पहली नजर में पैसेंजर चार्टर के प्रस्ताव भारतीय विमानन क्षेत्र में ताजी हवा के झोंके की तरह हैं. ईश्वर का धन्यवाद कि सरकार हमारी परवाह करती है. लेकिन अगर गहराई से देखें तो इन प्रस्तावों में कुछ खास नहीं है. इससे पहले कि हम उन बिंदुओं को उठाएं कि क्या किया जाना चाहिए था, यह साफ कर देना जरूरी है कि नॉन-रिफंडेबल टिकट बहुत सस्ते होते हैं. एयरलाइंस दाम बढ़ाकर, जो कि अपनी मर्जी से डिमांड की आड़ लेकर वो सीजनल, त्योहारी या प्राकृतिक आपदा के नाम पर कभी भी कर देती हैं, खुशी-खुशी इस आदेश का पालन कर देंगी. इस तरह घाटे में पैसेंजर ही रहेगा.
दिखावटी लीपापोती
इसके तहत सिर्फ उन लोगों को यह रियायत दी जाएगी जो सीट बुकिंग कराने के 24 घंटे के अंदर कैंसिल कराएंगे और जिन्होंने टिकट निर्धारित डिपार्चर टाइम के 96 घंटे के अंदर खरीदा है. यह रियायत नाकाफी है. सभी एयरलाइंस कंपनियों ने इस दिखावटी लीपापोती पर राहत की सांस ली होगी, क्योंकि बहुत कम लोग इतनी देरी से टिकट बुक कराते हैं और अगर वह इस 4 दिन की सीमा के अंदर बुकिंग कराने में कामयाब भी होते हैं तो इनमें से ज्यादातर प्रभावशाली आला अधिकारी होते हैं, जिनमें से बहुत से कॉरपोरेट कंपनी के काम से या कारोबार के सिलसिले में सफर कर रहे होते हैं. अधिकांश लोग जो परिवार के लिए टिकट लेते हैं 320 पहले तक टिकट भी लेते हैं और जिनका औसत समय डिपार्चर से 90 दिन पहले का होता है.
फोर्ब्स में छपे एक लेख के मुताबिक 70 दिन पहले टिकट खरीदना अच्छी डील पाने के लिए आदर्श समय-अवधि होती है, जबकि एविएशन वेबसाइट cheapair के मुताबिक यह समय-अवधि 54 दिन है. बहुत पुरानी बात नहीं है जब फ्लाइट छूटने के समय के करीब खरीदने पर आपको बहुत सस्ते टिकट मिल जाते थे और आप देर रात रवाना होने और तड़के मंजिल पर पहुंचने वाली फ्लाइट के टिकट या स्टैंडबाई टिकट बहुत कम पैसे में खरीद सकते थे. ऐसे टिकट अब बीते जमाने की बात हो चुके हैं.
फायदा कैसे?
एक बार फिर बता दें कि खरीदने के 24 घंटे के अंदर टिकट कैंसिल करा देने वाले बहुत कम लोग होते हैं और ज्यादा संभावना है कि टिकट फ्लाइट के समय के करीब किसी इमरजेंसी, चाहे अच्छी हो बुरी या किसी अप्रत्याशित कारण से प्लान में बदलाव होने पर कैंसिल कराना पड़े. अगर नए नियम उड़ान से 72 घंटे के अंदर कैंसिल कराने पर लागू नहीं होते तो इस छूट का भला क्या फायदा है?
कोई भी जानबूझ कर टिकट कैंसिल नहीं कराना चाहता और किसी भी शख्स का नकारात्मक हालात का अंदाजा या उस पर नियंत्रण नहीं होता. नतीजन शुरुआती उत्साह के बाद आप पाएंगे कि इस ऐलान में खुश होने के लिए कुछ खास नहीं है, जो कि फिलहाल जनता द्वारा बदलाव के सुझाव देने के लिए खुली हुई है.
कड़वे तजुर्बे से भरी सिरदर्दी
और अगर हम इसमें कोई नई बात देखते भी हैं तो कौन इतनी कसरत और कागजी कार्यवाही पूरी कर पाएगा और उन बाधाओं को पार करेगा, जो कि एयरलाइंस आपके रास्ते में डाल देंगी, खासकर तब अगर आप ऑनलाइन टिकट खरीदते हैं. उनकी तरफ से सिर्फ जुबानी जमा खर्च और चक्कर कटाने से थककर आप हिम्मत हार बैठेंगे. मैं अभी भी एक लो कॉस्ट कैरियर एयरलाइंस का मेरा पैसा लौटाए जाने का इंतजार कर रहा हूं और इस बात को एक साल से ज्यादा समय हो चुका है, जब उन्होंने मुझे फोन करके बड़ी विनम्रता से यकीन दिलाया था कि मेरा पेमेंट तेजी से प्रोसेस किया जा रहा है. एक ऐसे सिस्टम में, जिसमें 300 पैसेंजर ए स्थान से बी स्थान को जा रहे हैं, मुमकिन है कि सभी ने अलग कीमत और छिपे हुए शुल्कों व ट्रिक्स (अच्छी सीट, पहले चेक-इन, ऑनलाइन फास्ट फारवर्ड, लास्ट ऑन फर्स्ट ऑफ और ऐसे ही बेहूदे तरीकों) के लिए भुगतान किया हो.
देश भर में आपको हजारों पैसेंजर मिल जाएंगे, जिनका ऐसा ही कड़वा तजुर्बा है. आइए आपको उस 500 रुपये का हिसाब बताता हूं जो आप पहले ही फर्स्ट ऑफ बैगेज के लिए देते हैं या आप ऑनलाइन चेक-इन करते हैं और सुरक्षित रूप से देरी से आने के लिए देते हैं. एयरपोर्ट पहुंचने पर आप एयरलाइंस से वादा निभाने की मांग करते हैं, लेकिन पाते हैं कि कोई ऑनलाइन क्यू नहीं है. आप जब शिकायत करने के लिए किसी जिम्मेदार आदमी को ढूंढते हैं तो एयरलाइंस का प्रतिनिधि भी पीछा छुड़ाकर लापता हो जाता है. आप सिर्फ इस बात से खुश हो जाते हैं कि आपको अपने बैग मिल गए. इस खेल में आप जितना खुश होना चाहें खुश हो लें, लेकिन जीतने वाले ताश के पत्ते तो एयरलाइंस के ही हाथ में हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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