राहुल गांधी के मिजाज बुलंद हैं. और, क्यों ना हो, आखिर जिस राज्य में विधान-सभा चुनाव होने जा रहे हैं वहां उन्होंने उप-चुनाव में तीन सीटों पर कामयाबी हासिल की है. यह अपने आप में उपलब्धि तो है ही.
फिर, एक बात और हुई- अरुण जेटली ने सरकार का अंतिम बजट पेश किया और उधर सेंसेक्स 840 अंक गोते खा गया. बजट पेश होने के बाद संसद से निकलते वक्त कांग्रेस-अध्यक्ष कुछ देर के लिए मौन रहे (हाथ में कोई ब्रीफिंग मौजूद नहीं थी सो शायद, उन्हें पता नहीं था कि संवाददाताओं से कहा क्या जाय) लेकिन जल्दी ही राहुल गांधी की चुप्पी टूटी:
4 years gone; still promising FARMERS a fair price. 4 years gone; FANCY SCHEMES, with NO matching budgets. 4 years gone; no JOBS for our YOUTH. Thankfully, only 1 more year to go.#Budget2018
— Office of RG (@OfficeOfRG) February 1, 2018
In Parliamentary language, the Sensex just placed a solid 800 point No Confidence Motion against Modi's budget. #BasEkAurSaal
— Office of RG (@OfficeOfRG) February 2, 2018
राहुल गांधी ने अपने दो ट्वीट में बजट को लेकर ताना कसा और सेंसेक्स में आयी गिरावट को ‘अविश्वास-प्रस्ताव’ का नाम दिया. एक हैशटैग भी गढ़ा, संकेत यह निकल रहा था कि नरेन्द्र मोदी का समय अब पूरा हुआ. मध्यवर्ग की नाराजगी को भुनाने की यह एकदम जाहिर सी कोशिश थी. लेकिन कांग्रेस-अध्यक्ष बड़ी बुनियादी किस्म की गलतियां कर रहे हैं. आइए, जरा इसे समझने की कोशिश करते हैं.
अगर सेंसेक्स में आयी गिरावट को अविश्वास-प्रस्ताव कहा जाय तो फिर कहना होगा कि मनमोहन सिंह को 2008 में पूरे पांच दफे इस्तीफा दे देना चाहिए था. सेंसेक्स में गिरावट के पिछले पांच बड़े मुकामों पर सरसरी नजर दौड़ाए तो भी दिख जाएगा कि सब के सब यूपीए के वक्त के हैं.
छठी बार सबसे बड़ी गिरावट 2009 में आयी थी जब बीएसई का इंडेक्स 870 अंक के गोते खाकर 14,043 पर बंद हुआ और वजह रही बजट से पैदा बड़े वित्तीय घाटे की चिंता. अब राहुल गांधी की ट्रोलिंग किसी को विडंबना भरी लग सकती है लेकिन वे अब तंज-तानों से उपर उठ चुके हैं. यकीन नहीं आता तो आप उनके डिजाइनर बरबेरी जैकेट से पूछ सकते हैं.
अदने से अरसे के लिए हुए बाजार के उतार-चढ़ाव को सियासत से जोड़ना समझ की कमी का संकेत है. मिसाल के लिए सर्राफा बाजार में एक दिन मे हुई 2.63 फीसद की गिरावट में अगर 4.6 लाख करोड़ रुपए लोगों के धुआं हो गए और इसे मोदी तथा बजट के खिलाफ अविश्वास-प्रस्ताव माना जायए तो फिर आप एक माह में सेंसेक्स ने जो 2000 अंकों की छलांग लगाई उसे क्या नाम देंगे?
सेंसेक्स 34 हजार की हिमालयी ऊंचाई 26 दिसंबर को लांघ चुका था और 17 जनवरी को 35 हजार के पार पहुंचा. अगर बाजार अपने घाटे की भरपाई कर ले तो क्या जिस बजट को आज बुरा बताया जा रहा है वही एकबारगी उम्दा बजट की मिसाल कहलाएगा ?
सियासत की पूंछ पकड़कर नहीं चलता बाजार
बाजार किसी फार्मूले या सियासत की पूंछ पकड़कर नहीं चलता, वह भावनाओं के ज्वार से चढ़ता-उतरता है. वित्तमंत्री ने इक्विटी की बिक्री पर 10 प्रतिशत लॉन्ग टर्म टैक्स की फिर से शुरुआत की, बशर्ते एक साल के भीतर पूंजीगत लाभ 1 लाख रुपए से ज्यादा रहा हो. मुमकिन है कि निवेशक और सटोरिए इसके खिलाफ प्रतिक्रिया जाहिर कर रहे हों. सालाना एक लाख रुपए से कम के पूंजीगत हासिल पर कोई टैक्स नहीं लगेगा. 31 जनवरी 2018 से पहले के ऐसे किसी लाभ पर भी टैक्स नहीं लगना है.
वित्तमंत्री की पहल ‘दलाल स्ट्रीट’ को रास नहीं आई और गर्मागर्म बहस छिड़ गई. कुछ लोगों जैसे ब्लूमबर्ग के एंडी मुखर्जी को लगा कि वित्तमंत्री की इस पेशकदमी से विदेशी निवेशक आशंकित होंगे जबकि कुछ अन्य लोगों को लगा कि कॉरपोरेट और एलएलपी को हुए 3.67 लाख करोड़ रुपए के फायदे से सरकार का हिस्सा हासिल करने का यह बेहतरीन कदम है.
चुनावी साल में सरकारी खजाने को बढ़ाने के अतिरिक्त इस कदम के सहारे अधिशेष को वित्तीय संपदा (फायनेंशियल असेटस्) की जगह विनिर्माण में लगाना जा सकेगा. वित्तमंत्री ने भाषण में इस तरफ ध्यान दिलाया था.
वाजिब है टैक्स लगाना
शेयर बाजार में निवेश करने वालों के भय को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है. लंबी अवधि के पूंजीगत हासिल(लांग टर्म कैपिटल गेन) पर टैक्स लगाने की वजहें कहीं ज्यादा वाजिब हैं.
डीएसबी बैंक के मैनेजिंग डायरेक्टर तैमूर बेग के मुताबिक, 'अगर वैश्विक चलन को कसौटी मानें तो फिर 10 प्रतिशत का कैपिटल गेन टैक्स ऐसी कोई बड़ी बाधा नहीं है...' उन्होंने ब्लूमबर्ग क्विन्ट से कहा कि 'पूंजीगत लाभ पर कहीं ज्यादा ऊंची दर से टैक्स आयद करने वाले बहुत से देश मौजूद हैं और वहां इस टैक्स की अदायगी भी बेहतर है. यह (टैक्स) कोई बड़ी बात नहीं है.'
मोतीलाल ओसवाल के चीफ इंवेस्टमेंट ऑफिसर मनीष सोंठालिया ने ब्लूमबर्ग क्विन्ट से कहा कि 'नकदी तो खूब सारी जमा हो रखी है और हर चंद खरीदारी की तैयारी है..जबतक कोई गंभीर बात नहीं होती मुझे नहीं लगता कि इस चलन में कोई तेज बदलाव देखने में आएगा.'
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अनंत नागेश्वरन ने लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन को टैक्स के दायरे में लाने के लिए वित्तमंत्री अरुण जेटली की प्रशंसा की है, कहा है कि भारतीय शेयर बाजार के लिए एक तरह से लोक-कल्याणकारी राज्य सरीखी व्यवस्था हो रखी थी और इसे खत्म कर वित्तमंत्री ने बेहतरीन काम किया है.
अपने एक अन्य लेख में उन्होंने कहा था कि लंबी अवधि के पूंजीगत हासिल में धनिकों को टैक्स में छूट देना बहुत विचित्र है. उन्होंने लाइव मिन्ट में लिखा कि अगर कोई देश सम्मान का धनी है और वित्तीय पूंजी के लिए ‘टैक्स-हैवन’ के तौर पर काम नहीं करता तो फिर वह शेयर बाजार में निवेश से पूंजीगत लाभ पर इस किस्म की छूट नहीं देता... एक गरीब देश में लोकतांत्रिक रुप से चुनी हुई सरकार के पास ऐसा कोई कारण नहीं कि वह पूंजीगत हासिल को टैक्स से मुक्त रखे.
आमदनी का जरिया क्यों छोड़े सरकार
अर्थशास्त्री हसीब द्रबू का कहना है कि कोई और विकल्प है नहीं सो पैसा शेयर में लगेगा ही, इसलिए राजस्व बढ़ाने का एक जरिया दिख रहा है तो कोई कारण नहीं कि सरकार उसे छोड़ दे.
अनुमानित 3.3 प्रतिशत का वित्तीय घाटा बेसंभाल नहीं है और चूंकि एनडीए के शासन में मैक्रोइकोनॉमिक में स्थिरता बनी चली आ रही है सो बाजार को अपनी पुरानी गति पर लौटते देर नहीं लगेगी. इसलिए, बाजार को नजीर मानकर सियासत को पढ़ना राहुल गांधी के लिए जोखिम भरा साबित हो सकता है.
राहुल गांधी शायद यह मानकर खुश हो रहे हैं कि मध्यवर्ग प्रधानमंत्री से नाराज है. लेकिन मध्यवर्ग को आप किसी साफ-सुथरे खांचे में बैठाकर नहीं देख सकते. अर्थशास्त्री यह बात मानकर चलते हैं कि क्रयशक्ति के मामले में सबसे ज्यादा खाई वहीं देखने को मिलते है जहां मध्यवर्ग का मुकाम बताया जाता है.
मिडिल क्लास का अजब मिजाज
मध्यवर्ग बहुरंगा है, उसके कई स्तर हैं और मध्यवर्ग को साफ-साफ पहचानी जा सकने वाली श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. मध्यवर्ग का एक हिस्सा वह है जो आईफोन के ताजा-तरीन मॉडल के झट से खरीद लेता है लेकिन इसी तबके का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो कभी हवाई जहाज में नहीं बैठा.
अखबार ने लिखा है कि अगर एचएसबीसी का यह आकलन दुरुस्त है कि भारत में मध्यवर्ग का आकार तकरीबन 30 करोड़ है तो फिर इसमें कुछ ऐसे भी हैं जो रोजाना लगभग 3 डॉलर कमाते हैं.
मध्यवर्ग को चाहे ठीक-ठीक नहीं पहचाना जा सके लेकिन उसकी अनदेखी करना मुश्किल है क्योंकि मध्यवर्ग का एक हिस्सा बहुत मुखर है, उसकी महत्वकांक्षाएं जाहिर हैं और वह भारत के विशाल भूगोल के भीतर हर तरफ फैला है. यह मध्यवर्ग अवसरों की तलाश में है और चाहता है कि भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ा रहे.
इस मध्यवर्ग का शुमार मोदी के पक्के समर्थकों में किया जाता है सो यह तबका उम्मीद लगाये बैठा था कि टैक्स में कुछ छूट मिलेगी या फिर टैक्स की दरों में बदलाव के सहारे सरकार कुछ राहत देगी क्योंकि चुनावी साल है. बुजुर्गों को कुछ भत्ते मिले हैं और वेतनभोगी कर्मचारियों को बजट में स्टैन्डर्ड डिडक्शन. इस स्टैन्डर्ड डिडक्शन से वेतन के रुप में उन्हें हासिल नकदी में नाममात्र की बढ़ोत्तरी होगी. इसके अलावा मध्यवर्ग को बजट में वित्तमंत्री ने कुछ नहीं दिया.
कांग्रेस को मिला मौका!
कांग्रेस अध्यक्ष को लग रहा है कि मध्यवर्ग के गुस्से को भुनाने भर की जरूरत है और इतने भर से मोदी को सत्ता से किया जा सकता है. लेकिन वे गलत सोच रहे हैं. अगर मोदी सत्ता से बाहर होते हैं तो वजह यह नहीं होने जा रही कि मध्यवर्ग ने मोदी को छोड़कर राहुल गांधी का दामन थाम लिया. मध्यवर्ग का गुस्सा आगे भी कायम रहा तो वह चुनाव में ‘नोटा’ का बटन दबाएगा.
शहरी मध्यवर्ग साथ ना होता तो गुजरात में बीजेपी का बचकर निकल पाना मुश्किल था. इस मध्यवर्ग पर राहुल गांधी के ‘गब्बर सिंह टैक्स’ वाले जुमले का जरा भी असर नहीं हुआ.
लेकिन गुजरात के ग्रामीण इलाकों में सत्ताधारी पार्टी के जनाधार में भारी कमी आयी है और मोदी सरकार ने अपने बजट में इस इलाके पर भरपूर ध्यान दिया है. कुछ लोगों कहेंगे कि यह एक बेहतर राजनीति है.
गुमराह है राहुल का आशावाद
राहुल का आशावाद भटका हुआ है. बात कांग्रेस और गांधी परिवार की हो तो मध्यवर्ग की भौहें तन जाती हैं. ऐतिहासिक रूप से मध्यवर्ग कांग्रेस से नाराज चला आ रहा है. स्व-निर्मित मध्यवर्ग ने आजादी के बाद 1970 और 1980 के दशकों में जारी नीतिगत फ्रेमवर्क के भीतर खुद को बड़े जतन से गढ़ा और सादा जीवन-उच्च विचार की भावना से जिंदगी चलाई.
पीवी नरसिम्हाराव के दौर में आर्थिक उदारीकरण के दिन आए तो इस वर्ग ने कुछ समृद्धि देखी. नरसिम्हा राव कांग्रेस में पिछली पांत के ही नेता माने जाते थे लेकिन प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने भारत के लिए एक राह निकाली और अटलबिहारी वाजपेयी ने इस राह को और ज्यादा सुगम बनाया. यूपीए ने अपने शासन के जो पिछले 10 साल गुजारे उसने यही साबित किया कि मध्यवर्ग का कांग्रेस में भरोसा नहीं है.
मोदी के खिलाफ मध्यवर्ग के गुस्से का अर्थ निकालने में एक और वजह से भी राहुल गांधी से गलती हो रही होगी. पहले के वक्त में मध्यवर्ग किसी संत जैसी तटस्थ मुद्रा अपनाए रखता था लेकिन अभी वह सरकार से सीधे जुड़ा महसूस करता है. वह बहुत मुखर है और अपनी प्रतिक्रियाएं जाहिर करता है.
आज इसके पास सोशल मीडिया जैसा मंच मौजूद है जहां वह अपनी भावनाओं का खुलकर इजहार करता है. मध्यवर्ग के मतदाताओं से रिश्ता बनाने के लिहाज से सोशल मीडिया के इस्तेमाल के मामले में मोदी अग्रणी साबित हुए हैं. यह रिश्ता लगातार मजबूत हो रहा है.
मध्यवर्ग की मोदी से नाराजगी तो खैर जाहिर है लेकिन मध्यवर्ग को यह भी पता है कि यह सरकार कुछ करना चाहती है. मध्यवर्ग जानता है कि यह सरकार जोखिम ले सकती है, वह खड़े-खड़े तमाशा देखने में यकीन नहीं करती और बात कुछ कर दिखाने की हो तो सरकार अपने तरफदार मतदाताओं को नाराज करने का भी हौसला दिखा सकती है.
इस सरकार ने बदलाव लाने की नीतियां धमाकेदार अंदाज में लागू की हैं और सरकार पर हाथ धरे बैठे रहने के आरोप नहीं मढ़े जा सकते. महत्वाकांक्षी मध्यवर्ग इस बात को जानता है.
बेशक मध्यवर्ग गुस्से में है लेकिन उसका यह गुस्सा एक ऐसे राजनेता के लिए भरोसे की चीज नहीं जो शिकार के लिए हाहाकारी तेवर में झपटता है लेकिन इस बीच कोई पत्ता भी खड़के तो दुम दबाकर पीछे भाग खड़ा होता है. राहुल को मध्यवर्ग के गुस्से पर इतना भरोसा नहीं करना चाहिए.
हंदवाड़ा में भी आतंकियों के साथ एक एनकाउंटर चल रहा है. बताया जा रहा है कि यहां के यारू इलाके में जवानों ने दो आतंकियों को घेर रखा है
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पीएम के संबोधन पर राहुल गांधी ने उनपर कुछ इसतरह तंज कसा.
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संयुक्त निदेशक स्तर के एक अधिकारी को जरूरी दस्तावेजों के साथ बुधवार लंदन रवाना होने का काम सौंपा गया है.