देश के कई राज्य इन दिनों कैश की किल्लत से जूझ रहे हैं. कई जगहों पर अचानक इस तरह से कैश की कमी हो जाना चिंता का विषय है. इससे लोगो में घबराहट और असुरक्षा का माहौल पैदा हो गया है. हालांकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और अन्य बैंकों ने भी ये घोषणा की है कि देश में नकदी की कोई कमी नहीं है और उनके पास पर्याप्त मात्रा में करेंसी उपलब्ध है. लेकिन लोग बैंकों की इस सफाई से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हैं.
बैंकों और वित्त मंत्रालय के अधिकारियों के द्वारा ये कहना कि एटीएम को नए आकार के नोटों को निकालने के लिए दोबारा से व्यवस्थित किया जा रहा है, आम लोगों के गले से नहीं उतर रहा. ऐसा इसलिए है क्योंकि नोटबंदी किए हुए 15 महीने से ज्यादा का वक्त बीत चुका है और अगर एटीएम को रीकैलिब्रेट किया जाना था तो उसे अब तक पूरा कर लिया जाना चाहिए था.
पहला मामला सप्लाई के दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ है
लोगों को नोटबंदी के समय की परेशानी अब तक याद है. उस समय कैश के लिए इसी तरह से लोग एटीएम और बैंकों की शाखाओं के बाहर लंबी-लंबी कतारों में खड़े रहते थे और इसके बावजूद कई बार उन्हें बिना कैश लिए ही लौटना पड़ता था. ऐसा देखने में आया है कि जब-जब अधिकारियों ने इस तरह की बड़ी समस्या को हल्के में लिया है तब-तब लोगों में घबराहट और चिंता बढ़ी है, लेकिन ये समस्या इतनी बढ़ी क्यों?
इस बड़ी समस्या के दो पहलू हैं. पहला मामला सप्लाई के दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ है. निश्चित रूप से कहीं न कहीं देश में करेंसी की जरूरतों के अनुमान में गलती हुई है. इस अनुमान की गड़बड़ी की वजह से बाजार से मिल रहे संकेतों की गलत तरीके से व्याख्या की गई. नोटबंदी के बाद इस बात को लेकर चर्चा होने लगी थी कि देश की जनता अब आधुनिक तरीके अपनाने को तैयार हो गई है और वो कैश पर निर्भरता से आगे निकलकर इलेक्ट्रॉनिक मोड या डिजिटल मोड की ओर बढ़ रही है. ऐसे में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के बढ़ते इलेक्ट्रॉनिक ट्रांजेक्शन के आकंड़ों का इस्तेमाल करके इस बात पर मुहर लगाई जाती है कि अब यहां के लोग तकनीक को अपना कर आगे बढ़ चुके हैं और उनकी कैश पर निर्भरता कम हो गई है.
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हां ये बात सही है कि ई-ट्रांजेक्शन में बढ़ोत्तरी हुई है, लेकिन ये लेनदेन के अन्य वर्तमान माध्यमों की पूरक ही रही है और कई बार अन्य माध्यम जैसे चेक और कार्ड्स की जगह इसका इस्तेमाल किया गया है. ऐसे में अचानक करेंसी की मांग बढ़ने से पूरी व्यवस्था चरमरा गई क्योंकि उसके लिए करेंसी सप्लाई की वैकल्पिक व्यवस्था की पहले से कोई तैयारी ही नहीं थी.
करेंसी को घरों में लोग रखते हैं इसके पीछे दो वजह होती है. पहली लेनदेन के लिए जो कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की पूरक होती है या फिर उसकी जगह पर इस्तेमाल की जाती है. और दूसरी वजह है एहतियात के तौर पर. हर घर मे एक निश्चित मात्रा में नगद रखा जाता है जिससे की जरूरत और मुश्किल के समय में उसका इस्तेमाल किया जा सके. ये नगद आकस्मिक स्वास्थ्य बिगड़ने पर या फिर घरेलू जरूरतों को पूरा करने में इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में जब तक देश का सर्वोच्च बैंक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया लोगों को नोटबंदी के पहले के स्तर तक कैश सप्लाई नहीं उपलब्ध कराएगा तब तक लोगों के पास कम कैश रखने को मजबूर होना पड़ेगा.
हालांकि अभी पूरे सिस्टम में 18.4 लाख करोड़ की करेंसी चल रही है जो कि नोटबंदी के दौरान नवंबर 2016 में 17.6 लाख करोड़ से कहीं ज्यादा है. ऐसे में संभव है कि लोगों ने अपने घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक कैश घर में जमा करके रख लिया होगा.
लोगों की कैश की जरूरत और घरों में अनिवार्य रूप से रखे जाने वाले कैश का गलत हिसाब किताब का आंकलन बढ़ते इलेक्ट्रॉनिक ट्रांजेक्शन से कहीं से भी मेल नहीं खाता. यही वो जगह है जहां पर हमें दूसरे पहलू पर नजर डालनी चाहिए और वो है मांग. सबसे पहले कुछ मौसमी कारक होते हैं जिस दौरान नकदी की मांग सबसे ज्यादा होती है.
ये हैं शादी और उपज का समय. दोनों मौकों पर लोगों को नगद की काफी जरूरत पड़ती है. अभी भी आभूषणों की खरीद में नगद का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है , खास करके ग्रामीण इलाकों में और इसका विवरण कहीं रिपोर्ट भी नहीं किया जाता है. इसके अलावा होटलों के बाहर होने वाली शादियों में भी नगद का पूरा इस्तेमाल किया जाता है. इन शादियों में चेक या इलेक्ट्रॉनिक पेमेंट्स छोटी छोटी राशियों के किए जाते हैं जिससे कि आयकर विभाग की नजर उनपर न पड़ सके. हालांकि इससे कैश की किल्लत पैदा होती है लेकिन इस तरह की कमी पिछले साल नहीं हुई थी ऐसे में इस समय कैश की कमी का कारण पूरी तरह से इसे नहीं बताया जा सकता है.
कैश को लेकर नोटबंदी से पूर्व का स्तर अब पार हो चुका है
दूसरी तरफ कर्नाटक में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं और चुनाव के दौरान नकदी की डिमांड सबसे ज्यादा रहती है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नगद के द्वारा आयोग की तरफ से चुनाव प्रचार की निर्धारित राशि से ज्यादा खर्च करके भी आयोग के डंडे से बचा जा सकता है. कर्नाटक में वैसे तो मई में चुनाव है लेकिन इसी साल कुछ बड़े राज्यों में भी चुनाव होने जा रहे हैं. ऐसे में राजनीतिक दल और संभावित उम्मीदवार चुनाव के खर्चे के लिए अभी से कैश जमा करके रख रहे हैं. इसका व्यापक प्रभाव पड़ा है. खास करके 2000 के नोटों का बाजार से गायब हो जाना महत्वपूर्ण है क्योंकि चुनावों के दौरान इस बड़े नोट से बड़ी लेनदेन आसानी से की सकती है. नोटबंदी के थोड़े दिनों पहले इसी तरह के माहौल में बड़ी मात्रा में करेंसी नोट्स की जमाखोरी की गई थी.
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डिमांड और सप्लाई के कारकों को ध्यान देने से पता चलता है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया अपने नोटों की प्रिटिंग की रफ्तार से डिमांड को पूरा करने में सफल नहीं रहा है. ऐसे में जब 2000 के नोटों की छपाई अच्छी खासी संख्या में नहीं हो रही तो उस कमी को छोटे नोटों की छपाई से पूरा कर पाना टेढ़ी खीर है. ये भी कैश की कमी की एक वजह हो सकती है.
ऐतिहासिक रूप से देश की आर्थिक व्यवस्था करेंसी से जीडीपी के 12 फीसदी के अनुपात पर चलती है. लेकिन नोटबंदी के समय नवंबर 2016 में ये व्यवस्था बिगड़ गई थी. इलेक्ट्रॉनिक पेमेंट के साधनों पर जोर देने और पूरे सिस्टम में करेंसी की भरपाई करने की धीमी गति ने नकदी की वास्तविक जरूरत के अनुमानों का पता लगाना मुश्किल कर दिया है.
वित्तीय साल 2018-19 के दौरान जीडीपी के 187 लाख करोड़ के रहने का अनुमान है और अगर इसका 12 फीसदी अनुपात निकाला जाए तो ये लगभग 22.4 लाख करोड़ रूपए होता है. अगर ये 11 फीसदी रहे तो ये लगभग 20.5 लाख करोड़ होता है. लेकिन अभी देश में कैश सर्कुलेशन केवल 18.4 लाख करोड़ रूपए है जो कि कुल जीडीपी के अनुमान का महज 10 फीसदी होता है. मतलब साफ है कि इस वित्तीय वर्ष में आरबीआई को सिस्टम में और कैश डालना ही पड़ेगा.
अगर बड़े स्तर पर देखा जाए तो तथ्य ये है कि कैश को लेकर नोटबंदी से पूर्व का स्तर अब पार हो चुका है और ये कहा जा सकता है कि भारतीय कैश को ज्यादा पसंद करते हैं. नोटबंदी के समय जो डिजिटाइजेशन की थ्योरी लोगों को जबरदस्ती पढ़ाई गई थी वो आज भी लोगों के चारों ओर तो घूमती है लेकिन अभी भी उसे घर के भीतर जगह नहीं मिल पाई है. ये एक महत्वपूर्ण मैसेज है जो कि कैश की कमी वाले एपिसोड से मिली है. डिजिटल लेनदेन को लेकर जो प्रचार प्रसार किया गया था वो आज इस तथ्य के सामने धूमिल हो गया कि बाजार में कैश की भारी कमी आ गई है और इसकी वास्तविक जरूरत को लेकर गलत अनुमान लगाया गया. इसे जल्द ही ठीक करने की जरूरत है.
(लेखक Care Ratings में मुख्य अर्थशास्त्री हैं)
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