एडिटर नोटः 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में एक विशेष अदालत ने पूर्व टेलीकॉम मिनिस्टर ए राजा और डीएमके एमपी कनिमोड़ी को बेगुनाह करार दिया है. यह लेख केवल एक सारांश है, जो इस घोटाले के बारे में बता रहा है. 2जी स्पेक्ट्रम का खुलासा सबसे पहले शालिनी सिंह ने की थी. पढ़िए उनकी यह रिपोर्ट.
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10 जनवरी 2008 को 2जी घोटाले का पहली बार खुलासा हुआ था. 1.76 लाख करोड़ रुपए का घोटाला कैसे हुआ, इस बात की जानकारी किसी को नहीं थी. टाइम्स ऑफ इंडिया में 20 से भी ज्यादा लेखों के जरिए मैंने इस बात को उजागर किया था. अब यह जगजाहिर है.
जब 2जी घोटाला बना पोस्टर बॉय
2जी घोटाले का खुलासा एक भ्रष्ट देश का पोस्टर बॉय बन गया था जिसमें करप्शन के पूरे 360 डिग्री का पता चलता था. इससे पता चला कि किस तरह से प्रशासनिक और राजनीतिक मिलीभगत से सरकारी नीतियों का उल्लंघन किया गया. निजी फायदे के लिए सरकारी खजाने को लूटा गया. इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में सभी अवैध टेलीकॉम लाइसेंस रद्द कर दिया.
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हमें भ्रष्ट मीडिया का बड़े कारोबारियों के साथ गठजोड़ और पीआर इंडस्ट्री (राडिया टेप्स) और सरकारी लॉ ऑफिसरों (सॉलिसिटर जनरल गुलाम वाहनवती) को कानून तोड़ने वाले के बचाव में देखने को मिला.
ए राजा ने मई 2007 में टेलीकॉम मिनिस्टर का पद संभाला. उस वक्त मुझे कई अन्य बीट्स के साथ टेलीकॉम बीट भी दी गई. रूटीन टेलीकॉम इवेंट्स को कवर करते वक्त एक इतने बड़े और पूरे देश को हिला देने वाले, सत्ताधारी यूपीए के राजनीतिक भाग्य को तय करने वाले स्कैंडल के तौर-तरीकों की परतें खुलनी शुरू हुईं.
अक्टूबर 2007 से नीतियों के उल्लंघन का ब्योरा
टेलीकॉम बीट के लिए इसकी शुरुआत नाटकीय तौर पर गोल्ड रश की स्टोरीज के साथ हुईं. संचार भवन में लाइसेंस के लिए आवेदनों का ढेर बढ़ता जा रहा था. इसमें एक सामान्य जानकारी यह थी कि 2008 में 2जी लाइसेंस 2001 के दाम पर दिए जाएंगे.
लेकिन, यह केवल इसके बारे में नहीं था. पसंदीदा कंपनियों को लाइसेंस देने में राजा ने उन्हें लाइन तोड़ने की इजाजत दी थी. इसके लिए खासतौर पर कट-ऑफ तारीख कर दी गई. पहले आओ-पहले पाओ जैसे नियम जोड़ दिए गए.
इसके जरिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज, फाइनेंस मिनिस्ट्री और अपने ही मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों की स्वच्छ और पारदर्शी नीलामी की सलाह की उपेक्षा की गई. इन सब का जिक्र 2012 में सुप्रीम कोर्ट के अहम फैसले के सेक्शन 70 (I-vii) में किया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में अपने फैसले में राजा के सभी अवैध तरीके से बांटे गए 122 लाइसेंस रद्द कर दिए हैं.
क्या हुआ था उस वक्त
राजा ने जमकर मनमानी की. हर नियम का उल्लंघन किया. उनकी की गई धांधली का पूरा ब्योरा दर्ज है. लेकिन, राजा बेलगाम थे. वह और उनकी टीम अपने प्लान के मुताबिक आगे बढ़ रही थी. उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि उनके इस मकसद से देश को 1.76 लाख करोड़ रुपए की लूट का सामना करना पड़ेगा. यह लूट दिनदहाड़े, सबकी आंखों के सामने की गई, जिससे देश में एक भूचाल आ गया.
पहले ही लेख में यह संकेत दिया गया कि 1,651 करोड़ रुपए की एंट्री फीस बहुत कम है और इससे लुटेरों की पूरी फौज आ खड़ी होगी. यह आर्टिकल 3 अक्टूबर 2007 को लिखा गया था. यह राजा के 2 नवंबर 2007 को मनमोहन सिंह के सामने अपनी योजनाओं का खाका पेश करने से एक महीने पहले और घोटाले से 3 महीने पहले लिखा गया था.
11 अक्टूबर 2007 को आर्टिकल की हेडिंग थी, ‘डीओटी (दूरसंचार विभाग) को मोबाइल लाइसेंस के लिए 575 आवेदन मिले.’, 24 अक्टूबर 2007 को आर्टिकल था, ‘स्पेक्ट्रम पॉलिसी में गड़बड़ी.’, 27 अक्टूबर 2007 के आर्टिकल का शीर्षक था, ‘2जी स्पेक्ट्रम वितरण का सबसे पारदर्शी तरीका नीलामी है.’, 5 नवंबर 2007 को लिखा, ‘डीओटी स्पेक्ट्रम की चिंताओं से घिरा.’, 6 नवंबर 2007 का आर्टिकल था, ‘राजा ने पीएम को बताया, नीलामी उचित नहीं.’, 9 नवंबर 2007 को लिखा, ‘डीओटी ने लाइसेंस आवेदनों पर आगे बढ़ने के लिए कहा.’, 12 नवंबर 2007 को, ‘डीओटी 26 आवेदनों को झटका देने की तैयारी में.’, 7 दिसंबर 2007 का आर्टिकल था, ‘डीओटी एलओआई देने को तैयार.’
क्या था लेख का नजरिया?
टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे गए लेख ‘दूरसंचार विभाग के तर्क से सहमत नहीं’, से यह साफ था कि राजा अवैध रूप से कटऑफ तारीख को 1 अक्टूबर 2007 से घटाकर 25 सितंबर 2007 पर लाने वाले हैं, ताकि 575 आवेदनों में से 121 लाइसेंस देने की सीमा बांध सकें. साथ ही यह दावा भी किया जा सके कि वह टेलीकॉम रेगुलेटर ट्राई की कोई पाबंदी की सिफारिश का पालन कर रहे हैं.
आर्टिकल्स में यह भी बताया गया कि किस तरह से 'पहले आओ, पहले पाओ' के जरिए सरकारी नीतियों का खुलेआम उल्लंघन किया गया. इसका पता 24 दिसंबर 2007 को एक आर्टिकल, ‘टेलीकॉम लाइसेंस मांगने वालों के लिए फीस भुगतान तारीख बेहद अहम’ के जरिए घोटाला होने से करीब तीन हफ्ते पहले चलता है. मैंने 27 दिसंबर 2007 को राजा की टीम में मौजूद मतभेदों के बारे में लिखा, ‘डीओटी विंग ने राजा को लेटर ऑफ इंटेंट (LOI) पर चेताया.’
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इसके बाद जैसे ही स्वान और यूनिटेक सौदों में जबरदस्त फायदे हुए, तब मैंने पहली बार 30 अक्टूबर 2008 को यह बताया कि ‘वैल्यूएशन के हिसाब से सरकार को नुकसान हुआ.’, और 1 नवंबर 2008 को मैंने लिखा, ‘टेलीकॉम डील्स से एंटरप्राइज वैल्यू दिखती हैः डीओटी एक्सपर्ट्स के मुताबिक, यह वैल्यू स्पेक्ट्रम के लिए है.’
इन आर्टिकल्स में स्वान और एतिसलात के ट्रांजैक्शंस से 45,000 करोड़ रुपए के अनुमानित लॉस का खुलासा किया गया था. इस खुलासे के बाद राजा ने 5 नवंबर 2007 को तय किया कि प्रमोटरों की इक्विटी की बिक्री पर रोक लगाई जाए. दो साल बाद, कैग ने अपनी रिपोर्ट में स्वान और यूनिटेक डील्स से निकले आंकड़े के मुताबिक ही 122 लाइसेंस पर हुए लॉस का आंकड़ा दिया.
छह महीने बाद कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘2जी स्पेक्ट्रम की नीलामी न करके सरकार को 1 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का लॉस हुआ है.’ इससे 3जी की कीमतों के आधार पर यह लॉस तकरीबन 1,02,511 करोड़ रुपए बैठता है.
2जी स्कैम की कहानी
राजा ने स्पेक्ट्रम की बिक्री की. यह दुर्लभ राष्ट्रीय संसाधन था. इसकी बिक्री कंपनियों को न के बराबर कीमत पर की गई. इससे सरकारी खजाने को 1.76 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ. ऐसा कोई कानून या सत्ता नहीं थी जो राजा को 2008 में एक खुली, ट्रांसपेरेंट नीलामी करने के लिए मजबूर करती.
उस वक्त निवेशक लाइसेंस के लिए कतार में थे. राजा ने 2001 में अखिल भारतीय स्पेक्ट्रम का आवंटन सिर्फ 1,651 करोड़ रुपए में देने के अलावा भी राजा पर कई आरोप थे. उन्होंने 'पहले आओ, पहले पाओ' की नीति अपनाई, जिससे वह जनवरी 2008 में चुनिंदा कंपनियों को स्पेक्ट्रम देने में सफल रहे.
बमुश्किल 10 महीने बाद ही नए लाइसेंस हासिल करने वाली कुछ कंपनियों ने इस कीमत के सात गुने पर मोटे मुनाफे वाली इक्विटी डील्स कर लीं, जबकि उन्होंने इंफ्रास्ट्रक्चर पर एक पैसा भी खर्च नहीं किया था.
ए राजा की कारगुजारी चिंताजनक रूप से आसान थी. राजा के मई 2007 में टेलीकॉम मिनिस्टर बनने के बाद कई ऐसी कंपनियां जिनके बारे में कोई जानकारी नहीं थी. जिनका टेलीकॉम बिजनेस से कोई लेना देना नहीं था. यहां तक कि रियल एस्टेट की भी कई कंपनियों ने स्पेक्ट्रम के लिए आवेदन कर दिया.
अचानक, 25 सितंबर 2007 को उन्होंने कहा कि आवेदनों के लिए विंडो 1 अक्टूबर को बंद हो जाएगी. इससे यह सुनिश्चित हुआ कि कोई ग्लोबल फर्म इसके लिए आवेदन न कर पाए. साफ था कि कोई पार्टनर तलाश करने, एफआईपीबी क्लीयरेंस लेने, या पेड-अप कैपिटल जुटाने के लिए तीन दिन का वक्त बेहद कम था.
बाद में मंत्री ने 25 सितंबर को वास्तविक कट-ऑफ तारीख तय कर दी. इससे उन्हें मनमाने तरीके से 46 कंपनियों में से 9 कंपनियों को चुनने की आजादी मिली. इन सभी 46 कंपनियों ने 575 लाइसेंस के लिए आवेदन किए थे. इन फैसलों को लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम इस सब पर आंखें मूंदे रखना बेहतर समझा.
कुछ घंटों के नोटिस पर हुआ पूरा काम
10 जनवरी 2008 को महज कुछ घंटों के नोटिस पर राजा ने करीब 9,200 करोड़ रुपए में 120 लाइसेंस आवंटित कर दिए. 'पहले आओ, पहले पाओ' नियम ने यह सुनिश्चित किया कि कंपनियां स्पेक्ट्रम की लाइन तोड़कर आगे आने के लिए अधिकतम मुमकिन जोड़तोड़ करें.
ए राजा ने एनडीए सरकार के 2003 के कैबिनेट के एक फैसले का सहारा लिया. टेलीकॉम रेगुलेटरी ट्राई की 2007 की 178 पेज की सिफारिशों में से केवल एक पैरा अपने बचाव के लिए इस्तेमाल किया. राजा ने कहा कि ये दस्तावेज 'पहले आओ, पहले पाओ' नीति का पक्ष लेते हैं. ट्राई समेत उनके आलोचक उन्हीं दस्तावेजों में नीलामी की तरजीह को दिखाते हैं.
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बाद में ट्राई की मर्जर्स एंड एक्वीजिशन (विलय और अधिग्रहण) पर गाइडलाइंस को सुविधा के हिसाब से बदल दिया गया. यह दिखाया गया कि नए लाइसेंसों से सरकार को जबरदस्त फायदा हुआ है. एक्वीजिशंस के लिए चालाकी से दरवाजा खुला छोड़ दिया गया. इससे नए लाइसेंस धारकों को विदेशी कंपनियों को लुभाकर मोटी कमाई करने का मौका मिला.
इन विदेशी कंपनियों को जानबूझकर लाइसेंस हासिल करने की प्रक्रिया से दूर रखा गया था. जो पैसा सरकारी खजाने में आना चाहिए था, वह अमीर उद्योगपतियों की जेब में गया. अकाउंटेबिलिटी और मसले हल करने के लिए मनमोहन सिंह को भेजे गए अनगिनत पत्रों का कोई जवाब नहीं आया.
राजा के कथित गलत कामों के खिलाफ पीआईएल को दिल्ली हाईकोर्ट ने 2008 में स्वीकार किया. कोर्ट की सुनवाई में वास्तविक मसले पता चलते और टेलीकॉम मिनिस्ट्री के झूठों का पर्दाफाश हुआ.
फरवरी 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने 2008 में महज 9,200 करोड़ में आवंटित किए गए सभी 122 लाइसेंस रद्द कर दिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन नीलामी के जरिए होना चाहिए. 2010 से 2016 के दौरान स्पेक्ट्रम की नीलामी से 3.6 लाख करोड़ रुपए सरकारी खजाने को मिले.
ऐसा तब हुआ जब स्टॉक मार्केट्स अपना बेस्ट परफॉर्मेंस नहीं कर रहे थे. अगर 10 जनवरी 2008 को नीलामी की जाती, जब स्टॉक मार्केट अपने चरम पर थे तो सरकारी खजाने में इससे भारी रकम आती. आदालत के लिए 2जी स्कैम एक लैंडमार्क फैसले का मौका है ताकि कानून और न्याय की जीत हो सके.
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