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बजट 2018-19: रोजगार पर क्या अपना वादा पूरा कर पाएगी सरकार!

सबकी आंखें उन प्रावधानों पर लगी रहेंगी कि रोजगार, कमाई वगैरह के मसलों पर बजट क्या करता है

Updated On: Jan 31, 2018 10:59 PM IST

Alok Puranik Alok Puranik
लेखक आर्थिक पत्रकार हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में कामर्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं

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बजट 2018-19: रोजगार पर क्या अपना वादा पूरा कर पाएगी सरकार!

बजट 2018-19  सामने है. कई उद्योगों की उम्मीद इस पर टिकी है. इस बजट की सबसे खास बात यह है कि यह अगले आम चुनावों से पहले एकमात्र ऐसा बजट है, जिसमें सरकार अपनी इच्छाशक्ति या नीतिगत दृष्टिकोण का खुलकर अमल कर सकती है. इस बजट के बाद अगला बजट फरवरी, 2019 में पेश होगा यानी अगले आम चुनावों के ठीक सामने. आम चुनाव ठीक सामने हों, तो बजट फिर मुकम्मल बजट जैसा नहीं रहता.

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1 फरवरी, 2018 का बजट ही इस एनडीए सरकार का ऐसा बजट है, जिसमें इसे अपने हिसाब से खुलकर कदम उठाने की छूट है. देखने की बात यह है कि रोजगार, रोजगार के अवसर, कमाई के अवसर इस समय ना सिर्फ आर्थिक बल्कि राजनीतिक तौर पर बहुत ही संवेदनशील मसले हैं. सबकी आंखें उन प्रावधानों पर लगी रहेंगी कि रोजगार, कमाई वगैरह के मसलों पर बजट क्या करता है.

रोजगार का अर्थ

पीएम मोदी 2014 की चुनावी सभाओं में रोजगार के मुद्दे को बहुत जोर शोर से उठाया करते थे और पूछते थे कि मनमोहन सिंह जवाब दें कि कितने रोजगार अर्थव्यवस्था में पैदा हुए. अब वह सवाल पीएम मोदी की ओर मुड़कर लौट रहे हैं. रोजगार का अर्थ क्या है, अब इस पर बहस शुरू हो गई है.

रोजगार देने से आशय किसी फैक्ट्री, दफ्तर में एक नौ से पांच की नौकरी से है या फिर किसी छोटी सी दुकान पर मिली नौकरी को भी नौकरी मान लिया जाएगा. हाल में श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2017 में संगठित क्षेत्र में लगे लोगों की संख्या करीब दो करोड़ दस लाख थी. संगठित क्षेत्र के रोजगार असंगठित क्षेत्र से बेहतर माने जा सकते हैं.

क्या है संगठित रोजगार?

संगठित क्षेत्र के रोजगार से आशय उन संस्थानों में रोजगार से है, जिनमें दस या दस से ज्यादा लोग काम करते हैं. केंद्र और राज्य सरकारों को मिलाकर मोटे तौर पर दो करोड़ तीस लाख लोग काम करते हैं. ये दो करोड़ तीस लाख और संगठित क्षेत्र के करीब दो करोड़ दस लाख रोजगार ही ऐसे रोजगार हैं, जिनमें लोग काम करना चाहते हैं. छोटी दुकान की नौकरी को आम तौर पर नौकरी नहीं माना जाता.

विख्यात सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी के एक अनुमान के मुताबिक करीब चालीस करोड़ लोगों को छोटा-मोटा या कामचलाऊ रोजगार हासिल है. चालीस करोड़ लोग कुछ ना कुछ छोटा-मोटा काम कर रहे हैं. लेकिन ये लोग अपने रोजगार से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है.

विकास और रोजगार

रोजगार का विकास एक अलग मसला है और संस्थाओं और कंपनियों का विकास अलग मसला है. एचडीएफसी बैंक का शेयर एक साल में पचपन प्रतिशत से ज्यादा ऊपर चढ़ चुका है. इसके मुनाफे लगातार बढ़ रहे हैं, फिर भी इस बैंक ने अपने कर्मचारियों की तादाद में इजाफा नहीं किया है. इस बैंक ने हजारों कर्मियों की छंटनी की है.

एचडीएफसी बैंक अपवाद नहीं है. अर्थव्यवस्था भले ही विकसित होती दिखाई दे. उसकी क्रेडिट रेटिंग बढ़ती दिखाई दे पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि रोजगार के मौके भी बढ़ रहे हैं. यानी वैसे रोजगार के मौके बढ़ने की संभावनाएं कम ही हैं, जैसा मौका आम नौजवान चाहता है.

तकनीक के रोजगार का भविष्य और अलग तरह से प्रभावित किया है. हजारों नौजवान बीटेक की डिग्री लिए घूम रहे हैं, नौकरी नहीं है. रोजगार के लिए बजट क्या कर सकता है, यह सवाल बड़ा सवाल है. अब नए कथ्य सामने आ रहे हैं कि सरकार की तरफ से ऐसे बयान आते हैं कि रोजगार का मतलब सिर्फ नौकरी नहीं है, कारोबार भी है. सरकार ने करीब नौ करोड़ मुद्रा कर्ज दिए हैं जिनसे 6 करोड़ से ज्यादा नौकरी के मौके पैदा हुए हैं. यानी नौकरी का मतलब सिर्फ संगठित क्षेत्र की नौकरी नहीं है.

बजट और शिक्षा कर्ज

गुजरात में पटेल समुदाय के बड़े हिस्से की बीजेपी से नाराजगी की कुछ ठोस वजहें थीं. इन वजहों में से कुछ को हार्दिक पटेल अपनी तरह से  सामने रखते थे. वह कहते थे कि पटेल समुदाय के बच्चों को आरक्षण के आधार पर सरकारी संस्थानों में एडमीशन नहीं मिलता. उन्हें निजी संस्थानों में जाना पड़ता है. निजी संस्थान बहुत महंगी शिक्षा देते हैं, उसके लिए कर्ज लेने पड़ते हैं. और निजी संस्थानों की महंगी डिग्री के बाद भी नौकरी मिलती नहीं है.

हाल के आंकड़े बताते हैं कि एजुकेशन लोन में एनपीए बढ़ा है. 2016-17 में एजुकेशन लोन का 7.67 प्रतिशत लोन डूब गया था. इससे दो साल पहले यह 5.7 फीसदी था. महंगे कर्ज लेकर पढ़ाई की फिर नौकरी नहीं मिली. तो कर्ज चुकाने की क्षमता नहीं है.

मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा सरकार से इस मसले पर नाराज है. बजट में सरकार को कुछ ऐसे प्रावधान लाने चाहिए कि एजुकेशन लोन सस्ता हो और जो शिक्षा कर्ज एनपीए बन गया हो, उसे आसानी से निपयाया जा सके. इस सवाल का जवाब भी बजट में मिलना चाहिए. अगर कंपनियों के लिए कर्जों का रियायती पुनर्गठन हो सकता है तो फिर छात्रों के लिए भी हो ही सकता है.

बजट और छोटा कारोबारी

जब साफ हो रहा है कि संगठित क्षेत्र, बड़ी कंपनियों और सरकारी नौकरियां नहीं बढ़ रही हैं तो फिर छोटा कारोबार एक रास्ता है. पर सिर्फ इतना कह देने से काम नहीं चलेगा कि आठ करोड़ या नौ करोड़ या दस करोड़ मुद्रा कर्ज दिए गए.

देखना होगा कि जमीनी सच्चाई में ऐसे कितने कारोबार ठीक ठाक चल पा रहे हैं. जमीनी सच्चाई यह है कि मुद्रा लोन देने में कई बैंक बहुत दिलचस्पी नहीं लेते. बजट अगर मुद्रा कर्ज को वाकई छोटे कारोबारी के लिए कामयाब बनाना चाहता है तो सरकार को दो लाख रुपए तक के कर्ज को या तो पांच साल के लिए ब्याज मुक्त करना होगा या फिर अधिकतम चार प्रतिशत ब्याज सालाना लेना होगा. तब ही छोटे कारोबार की संभावना बेहतर बन पाएगी.

अभी आंकड़े ये ही आ रहे हैं कि कितने मुद्रा लोन बंटे, उनके उपयोग से कितने ठोस कारोबार खड़े हुए, ये आंकड़े अभी आने बाकी हैं. बजट इन मसलों पर कुछ ठोस करता दिखेगा, तो ही रोजगार से जुड़े सवालों के ठीक ठाक जवाब आ पाएंगे.

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