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पेरिस जलवायु समझौता: क्या है और क्यों इससे अलग हुआ अमेरिका?

इंडस्ट्रीलाइजेशन की शुरुआत के बाद धरती के तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है.

Piyush Raj

दुनिया भर में ग्लोबल वॉर्मिंग का दुष्प्रभाव नजर आ रहा है. तेजी से बढ़ते इंडस्ट्रीलाइजेशन के बीच पेरिस समझौते की अहमियत पहले के मुकाबले बढ़ती जा रही है. लेकिन अमेरिका के नए प्रेसिडेंट ने खुद को इस समझौते से अलग करके एक नई बहस शुरू कर दी है.

इंडस्ट्रीलाइजेशन के बाद प्रकृति का काफी तेजी से दोहन हुआ है और इसका असर प्रकृति और जलवायु पर साफ नजर आ रहा है. कल-कारखानों ने निकलने वाले ग्रीन-हाउस गैसों के कारण धरती का तापमान तेजी से बढ़ रहा है और 'ग्लोबल वॉर्मिंग' जैसे टर्म आम हो गए हैं.


क्या है ग्लोबल वार्मिंग?

ग्रीन हाउस गैस धरती से लौटने वाली सूरज की गर्मी को सोखकर धरती के तापमान को संतुलित रखती हैं. लेकिन अगर धरती पर इन गैसों की मात्रा बढ़ जाए तो धरती का तापमान भी बढ़ जाएगा.

कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, ओजोन, कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड आदि ग्रीन हाउस गैसें हैं. कोयला, पेट्रोलियम पदार्थों, फ्रिज, एसी के प्रयोग से इन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है. इस वजह से धरती पर ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा काफी बढ़ गई है. इसका सीधा प्रभाव धरती के तापमान पर पड़ा है.

एक स्टडी के अनुसार 1750 से अब तक यानी इंडस्ट्रीलाइजेशन की शुरुआत के बाद धरती के तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है. धरती के तापमान में हो रही इसी बढ़ोतरी को ‘ग्लोबल वार्मिंग’ कहते हैं.

चूंकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं हो रहा है इस वजह से धरती का तापमान बढ़ता ही जा रहा है. इसका सीधा प्रभाव फसलों के उत्पादन, ग्लेशियर्स, कोरल रीफ आदि पर पड़ रहा है.

ऐसा माना जा रहा है अगर धरती के औसत तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक की बढ़ोतरी हो जाएगी तो दुनिया के कई तटीय क्षेत्र ग्लेशियर्स के पिघलने की वजह से डूब जाएंगे. साथ ही कई द्वीप भी समुद्र में डूब जाएंगे.

दुनिया के देशों ने संयुक्त राष्ट्रसंघ की अगुवाई में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के इन खतरों को देखते हुए एक साथ आने का फैसला लिया. ग्रीन हाउस गैसों खासकर कार्बन के उत्सर्जन को कम करने के लिए कई समझौते किए गए.

यूं शुरू हुई धरती को बचाने की मुहिम

जलवायु परिवर्तन पर लगाम लगाने के लिए सबसे पहले 1992 में रियो डी जनेरियो में संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा ‘पृथ्वी सम्मलेन’ का आयोजन किया गया. इस सम्मलेन में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) का गठन हुआ.

इसके गठन का उद्देश्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना था. अभी इसमें अमेरिका सहित कुल 191 देश शामिल हैं. इन देशों के सम्मलेन को ‘कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (सीओपी) कहा जाता है.

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‘ग्लोबल वार्मिंग’ के खतरों से निपटने की दिशा में सबसे पहला निर्णायक कदम 1997 में हुआ ‘क्योटो प्रोटोकाल’ है. इस संधि के तहत सभी देशों ने मिलकर यह फैसला लिया कि वे 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर में 1990 में हो रहे ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के स्तर से 5.2 फीसदी की कमी करेंगे. हालांकि यह समझौता 2005 में प्रभाव में आया.

‘क्योटो प्रोटोकाल’ के बाद भी जलवायु परिवर्तन पर एक समझौते की जरूरत बनी रही. खासकर कार्बन के उत्सर्जन को कम करने को लेकर क्योंकि कार्बन जनित गैसों का हिस्सा ही ग्रीन हाउस गैसों में सबसे अधिक है.

यूं हुआ पेरिस समझौता?

इसके बाद दिसम्बर, 2015 में पेरिस में हुई सीओपी की 21वीं बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के जरिए वैश्विक तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस के अंदर सीमित रखने और 1.5 डिग्री सेल्सियस के आदर्श लक्ष्य को लेकर एक व्यापक सहमति बनी थी.

इस बैठक के बाद सामने आए 18 पन्नों के दस्तावेज को सीओपी-21 समझौता या पेरिस समझौता कहा जाता है. अक्टूबर, 2016 तक 191 सदस्य देश इस समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके थे. इस समझौते के तहत सभी सदस्य देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन में कमी लानी थी.

लेकिन यह समझौता विकसित और विकासशील देशों पर एक सामान नहीं लागू किया जा सकता था. इस वजह से इस समझौते में विकासशील देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए आर्थिक सहायता और कई तरह की छूटों का प्रावधान किया गया है.

क्यों नाराज हैं ट्रंप?

ट्रंप विकासशील देशों खासकर भारत और चीन को दिए हुए इन छूटों से नाखुश थे. दरअसल ट्रंप अमेरिकी कंजरवेटिव पार्टी के उस धड़े से सहमत रहे हैं, जो मानता है कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ता वैश्विक तापमान एक थोथी आशंका है. इस वजह से ये लोग कार्बन उत्सर्जन में कटौती से अमेरिका के औद्योगिक हितों के प्रभावित होने की बात करते रहे हैं.

देश की जीडीपी दर और आर्थिक संपन्नता घटने की बात भी कहते रहे हैं. इस गुट की इन्हीं धारणाओं के चलते ट्रंप ने चुनाव में ‘अमेरिका फस्ट’ और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का नारा दिया था.

राष्ट्रपति चुने जाने के बाद कई बार ट्रंप अमेरिका के इस समझौते से अलग होने की संभावना जता चुके थे.

क्या हैं ट्रंप के आरोप?

ट्रंप ने भारत और चीन पर आरोप लगाया कि इन दोनों देशों ने विकसित देशों से अरबों डॉलर की मदद लेने की शर्त दस्तखत किए हैं. लिहाजा यह समझौता अमेरिका के आर्थिक हितों को प्रभावित करने वाला है.

यही नहीं ट्रंप ने आगे कहा कि भारत ने 2020 तक अपना कोयला उत्पादन दोगुना करने की अनुमति भी ले ली है. वहीं चीन ने कोयले से चलने वाले सैकड़ों बिजलीघर चालू करने की शर्त पर दस्तखत किए हैं. उहोने कहा कि यह समझौता अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाने वाला है.

उन्होंने यह भी कहा कि मैं अमेरिका के नागरिकों का प्रतिनिधित्व करने के लिये चुना गया हूं न कि पेरिस संधि के प्रतिनिधित्व के लिए? इसलिए मैं हर उस समझौते को तोड़ दूंगा, जिसमें अमेरिकी हितों का ध्यान नहीं रखा गया है.

ट्रंप ने यह भी कहा कि संयुक्त राष्ट्र की ‘हरित जलवायु निधि’ अमेरिका से धन हथियाने की साजिश है. ट्रंप ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि ओबामा प्रशासन ने इस समझौते के तहत गरीब देशों को कार्बन उत्सर्जन कम करने में मदद के लिए 3 बिलियन डॉलर देने का फैसला लिया था. इसमें से 1 बिलियन डॉलर अमेरिका दे भी चुका है.

चीन के बाद अमेरिका ऐसा देश है, जो सर्वाधिक 16.4 फीसदी कार्बन उत्सर्जन करता है. जून 2016 की वर्ल्ड एनर्जी स्टैटिक्स के अनुसार चीन दुनिया में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन 27.3 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है. जबकि भारत सिर्फ 6.6 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन में करता है.