देश में एकाएक नकदी की भारी कमी हो गई है. एटीएम के साथ बैंकों में भी पैसे नहीं हैं. लिहाज़ा कैश की किल्लत के चलते लोगों को खासी मुसीबत उठाना पड़ रही है. कई राज्यों के अलावा दिल्ली और एनसीआर तक में लोगों को कैश के लिए एक एटीएम से दूसरे एटीएम तक भटकना पड़ा रहा है. नकदी के इस संकट में हालात नोटबंदी के वक्त जैसे नज़र आ रहे हैं.
देश में कैश की यह भारी किल्लत ऐसे समय में आई है, जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने पर्याप्त मात्रा में नोटों (मुद्रा) की छपाई करवा रखी है. ऐसे में आरबीआई जब कैश की किल्लत के कारणों को निर्धारित करने का प्रयास करेगी, तब वह यकीनन कैश के जमाखोरों की गहन पड़ताल करेगी. इसके अलावा आरबीआई को अपने खुद के गिरेबान में भी झांकना होगा. आरबीआई का कहना है कि वर्तमान में बाजार में नोटबंदी के समय से ज्यादा कैश है. यानी आरबीआई के मुताबिक देश में प्रचलित मुद्रा का स्तर अपने उच्चतम स्तर है. लेकिन आरबीआई के पास फिलहाल इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि नोटबंदी के समय से ज्यादा कैश होने के बावजूद बाज़ार से नकदी नदारद क्यों है?
आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक, 6 अप्रैल को 18.4 खरब रुपये की करेंसी प्रचलन में थी. जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नोटबंदी की घोषणा के दो महीने बाद 6 जनवरी 2017 को देश में महज़ 8.9 खरब रुपये की करेंसी चलन में थी. ऐसे में सिस्टम में पर्याप्त कैश न होने की संभावना किसी के भी गले नहीं उतरेगी. मतलब साफ है कि पर्याप्त मात्रा में नकदी (कैश) का मुद्रण किया गया, लेकिन वह कैश एटीएम और बैंकों तक नहीं पहुंच पाया है. लिहाज़ा कैश की किल्लत के पीछे दो संभावनाएं नज़र आती हैं:
पहली संभावना
जल्द ही कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. ऐसे में हो सकता है कि चुनावी मौसम से पहले राजनीतिक दलों और कुछ संगठनों ने बड़े पैमाने पर कैश जमा कर लिया हो. जिसकी वजह से बाज़ार में कैश की किल्लत हो गई हो. राजनीतिक दल कैश की जमाखोरी अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र भी कर सकते हैं. अगर यह सच है तो कैश की किल्लत जल्द खत्म नहीं होने वाली है. देश में नकदी संकट को लेकर लेखक ने कुछ बैंकर्स से बात की. इस दौरान दो वरिष्ठ बैंकर्स ने भी शक जताया कि कैश की किल्लत की वजह राजनीतिक दलों द्वारा नकदी की जमाखोरी हो सकती है. दोनों बैंकर्स ने इस मामले में विस्तृत जांच की ज़रूरत पर बल दिया है. कैश की किल्लत में सबसे अहम बात यह है कि, बाज़ार से सबसे ज़्यादा 2000 रुपये के नोट गायब हैं. गौरतलब है कि 2000 रुपये के नोट नवंबर 2016 में नोटबंदी के बाद प्रचलन में आए थे.
डिजिटलीकरण के तमाम दावों के बावजूद देश में अब भी नकदी यानी कैश का बोलबाला है. लिहाज़ा हो सकता है कि राजनीतिक दल अपने अभियानों को जारी रखने के लिए और अपने हितों को साधने के लिए तेज़ी के साथ कैश की जमाखोरी कर रहे हों. चूंकि कैश की जमाखोरी की गतिविधियों में ज़्यादातर राजनीतिक दलों के शामिल होने की संभावना है, इसलिए मामले की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की सख्त ज़रूरत है. क्योंकि केवल स्वतंत्र जांच से ही कैश के अवैध भंडार और उसके जमाखोरों का पता लगाया जा सकता है. देश की अर्थव्यवस्था के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि, हर हाल में उजागर हो कि जो कैश सार्वजनिक प्रचलन में होना चाहिए उस पर आखिर कौन-कौन कुंडली मारे बैठा है.
दूसरी संभावना
कैश की किल्लत की वजह भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा बाज़ार से 2,000 रुपये के नोटों को वापस लेना भी हो सकता है. दरअसल पिछली साल दिसंबर में भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की एक रिपोर्ट में यह बात सामने आई थी कि आरबीआई धीरे-धीरे 2,000 रुपये के नोट वापस ले सकता है. एसबीआई की रिपोर्ट में लोकसभा में वित्त मंत्रालय द्वारा दी गई जानकारी का हवाला देते हुए कहा गया था कि, भारतीय रिजर्व बैंक ने 8 दिसंबर, 2017 तक 500 रुपये के 16,957 मिलियन नोट और 2,000 रुपये के 3,654 मिलियन नोट छपवाए थे. 500 और 2000 रुपये के इन मुद्रित नोटों का कुल मूल्य 15,787 अरब रुपये है.
एसबीआई की रिपोर्ट में आरबीआई के एक अन्य आंकड़े का भी ज़िक्र किया गया था. आरबीआई के यह आंकड़े उसी तारीख (8 दिसंबर, 2017) तक प्रचलन में जारी कुल करेंसी को लेकर थे. जिसके मुताबिक मार्च 2017 तक छोटे मूल्य के नोटों की संख्या काफी कम हो चुकी थी. आरबीआई की वार्षिक रिपोर्ट में दर्ज है कि, कुल 16,825 अरब रुपये मूल्य के नोटों में छोटे मूल्य के नोटों की कीमत 3,501 अरब रुपये थी. इससे स्पष्ट हो जाता है कि, 8 दिसंबर 2017 तक बड़े मूल्य के नोटों की कुल कीमत 13,324 अरब रुपए थी. अब बात करते हैं 8 दिसंबर 2017 तक मुद्रित बड़े मूल्य के कुल नोटों की संख्या (15,787 अरब रुपये) और प्रचलन में मौजूद बड़े मूल्य वाले नोटों की कुल कीमत के फर्क की. एसबीआई के आंकड़ों के मुताबिक, आरबीआई ने करीब 2,463 अरब रुपये के नोटों का मुद्रण किया, लेकिन आरबीआई इन मुद्रित नोटों की बाजार में आपूर्ति नहीं कर पाई. एसबीआई की रिपोर्ट की माने तो मुद्रित नोटों का यह आंकड़ा 2,463 अरब रुपये से कहीं ज़्यादा भी हो सकता है.
हज़ार के नोट की कमी
एसबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, "एक तार्किक नतीजे के तौर पर, 2000 रुपए के नोटों के लेनदेन में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, ऐसा लगता है कि आरबीआई ने 2,000 रुपये के नोटों को या तो छापना बंद कर दिया है, या पर्याप्त तादाद में छपाई हो जाने के चलते अब उनका मुद्रण काफी कम संख्या में हो रहा है. इसका मतलब यह भी है कि, प्रचलन में मौजूद कुल करेंसी में छोटे मुल्य के नोटों के हिस्सेदारी अब शायद 35 फीसदी तक पहुंच चुकी है."
सिस्टम में पहले ही से 2,000 रुपये के नोटों और 500 रुपये के नोटों के बीच का अंतर बहुत बड़ा है. वहीं 2,000 रुपये के नोटों के ज़रिए लेनदेन में भी खासी दिक्कतें पेश आती हैं. लिहाज़ा अगर 1,000 रुपये के नोटों के फिर से चलन में आने से पहले ही सिस्टम से 2,000 रुपये के नोट बिलकुल गायब हो जाएं तो बाज़ार में कैश की भारी कमी होगी ही.
यह समस्या 500 रुपये के नोटों और उससे कम मूल्य के नोटों की कमी के चलते और भी ज़्यादा गंभीर हो रही है. सच तो यह है कि, कैश के मामले में बैंकिंग सिस्टम नोटबंदी के बाद से अभी तक सामान्य स्थिति में लौट नहीं पाया है. कैश के मुद्दे पर बैंकिंक सिस्टम के अबतक पटरी पर न लौटने की कई वजहें हैं. इस समस्या पर कुछ बैंक वर्कर्स एसोसिएशंस ने रौशनी डाली है. ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कॉन्फेडरेशन (AIBOC) के मुताबिक, बैंकों को 30-40 फीसदी कैश की कमी का सामना करना पड़ रहा है. कैश की इस कमी का कारण बड़े मूल्य वाले नोटों का अभाव है.
इसके अलावा, कैश के वर्तमान संकट के लिए सरकार के फाइनेंशियल रेज़ोल्यूशंस एंड डिपोज़िट इंश्योरेंस (FRDI) बिल का भी अहम रोल माना जा रहा है. इस साल के शुरू में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में एटीएम के बाहर लोगों की लंबी-लंबी कतारें देखी गई थीं. लोगों को आशंका थी कि FRDI बिल पारित हो जाने के बाद सरकार बैंकें बंद कर सकती है. लिहाज़ा लोग हड़बड़ी में एटीएम से पैसे निकाने पहुंच गए थे. लोगों को लगा था कि अगर बैंक बंद हो गए तो उनकी कड़ी मेहनत का पैसा डूब जाएगा.
सरकार ने FRDI बिल के बारे में लोगों की आशंकाओं और चिंताओं को दूर करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. नकदी के आपूर्तिकर्ताओं (कैश सप्लायर्स) को एटीएम में नकदी की कमी के लिए दोषी मानना बेकार की कवायद है. बैंक सिर्फ अपने एटीएम में कैश राशि के लिए उत्तरदायी हैं; जबकि कैश सप्लायर्स की ज़िम्मेदारी लॉजिस्टिक्स की होती है. यानी नकदी के आपूर्तिकर्ता केवल संचालन और क्रियान्वयन का काम करते हैं.
बहरहाल देश में कैश की किल्लत के लिए उपरोक्त सभी वजहें जिम्मेदार हो सकती हैं. लेकिन कैश के इस संकट की सबसे बड़ी वजह राजनीतिक दलों की जमाखोरी और आरबीआई की नाकामी ज़्यादा नज़र आती है. क्या आरबीआई बताएगी कि, वह बड़े मूल्य के नोटों के बीच के अंतर को पाटने में असफल क्यों रही? क्या आरबीआई बताएगी कि, 2000 रुपये के नोट वापस लेने से पहले उसने 1,000 रुपये के नोट लॉन्च क्यों नहीं किए?
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