भारत में कंपनियों के लिए बैंकों का पैसा पचा जाना अब तक खेल ही रहा है. ऐसी कंपनियों की लंबी फेहरिस्त है, जिन्होंने बैंकों से कर्ज लिया और फिर उसे डकार गईं. ऐसी कंपनियों को किसी तरह की सजा मिलनी तो दूर की बात रही, उनकी पहचान तक सार्वजनिक नहीं है.
यहां तक कि देश की सुप्रीम कोर्ट ने जब इन कंपनियों के नाम जगजाहिर करने की बात कही, तो रिजर्व बैंक ने नियमों के हवाले से ऐसा करने में असमर्थता जता दी.
बेईमान कंपनियों के लिए 2 कानूनों का डंडा
दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो अब तक कंपनियों के लिए पब्लिक मनी के गबन की कोई ऐसी कीमत नहीं थी, जो उनके लिए डेटरेंट यानी अवरोधक का काम करती हो. लेकिन पिछले कुछ महीनों में संसद से पास दो कानूनों ने सब कुछ बदल दिया है. इन कानूनों ने सुनिश्चित कर दिया है कि डिफॉल्टर कंपनियों की जिंदगी अब कभी पहले जैसी नहीं रहेगी.
इनमें पहला कानून है इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड, 2016 (आईबीसी) और दूसरा है बैंकिंग नियमन (संशोधन) कानून, 2017. इन दोनों कानूनों के अलावा केंद्र सरकार ने कई ऐसे छोटे-छोटे कार्यकारी निर्देश जारी किए हैं, जिनसे कंपनियों को साफ संदेश दे दिया गया है कि जनता के पैसे का गबन कर अब वो भी चैन की नींद नहीं सो सकतीं. सच पूछा जाए तो इन कानूनों ने बाकायदा अस्तित्व में आने से पहले ही अपना काम करना शुरू भी कर दिया है.
इंतजार नहीं, आक्रमण करेगी सरकार
राज्यसभा ने पिछले हफ्ते बैंकिंग नियमन (संशोधन) कानून, 2017 पास किया, जबकि लोकसभा इसे पहले ही पास कर चुका है. लेकिन केंद्र सरकार ने मई में ही अध्यादेश के जरिए इस कानून को काम पर लगा दिया था.
इसके तहत भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को यह अधिकार मिल गया है कि वह अपनी तरफ से किसी भी कंपनी को दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया शुरू कर सकता है. पहले यह अधिकार केवल सवालों में घिरी कंपनी के पास तक ही सीमित था.
यानी अब कोई कंपनी एक ओर तो अपने कारोबार से मुनाफा बटोर रही हो और दूसरी ओर हजारों करोड़ रुपये के कर्ज चुकाने में स्वयं को दयनीय दिखा रही हो, तो आरबीआई आगे बढ़कर उसे दिवालिया घोषित कर सकता है और उसकी सारी संपत्ति सरकारी कब्जे में आ सकती है.
इस कानून के तहत ही आरबीआई के लिए उन 12 कंपनियों को दिवालिया घोषित करने का रास्ता साफ हो गया, जिनके मामले नेशनल कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल (एनसीएलटी) में जा चुके हैं. इन कंपनियों में भूषण स्टील, भूषण पावर एंड स्टील, एस्सार स्टील, आलोक इंडस्ट्रीज, लैंको इंफ्रा, जेपी इंफ्रा, एरा इंफ्रा इत्यादि शामिल हैं.
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इन कंपनियों के अलावा आरबीआई की आंतरिक सलाहकार समिति (आईएसी) ने 12 अन्य ऐसे कॉरपोरेट खातों की भी पहचान की है, जिनके पास 5000 करोड़ रुपए से ज्यादा के कर्ज फंसे पड़े हैं.
इन सभी खातों को मिलाकर कुल डूबे कर्ज की रकम लगभग 1,75,000 करोड़ रुपए है जो कि केयर रेटिंग्स के मुताबिक दिसंबर 2016 तक देश के सभी निजी और सरकारी बैंकों का मिलाकर कुल 6,97,403 करोड़ रुपए के एनपीए का करीब एक चौथाई है. आरबीआई आईबीसी के तहत इन सारी कंपनियों को दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया शुरू कर रहा है.
एनपीए से निपटने की सरकार की दोहरी रणनीति
मोदी सरकार ने बेईमान कंपनियों के लिए जनता के पैसे पर अय्याशी के मौके बंद करने के साथ ही इस बात के लिए उपाय शुरू किए हैं कि ऐसी कंपनियों की लिस्ट लंबी न होती जाए. छोटे-छोटे कई कदम उठाए जा रहे हैं, जिससे बदनीयत कंपनियों को शुरुआती चरण में ही पहचान कर उनकी नकेल कसी जा सके.
शेयर बाजार रेगुलेटर सेबी ने इस बारे में बड़ी पहल करते हुए बैंकों से उन कंपनियों की सूची मांगी है, जो उनकी डिफॉल्ट लिस्ट में हैं. दिवालियेपन की कगार पर खड़े भूषण स्टील ने कभी अपने खातों की सही जानकारी सार्वजनिक नहीं की और आरकॉम ने भी गैर-परिवर्तनीय डिबेंचरों पर अपने डिफॉल्ट की जानकारी एक्सचेंजों को 2 महीने बाद दी.
इन घटनाओं से सबक लेते हुए सेबी ने अब प्रो-एक्टिव रुख अपनाया है. एक नया कानून तैयार हो रहा है, जिसके तहत सभी सूचीबद्ध कंपनियों के लिए अपने बकाया कर्ज की पूरी जानकारी एक्सचेंज को देना अनिवार्य होगा. लागू होने के बाद यह कानून कंपनियों के लिए एक बड़ा अवरोधक होगा क्योंकि इससे शेयरों की कीमत गिरेगी और सीधे तौर पर कंपनियों के प्रमोटर की संपदा में गिरावट होगी.
बैंकों को भी ज्यादा जवाबदेह बनाने की तैयारी
देश में एनपीए की समस्या के इस कदर विकराल होने के लिए बैंकों की लापरवाही भी कम जिम्मेदार नहीं है. किसी भी कर्ज को एनपीए घोषित करते ही बैंकों को उसके लिए अलग फंड का प्रावधान करना होता है. यानी उतना फंड बैंक के लिए अनुत्पादक हो जाता है.
ऐसे में बैंक जल्दी कर्ज को एनपीए घोषित नहीं करना चाहते हैं, भले ही वो डूब चुका हो. इसे एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है कि अब तक जहां एनसीएलटी में 148 कंपनियों का मामला जा चुका है, बैंकों ने इनमें से महज 12 खातों के लिए प्रोविजनिंग की है.
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लेकिन अब सरकार इस बारे में कड़े नियम ला रही है, जिसके बाद जैसे ही कोई मामला एनसीएलटी को रेफर किया जाएगा, उसी समय संबंधित बैंक को 50 प्रतिशत फंड की प्रोविजनिंग करनी होगी और लिक्विडेशन होते ही इसे बढ़ाकर 100 प्रतिशत करना होगा. इससे बैंकों का ढुलमुल रवैया बदलेगा क्योंकि इसका सीधा प्रभाव उनके मुनाफे पर पड़ेगा और बैंक के सीएमडी को बोर्ड के सामने इसका जवाब देना होगा.
मुश्किल होगा नया विजय माल्या पैदा होना
देश में कॉरपोरेट डिफॉल्ट कोई नई घटना नहीं है. इंदिरा गांधी के बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के बाद ऐसी भी कई घटनाएं हुई हैं, जब राजनेताओं ने बैंकों पर अपने रुतबे का इस्तेमाल करते हुए अपनी पसंदीदा कंपनियों को कर्ज दिलवाया और फिर उन कंपनियों ने डिफॉल्ट किया.
विजय माल्या ऐसी ही घटनाओं का एक प्रतिनिधि प्रकरण हैं. इस संदर्भ में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले दो वर्षों में बैंकों और कंपनियों की लापरवाह कर्जदारी रोकने के लिए जो कदम उठाए हैं, वो अभूतपूर्व हैं. एक तरह से इस बात की गारंटी देते हैं कि देश की बैंकिंग व्यवस्था में कोई नया विजय माल्या पैदा होना नामुमकिन नहीं, तो बहुत मुश्किल जरूर होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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