है कि पेट्रोलियम आयात पर भारत की निर्भरता को कम करने की दिशा में मिथेनॉल बहुत मददगार साबित होगा और इसके उपयोग से ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक तापन) से पैदा हो रही समस्याओं में भी कमी लाई जा सकेगी.
सारस्वत यह भी मानते हैं कि गांवों में लोग गाय-भैंस के गोबर का इस्तेमाल करते हैं सो उन्हें मिथेन गैस से जलने वाली स्टोव दी जा सकती है और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का एक प्रस्ताव यह है कि देश के भीतर जलीय परिवहन-मार्गों पर आवागमन के लिए ईंधन के रूप में मिथेनॉल का इस्तेमाल किया जाए.
नितिन गडकरी के मुताबिक वैकल्पिक ईंधन का उद्योग 1 हजार अरब रुपए का हो सकता है क्योंकि अमेरिका और चीन के बाद भारत सबसे ज्यादा मात्रा में ऊर्जा का उपभोग करने वाला देश है.
इलेक्ट्रिक वाहनों के आयात पर कम हो टैक्स
मोदी सरकार का संकल्प है कि ऑटोमोबाइल उद्योग से संबंधित कारोबार साल 2030 इलेक्ट्रिक गाड़ियों का रूप ले ले. पर्यावरण के लिहाज से ज्यादा सुरक्षित विकल्पों की ओर मुड़ने की बात कहते हुए नितिन गडकरी ने इस पहलू पर भी जोर दिया था.
भारत में नार्वे के राजदूत निल्स रेग्नर कम्स्वेग का मानना है कि ऐसा बिल्कुल किया जा सकता है. उन्होंने अपने देश के उदाहरण के सहारे बताया कि आज नार्वे में बिकने वाली हर तीसरी कार इलेक्ट्रिक कार है. उन्होंने यह भी कहा कि नार्वे में एमएस एम्पीयर नाम की एक बिजली से चलने वाली नौवहन-सेवा का इस्तेमाल हो रहा. यह विश्व की पहली बैट्री-चालित नौवहन सेवा है और इसके सहारे नार्वेजियन फोर्ड (झील) एक सिरे से से दूसरे सिरे तक लोगों का आना-जाना होता है.
कम्स्वेग के मुताबिक छह किलोमीटर लंबे नोर्वेजियन फोर्ड को पार करने में तकरीबन 400 रुपए का खर्चा आता है और इलेक्ट्रिक नौवहन सेवा के जरिए के बार में 320 यात्रियों और 120 कार को एक साथ पार ले जाना मुमकिन हो रहा है.
अगर नार्वे के मॉल को आधार मानें तो इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए आगे का रास्ता यह निकलता है कि उन पर टैक्स में छूट दी जाए और कंबशन इंजन कारों (प्रज्ज्वल चालित कार) पर टैक्स बढ़ाया जाए. नार्वे में प्राथमिकता का एक क्षेत्र 8755 चार्जिंग स्टेशंस बनाने का रहा. वहां 21 इलेक्ट्रिक अथवा हायब्रिड किस्म की कारों पर एक चार्जिंग स्टेशन मौजूद है.
ऑटोमोबाइल एक्सपर्ट मुराद अली बेग ने भी लगभग यही बात कही कि 'फिलहाल इलेक्ट्रिक ह्वीकल बहुत व्यावहारिक नहीं साबित हो रहे क्योंकि अच्छी से अच्छी बैट्री की भी स्टोरेज कैपिसिटी कम है. सरकार आयातित इलेक्ट्रिक वाहनों और उनकी बैट्री दोनों पर ऊंचे टैक्स लगाती है. अगर सरकार बदलाव लाना चाहती है तो उसे सुनिश्चित करना होगा कि इलेक्ट्रिक वाहनों पर जीएसटी ना लगे.'
मुराद अली बेग ने यह भी कहा कि 'लंदन में इलेक्ट्रिक वाहनों को नगर के केंद्रीय इलाके में परिवहन की अनुमति है और इसके लिए कोई कंजेशन टैक्स अदा नहीं करना पड़ता.’
बेग ने दिल्ली की गलियों में चलने वाले ई-रिक्शा का उदाहरण देते हुए कहा कि 'ये वाहन मानकीकृत (स्टैंडर्डाइज्ड) बैट्री के सहारे चलते हैं लेकिन ज्यादातर ई-रिक्शा ड्राइवर पुलिसकर्मियों की नजर बचाकर बिजली की चोरी करते हैं.'
इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ एक और मुश्किल है कि इसकी बैट्री बहुत महंगी होती है- 'पश्चिम के मुल्कों में कोई कार खरीदे तो उसे बैट्री लीज की लंबी अवधि के लिए दी जाती है. ऐसा कैलिफोर्निया तक में होता है.'
हाइड्रोजन ईंधन भी है विकल्प
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने एक ऐसे वाहन का डेमो पेश किया है जिसमें ईंधन के रूप में हाइड्रोजन का इस्तेमाल होता है. इसरो को पूर्व अध्यक्ष जी माधवन नायर का कहना है कि हाइड्रोजन के सहारे चलने वाले वाहन आगे के समय के लिए सही साबित होंगे क्योंकि आगे के वक्त में नई पीढ़ी हाइड्रोजन को वैकल्पिक ईंधन के रूप में अपनाएगी.
हाइड्रोजन से चलने वाले वाहनों में हाइड्रोजन संपीड़ित (कंप्रेस्ड) अवस्था में होता है और यह हवा मे मौजूद ऑक्सीजन से मिलकर बिजली उत्पन्न करता है और इस बिजली का इस्तेमाल मोटर को चलाए रखने वाली बैट्री को चार्ज करने के लिए किया जाता है.
बहुत से ऑटोमाबाइल निर्माताओं का मानना है है कि हाइड्रोजन आगे के वक्त में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा. बेग इस बात से सहमत हैं. उनका कहना है कि 'हाइड्रोजन बहुत ताकतवर और कारगर ईंधन है. लेकिन इसकी प्रौद्योगिकी बहुत महंगी है और ईंधन के रुप में इसकी शुरुआत करने के लिए एक विशाल ढांचा खड़ा करने की जरूरत पड़ेगी.'
हालांकि लेखक और पर्यावरणवादी प्रेमशंकर झा के मुताबिक इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ फिलहाल कई मुश्किलें हैं और उनका मानना है कि सरकार को इन मुश्किलों का समाधान निकालना पड़ेगा.
एक मुश्किल तो यही है कि इलेक्ट्रिक वाहनों की बैट्री बहुत भारी होती है. टेस्ला की लीथियम-ऑयन बैट्री 540 किलो वजन की होती है और इसमें 10 किलोग्राम लिथियम होता है. प्रेमशंकर झा का कहना है कि लिथियम की मांग इसकी उपलब्धता की तुलना में ज्यादा है. अमेरिका के जियोलॉजिकल सर्वे ने आगाह किया है कि धरती की परत में मात्र 13.1 मिलियन टन लिथियम मौजूद है जबकि लिथियम की मांग बढ़कर सालाना आधा मिलियन टन हो चली है.
इस कारण प्रेमशंकर झा का कहना है कि शहरी क्षेत्रों में मौजूद ठोस कचरे का इस्तेमाल मिथेनॉल बनाने में होना चाहिए. फिशर-ट्रोप्स संश्लेषण के जरिए बायोमॉस से हासिल कार्बन मोनोऑक्साइड और हाइड्रोजन को ईंधन में बदलने की प्रौद्योगिकी बीते सौ सालों से मौजूद है. अमेरिका में साल 1922 में पहली बार शहरी इलाके के ठोस कचरे से मिथेनॉल बनाने के लिए इस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया गया था.
इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से होगी पैसों की भी बचत
एक तरीका यह भी है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को चलाने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा (रिन्यूएबल एनर्जी) का इस्तेमाल किया जाए. अमेरिका स्थित लॉरेन्स नेशनल लेबोरेट्री का आकलन है कि पवन-ऊर्जा और सौर-ऊर्जा के इस्तेमाल से इलेक्ट्रिक वाहनों के मालिक ईंधन के मद में सालाना 40 हजार रुपए की बचत कर सकते हैं.
बर्कले के अध्ययन का भारत में मौजूद हालात से मिलान करते हुए इक्लीटोरियल्स के मैनेजिंग पार्टनर जय शारदा ने ध्यान दिलाया है कि बर्कले लैब के अध्ययन में यह मानकर चला गया है कि कच्चे तेल की कीमतों में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होगी लेकिन भारत के संदर्भ में ऐसा मानकर नहीं चला जा सकता क्योंकि भारत में 2030 तक सौ-ऊर्जा की संधारित क्षमता 39 गिगा वाट और पवन-ऊर्जा की संधारित क्षमता 58 गिगा वाट तक ही पहुंचेगी.
बहरहाल, साल 2017 कक भारत में सौर-ऊर्जा की संधारित क्षमता 16.6 गिगा वाट और पवन-ऊर्जा की संधारित क्षमता 32.7 गिगा वाट तक पहुंच चुकी है. इससे पता चलता है कि भारत में सौर-ऊर्जा और पवन-ऊर्जा के विकास की दिशा में तेज प्रगति हो रही है.
जय शारदा और उनके सहयोगियों का आकलन है कि भारत अगर 2030 तक 180 गिगा वाट की सौर-ऊर्जा और 110 गिगा वाट की पवन-ऊर्जा की संधारित क्षमता हासिल कर ले इन दोनों स्रोतों से देश में कुल बिजली उत्पादन का 18 फीसदी हिस्सा हासिल किया जा सकेगा. यह बहुत अहम है क्योंकि सोलर फोटोवोल्टिक सिस्टम और पवन-ऊर्जा के जरिए बिजली के उत्पादन में 2030 औसत खर्च कम होता जाएगा.
होगी बिजली की बचत
सौर-ऊर्जा के मामले में बिजली उत्पादन में औसतन 1.71 रुपए की और पवन-ऊर्जा के मामले में औसतन 1.57 रुपए की प्रति इकाई उत्पादन खर्च में कमी आएगी लेकिन इस अवधि में गैर नवीकरणनीय ऊर्जा स्रोतों से बिजली उत्पादन में प्रति इकाई औसत खर्चा 4.57 रुपए बढ़ चुका होगा. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए माना जा सकता है कि भारत में प्रति किलोवाट बिजली उत्पादन का खर्च 5 रुपए का आयेगा.
लागत के इस सीमा पर पहुंच जाने पर इलेक्ट्रिक वाहनों के मालिक इंटरनल कंबशन इंजीन वाले वाहनों की तुलना में ईंधन पर होने वाले खर्च के मद में सालाना 36700 रुपए की बचत कर सकेंगे. इंटरनल कंबशन इंजन वाले वाहन और इलेक्ट्रिक वाहनों पर आने वाले पूंजी लागत में अंतर होता है, इलेक्ट्रिक वाहनों पर पूंजीगत व्यय ज्यादा आता है लेकिन इंधन के मद में होने वाली बचत के कारण माना जा सकता है कि तीन सालों के भीतर इलेक्ट्रिक वाहनों के मालिका बढ़े हुए व्यय की भरपाई कर लेंगे. अगर इलेक्ट्रिक वाहनों में खर्च होने वाली सारी बिजली नवकरणीय ऊर्जा स्रोतों से हासिल की जाए तो ईंधन के मद में 8 प्रतिशत की और बचत होगी और इस दर से सालाना बचत बढ़कर 39,636 रुपए तक पहुंच सकती है.
जय शारदा ने ध्यान दिलाया कि इलेक्ट्रिक वाहनों का चलन अपनाने पर वित्तीय लिहाज से राष्ट्रीय स्तर पर भी गहरे प्रभाव होंगे. इलेक्ट्रिक वाहन का चलन बढने से भारत कच्चे तेल के उपभोग के मद में सालाना 360 मिलियन बैरल की कमी कर सकता है. अगर मानकर चलें कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें ऐतिहासिक रुप से 2.7 प्रतिशत की दर से बढ़ती रहीं और इस रफ्तार से बढ़कर 2030 में प्रति बैरल उनकी कीमत 96 डॉलर की होती है तो फिर भारत इस समय तक कच्चे तेल के मद में होने वाले खर्चे में सालाना 7.8 मिलियन डॉलर की बचत कर रहा होगा. व्यापार के संतुलन तथा राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा दोनों ही लिहाज से यह बचत ऊर्जा-क्षेत्र में आत्म-निर्भरता की स्थिति हासिल करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित होगी.
नीति आयोग इन सभी वैकल्पिक ईंधन स्रोतों के इस्तेमाल की दिशा में संभावनाओं की तलाश कर रहा है.
इंडियन ऑयल कारपोरेशन के अध्यक्ष बी अशोक के मुताबिक देश में हर तरह के ईंधन के इस्तेमाल की संभावनाएं हैं. प्रधानमंत्री ने लक्ष्य निर्धारित किया है कि 2022 तक हाइड्रोकार्बन के निर्यात पर भारत की निर्भरता को 67 फीसद से घटाकर 10 फीसद तक लाना है.
विशेषज्ञों का मानना है कि इथेनॉल पर्यावरण को हो रहे नुकसान को रोकने के एतबार से सबसे ज्यादा कारगर ईंधन है. गैसोलिन में मिलाने पर इसे गैसोहोल कहा जाता है. असल सवाल यह है कि भारत पर्यावरण के लिहाज से फायदेमंद साबित होने वाले इथेनॉल और मिथेनॉल के इस्तेमाल में बढ़ोत्तरी कितनी जल्दी कर पाता है.
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