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भारत को नई चीन नीति की सख्त जरूरत क्यों है

भारत के नजरिए से देखें तो समय आ गया है जब आपसी रिश्ते पारस्परिक सहमति योग्य हितों पर आधारित होने चाहिए.

Sreemoy Talukdar

हर तरफ नोटबंदी को लेकर मचे हाहाकार और नियंत्रण रेखा के उस पार से दागे जाने वाले मोर्टार गोलों की ही चर्चा है. यही दो मुद्दे सुर्खियों में छाए हैं. लेकिन इनके बीच एक और मुद्दा है, जिस पर इतना ही ध्यान देने की जरूरत है. क्योंकि यह हमारे भविष्य से जुड़ी है. भारत को एक नई चीन नीति की सख्त जरूरत है.

1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद तीन दशक तक रिश्ते कमोबेश संतुलित रहे और जब 1993 में सीमा पर शांति से जुड़ा 'बॉर्डर पीस एंड ट्रैंकुएलिटी एग्रीमेंट' हुआ तो रिश्तों में और स्थिरता आ गई.


पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने पीवी नरसिंह राव सरकार के दौर में इस समझौते को कराने में अहम भूमिका निभाई. उन्होंने भारत-चीन संबंधों पर एक किताब भी लिखी.

चॉइसिस: इनसाइड द मेकिंग ऑफ इंडियाज फॉरेन पॉलिसी (176 पन्ने, ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूट प्रेस, 18 अक्टूबर, 2016) में मेनन ने इस समझौते को दुनिया में सबसे लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवादों में से एक बताया.

उनके मुताबिक वास्तविक नियंत्रण रेखा के आर-पार इस विवाद को ठंडा रखा गया क्योंकि भारत और चीन दोनों अपनी अर्थव्यवस्थाओं को विकसित करने में लगे हैं. यह दोनों देश सीमा विवाद को ठंडे बस्ते में डाल आपसी संबंध मजबूत कर रहे हैं.

इस समझौते ने यथास्थिति को बनाए रखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर कम से कम 16 जगहों पर सीमांकन पर मतभेद होने के बावजूद शांति बनी रही है. मेनन लिखते हैं कि ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि दोनों देशों को इस बात में फायदा दिखा. दोतरफा व्यापार और आपसी संबंधों को 'युद्ध की पाबंदियों और अवरोधों' से अलग रखा जाए.

बदला शक्ति का संतुलन

लगभग 25 साल तक भारत के लिए यह नीति फायदेमंद रही. जिस तेजी से विदेश नीति बदली है, उसमें 25 साल एक लंबा समय है. लेकिन अब विदेश नीति गतिशील नहीं दिखती.

शी जिनपिंग (रायटर इमेज)

अब इस बात के लगातार संकेत मिल रहे हैं कि भारत और चीन के बीच ताकत का संतुलन बदल गया है. अब दोनों के बीच पहले के मुकाबले कम संतुलन है. दोनों सीधे टकराव के रास्ते पर तो नहीं है लेकिन कई मुद्दों पर आपस में भिड़ते भी दिख रहे हैं. दोनों 21वीं सदी की उभरती हुई शक्तियां बनने के रास्ते पर हैं.

बात सिर्फ पारस्परिक हित के टकराव की नहीं है. चीन-भारत संबंधों का नए सिरे से मूल्यांकन इसलिए भी बेहद जरूरी हो गया है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का संतुलन भी बदल रहा है.

अमेरिका ज्यादा अंतर्मुखी होना चाह रहा है जिससे शीत युद्ध के बाद वाले उस युग के खत्म होने का संकेत मिलता है. जहां अमेरिका अकेला महाशक्ति था.

अमेरिका का दबदबा घट रहा है और चीन की ताकत बढ़ रही है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन एक औद्योगिक शक्ति बन रहा है.

मेनन अपनी किताब में कहते हैं कि 21वीं सदी शुरू होने के बाद से लगता है कि चीन ने साफ तौर पर तंग शियाओफिंग की 24 चीनी शब्दों वाली रणनीति त्याग दी है.

जिसका अनुवाद कुछ यूं है: 'शांति बनाए रखो, अपने स्थान को सुरक्षित रखो, मामलों के साथ शांति से निपटो, अपनी क्षमता को छिपाओ और समय की प्रतीक्षा करो, लो प्रोफाइल रहते हुए अच्छे बनो और कभी नेतृत्व का दावा मत करो.'

नया चीन, नए कायदे

एक राष्ट्रवादी राष्ट्रपति के शासन में चीन को अब अपनी क्षमता को छिपाने और लो प्रोफाइल रहने में कोई फायदा दिखाई नहीं देता है. यह पीछे कदम खींच रहे अमेरिका से दुनिया का नेतृत्व अपने हाथ में लेना चाहता है. अपनी ताकत दिखाने वाली आक्रामक विदेश नीति अपनाकर चीन दुनिया में अपना दखल बढ़ाना चाहता है.

अपने पड़ोसी देशों के साथ वह अपने रणनीतिक और सामुद्रिक संबंधों का नए सिरे से आकलन कर रहा है. चीन को अब किसी समय का इंतजार नहीं है.

हाल के सालों में चीन ने एशिया और यूरेशिया इलाके में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए अच्छा खासा निवेश किया है. वह बंदरगाहों का एक जबरदस्त नेटवर्क खड़ा कर रहा है.

हिंद महासागर और पश्चिमी प्रशांत महासागर के तटों पर बुनियादी ढांचे का निर्माण कर रहा है.  यह उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के लिए शुरुआती आधार हो सकता है. इसके चलते निश्चित तौर पर एक अन्य क्षेत्रीय शक्ति भारत और फिलहाल अकेली महाशक्ति अमेरिका के साथ उसका तनाव बढ़ा है.

हाल के घटनाक्रम पर एक सरसरी निगाह भी डालें तो पता चल जाता है कि चीन किस आत्मविश्वास के साथ उभर रहा है. जब उसके रणनीति और सैन्य हितों की बात आती है तो वह नियमों की परवाह नहीं करता. जैसे दक्षिण चीन सागर के मुद्दे पर हेग ट्रिब्यूनल के फैसले को नहीं मानना.

लेकिन बात जब अन्य देशों के रणनीतिक हितों के सम्मान की आती है तो वह सारे नियम कायदे बताने लगता है. आपको याद होगा कि कैसे चीन ने परमाणु अप्रसार संधि का हवाला देते हुए एनएसजी में भारत के शामिल होने की कोशिशों में अड़ंगा लगाया.

वन इंडिया पॉलिसी का क्या

चीन डोनॉल्ड ट्रंप से नाराज है क्योंकि उन्होंने फोन पर ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन की बधाई स्वीकार कर ली. चीन ने कहा कि ट्रंप वन चाइना पॉलिसी का उल्लंघन कर रहे हैं.

वही चीन कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान का साथ देता है और तब उसे भारत की वन इंडिया पॉलिसी का कोई ख्याल नहीं आता. चीन का बढ़ता प्रभाव सिर्फ उसके दुनिया में राजनीतिक दखल के पाखंड तक ही सीमित नहीं है.

 समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने खबर दी है कि चीन ने दक्षिण चीन सागर में बनाए सात कृत्रिम द्वीपों पर एंटी एयरक्राफ्ट और एंटी मिसाइल सिस्टम समेत आधुनिक हथियार तैनात किए हैं. ऐसा करके उसने विवादित क्षेत्र को लेकर अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन किया है.

इतना ही नहीं, उसने दक्षिण चीन सागर में एक अमेरिकी ओशिएनोग्राफिक पोत की तरफ से पानी में तैनात एक ड्रोन को भी गुरुवार को जब्त कर लिया. अमेरिका ने राजनयिक स्तर पर इसे लेकर विरोध जताया जबकि पेंटागन ने इसे वापस करने की मांग की है.

अमेरिकी सीनेटर बेन कार्डिन ने शुक्रवार को रॉयटर्स को बताया कि ड्रोन को जब्त किया जाना 'अंतरराष्ट्रीय कानून का खुलेआम उल्लंघन है.'

ड्रैगन की धमकी

यहां समझने वाली बात यह है कि अगर चीन अमेरिका के साथ ऐसा कर सकता है तो भारत के साथ ऐसा करने से पहले वो एक बार भी नहीं सोचेगा. टेलीग्राफ ने खबर दी है कि शुक्रवार को चीन भड़क गया और उसने भारत को दोतरफा संबंधों पर असर पड़ने की धमकी दी है.

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बाल शिखर सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर राष्ट्रपति भवन में दलाई लामा का स्वागत किया.

भारत ने चीन की चिंताओं को खारिज कर दिया. उसका कहना है कि तिब्बत के आध्यात्मिक नेता एक गैर-राजनीतिक आयोजन में हिस्सा ले रहे थे. लेकिन इस तरह दबाव बनाना लगातार चीनी रुख का हिस्सा रहा है.

ऐसी ही धमकी चीन ने तब दी थी, जब भारत ने मंगोलिया को एक अरब डॉलर की मदद का वादा किया था. मंगोलिया को भी अपने यहां दलाई लामा का स्वागत करने पर चीनी की धौंस सुननी पड़ी थी.

पीटीआई के अनुसार जब भारत ने नेपाल के साथ चीन की कार्गो सर्विस पर आपत्ति जताई तो चीन ने भारत के साथ रिश्तों में 'बेशुमार परेशानियों' की चेतावनी दी थी. साथ ही उसने मंगोलिया के लिए भातीय मदद को चीन का असर करने के लिए 'रिश्वत' का नाम दिया था.

तो भारत का क्या करे

भारत अभी तक लगभग मौन ही रहा है लेकिन अगर और चुप रहा तो उसे इसके नतीजे भुगतने होंगे. इसका यह मतलब नहीं है कि भारत को चीन के साथ लड़ाई छेड़ देनी चाहिए. ड्रैगन एक रणनीतिक हथियार के तौर पर उकसावे का प्रयोग करता है ताकि उसका संदेश सब जगह चला जाए.

भारत के लिए उसका संदेश साफ है कि चीन ज्यादा बड़ी राजनीतिक और सैन्य ताकत है. भारत को अपने रणनीतिक हितों की रूपरेखा बनाते समय यह बात ध्यान में रखनी चाहिए.

भारत के नजरिए से देखें, तो समय आ गया है जब आपसी रिश्ते पारस्परिक सहमति योग्य हितों पर आधारित होने चाहिए. अगर भारत को बड़ा बनना है तो चीन के साथ शांति बहुत जरूरी है.