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आपके डेटा की सुरक्षा का एक ही उपाय है- साइबर लोकपाल!

भारत में अब तक डेटा सुरक्षा के लिए वास्तविक कानून नहीं है. यहां सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट कानून और आईटी एक्ट 2002 है

Updated On: Mar 26, 2018 06:31 PM IST

Madhavan Narayanan

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आपके डेटा की सुरक्षा का एक ही उपाय है- साइबर लोकपाल!

पिछले हफ्ते डेटा के गलत इस्तेमाल से जुड़ी खबरें सुर्खियों में रहीं. डेटा को इकट्ठा करने, साइकॉलजिकल प्रोफाइलिंग और ब्रिटिश फर्म कैंब्रिज एनालिटिका और सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में वोटरों को प्रभावित करने के लिए कथित तौर पर अनैतिक तौर-तरीके के इस्तेमाल संबंधी खबरें मीडिया में प्रमुखता से छपीं. इसके बाद इंटरनेट ऐप से जुड़े डेटा इकट्ठा करने के किसी भी मामले को संदेह की नजर से देखा जा रहा है.

जाहिर तौर पर नरेंद्र मोदी ऐप भी विवाद का विषय बन गया है. आरोप लगाए जा रहे हैं कि पिछले हफ्ते अमेरिका और ब्रिटेन में हुए खुलासों की घटना की परवाह किए बिना अमेरिकी कंपनी को बगैर इजाजत के डेटा भेजे जा रहे हैं.

निजी जानकारी साझा करना पसंद लेकिन असुरक्षित होना गंवारा नहीं

रियल टाइम सोशल मीडिया के इस दौर में डेटा साइंस के धुंधले क्षेत्रों और राजनीति साजिश के मिल जाने पर नतीजे आग लगाने वाले हो सकते हैं. यहां सवाल यह है कि हमें ऐसे समाज के बारे में क्या समझने की जरूरत है, जिसके बारे में डिजिटल दौर के कार्यकर्ताओं की राय है कि वह निजी जानकारी साझा करना पसंद करता है, लेकिन उसका असुरक्षित होना उसे पसंद नहीं है.

पिछले हफ्ते मैंने थोड़े सा मजाकिया लहजे में कहा था कि सहमति का मामला 'सेक्स से डेटा तक' पहुंच गया है. सच यह है कि दोनों अलग-अलग तरीके से अहम हैं, लेकिन कम से कम पिछले हफ्ते हॉलीवुड के बदनाम निर्माता हार्वी वेनस्टेन और यहां तक कि ट्रंप के मुकाबले ज्यादा फोकस फेसबुक के सीईओ मार्क  जकरबर्ग पर रहा. गौरतलब है कि सेक्स को लेकर ट्रंप की ऊटपटांग हरकतें ने दुनियाभर में सुर्खियां बटोरी हैं.

चूंकि हम भारत में अब चुनावी साल में प्रवेश करने जा रहे हैं, लिहाजा कांग्रेस, बीजेपी और आप में डेटा के उपयोग और दुरुपयोग को लेकर एक-दूसरे पर हमले, बड़े आरोप लगाने की घटनाओं में निश्चित तौर पर बढ़ोतरी होगी. हमें ऐसी विचित्र स्थिति का भी सामना करना पड़ रहा है, जहां भारतीय वोटरों के दिमाग में अपनी शानदार पहुंच के कारण कल तक चुनाव आयोग की दोस्त रहीं गूगल और फेसबुक जैसी इकाइयां अचानक से अनचाहा जासूस बन रही हैं. एक गलत खबर इसके लिए पर्याप्त होती है. इस बीच बीजेपी पर आरोप लगाने के बाद कांग्रेस ने अपना ऐप डिलीट कर लिया है.

शांत होने की जरूरत

अब एक लंबी सांस लेना यानी स्थिर होने की जरूरत है. जहां तक ऐप का मामला है, तो चाहे वह फेसबुक हो या नरेंद्र मोदी इनका मकसद डेटा इकट्ठा करना होता है. लक्ष्य किए गए कंटेंट, सेल्स ऑफऱ या विज्ञापन गूगल, एमेजॉन और फेसबुक के बिजनेस मॉडल का हिस्सा हैं.

अचानक से तीन सख्त मुद्दे दांव पर लगे हैं. प्रोफाइल का अनैतिक इस्तेमाल; लोगों को वोट देने के लिए गुमराह करने में इस तरह के प्रोफाइल का इस्तेमाल (आप इसे डेटा आधारित छापेमारी कह सकते हैं); और वैश्विक स्तर पर जुड़े हुए सोशल नेटवर्क में विदेशी ताकतों की मौजूदगी या कथित दखलंदाजी.

FILE PHOTO: A 3D-printed Facebook logo is seen in front of a displayed stock graph in this illustration taken

भारत में कड़वी जमीनी हकीकत यह है कि हमें बिग ब्रदर सिंड्रोम (वरिष्ठ के तौर पर दबाव बनाने जैसा) की तरफ बढ़ने और इससे निपटने पर मजबूर होना पड़ रहा है. कानूनों का हकीकत से कोई वास्ता नहीं है. यह कुछ ऐसा है मानो सेक्स से आनंद की तलाश में जुटे किसी शख्स को अचानक से बताया जाए कि सेक्स से संक्रमित बीमारियों का भी खतरा होता है.

सुप्रीम कोर्ट में बहस जारी

सुप्रीम कोर्ट में फिलहाल इस बात को लेकर सुनवाई जारी है कि आधार के जरिए नागरिकों की डेटा सुरक्षा और स्वतंत्रता का हनन होता है या नहीं. हालांकि, कुछ समय पहले सर्वोच्च अदालत ने निजती के अधिकार को लेकर फैसला सुनाया था.

एक साल पहले सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में डेटा सुरक्षा अहम मुद्दा था. उस वक्त यूरोप में डेटा प्राइवेसी के उल्लंघन को लेकर ट्रेड यूनियनों ने बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (बीपीओ) कंपनियों पर निशाना साधा था. उसके बाद भारत समेत दुनियाभर में घटनाक्रम काफी बदल चुका है.

भारत में अब तक डेटा सुरक्षा के लिए वास्तविक कानून नहीं है. यहां सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट कानून और आईटी एक्ट 2002 है, जबकि डेटा सुरक्षा से जुड़े असली कानून पर अभी काम चल रहा है. जस्टिस श्रीकृष्ण कमेटी डेटा सुरक्षा संबंधी प्रस्तावित कानून का मसौदा तैयार कर रही है और उसने दो महीने पहले सार्वजनिक तौर पर सलाह-मशवरे की प्रक्रिया शुरू की है.

शायद अब वक्त गया है कि सुप्रीम कोर्ट इस विषय पर तुरंत अपनी राय पेश करे. साथ ही, श्रीकृष्ण कमेटी डेटा को लेकर जल्द से जल्द दिशा-निर्देश तैयार करे, ताकि धुंधली या अस्पष्ट बुनियाद पर फल-फूल रहे और गलत दिशा में मौजूद लोग और इकाइयां सबक लेते हुए खुद को सुधारें और राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य चीजों के हित में काम करें. राजनीतिक तौर पर कीचड़ उछालने के काम में डेटा मामलों के जरिए एक प्लेटफॉर्म मिल गया है. हालांकि, इस शोर-शराबे को नजरअंदाज कर सुरक्षा के वास्तविक मुद्दे पर फोकस करना हमारे के लिए बेहतर होगा.

बेहतर आइडिया है लोकपाल 

और इसमें डेटा के लिए लोकपाल का होना बेहतर आइडिया होगा. ऐसा डेटा लोकपाल जिसकी विश्वसनीयता हो और जो राजनीति तौर पर निष्पक्ष हो और विवाद व शोर-शराबे से निपटने के लिए तुरंत फैसला ले सके. संवैधानिक वैधता के साथ इसे अंजाम देना इसका सबसे बेहतर तरीका हो सकता है, क्योंकि सरकार के अनुकूल लोकपाल को संदेह की नजर से देखा जा सकता है. भारत की अदालतों में मुकदमों के भारी-भरकम बोझ है। मुकदमों की बड़ी संख्या पेंडिंग होने के कारण न्यायपालिका से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह इन मामलों पर विस्तार से बात करे. इससे न्यायपालिका के पास मुकदमों का बोझ और बढ़ जाएगा.

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