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जीत चाहे किसी की हो, हार ट्रंप और हिलेरी दोनों की होनी है

अमेरिकी राजनीति के इतिहास में राष्‍ट्रपति पद के ऐसे दो उम्‍मीदवार कभी भी देखने में नहीं आए हैं जिनके बीच ऐसी कांटे की टक्‍कर रही हो. जॉर्ज बुश जूनियर तक के चुनाव में ऐसा नहीं हुआ था.

Bikram Vohra

अब कहने को कुछ नहीं बचा है. राजनीतिक पंडितों और विश्‍लेषकों ने हर तरह की संभावना पर विचार कर लिया है. सारे समीकरण जोड़-घटा लिए हैं और हर संभव नतीजे का अनुमान लगाया जा चुका है. जाहिर है, इतनी कवायद के बाद कोई न कोई तो सही परिणाम पर पहुंचा ही होगा. आखिर बंद घड़ी भी दिन में दो बार सही वक्‍त बताती है.

हकीकत यह है कि नतीजे का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता, सिवाय इस तुक्‍के के कि मुकाबला बेहद करीबी है. अमेरिकी राजनीति के इतिहास में राष्‍ट्रपति पद के ऐसे दो उम्‍मीदवार कभी भी देखने में नहीं आए हैं, जिनके बीच ऐसी कांटे की टक्‍कर रही हो. जॉर्ज बुश जूनियर तक के चुनाव में ऐसा नहीं हुआ था.


यदि मुझे इस पर दांव लगाना होता और चूंकि किसी न किसी को तो विजेता घोषित किया ही जाना है (उपलब्‍ध संकेतों के बजाय अगर दिल की मानें), तो मैं हिलेरी के नाम पर मुहर लगाता. इसलिए नहीं कि उनकी रफ्तार बहुत तेज है या उनकी कोई नई लहर है, बल्कि इसलिए क्‍योंकि इलेक्‍टोरल कॉलेज के वोट पड़ने और उसके संकल्‍प सार्वजनिक होने तक ट्रंप का असर धीरे-धीरे कम होता जाएगा. सट्टा लगाने वाली सात शीर्ष अंतरराष्‍ट्रीय एजेंसियों ने हिलेरी को ट्रंप के ऊपर चार अंकों की बढ़त दी है. मसलन, लैडब्रूक्‍स ने क्लिंटन की जीत की 83 फीसदी उम्मीद जताई है.

पॉपुलर वोटों की गिनती मौजूदा हालात पर असर डालने में कारगर नहीं है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितने लोग ट्रंप या हिलेरी को वोट देते हैं, क्‍योंकि इलेक्‍टर्स परंपरागत रूप से अपने किए वादे के पक्ष में ही खड़े रहते हैं.

अधिकतर लोग यह भूल जाते हैं कि जनता यहां सीधे राष्‍ट्रपति को नहीं चुनती है. यह काम 538 इलेक्‍टर्स करते हैं और वे अपने वोट आने वाले कुछ दिनों तक डालते ही रहेंगे.

उलटफेर की गुंजाइश

अमेरिका का 45वां राष्‍ट्रपति नामांकित करने के लिए इस इलेक्‍टोरल कॉलेज के पास जनता के वोट जुटाने में अब जबकि केवल कुछ घंटे बचे हैं, तो क्‍या किसी बड़े उलटफेर की गुंजाइश बाकी है? रेनो में अपनी सभा के दौरान हथियार की अफवाह उड़ने के बाद कुछ देर के लिए ट्रंप को मंच से नीचे उतरना पड़ा था और बाद में उन्‍होंने अपना भाषण पूरा किया. उनकी अपनाई जॉन वेन वाली शैली ने हालांकि उनका कुछ भी भला नहीं किया. यह बात अलग है कि हिलेरी के लिए इस्‍तेमाल किए उनके अपशब्‍द और भ्रष्‍टाचार के आरोपों ने भले ही लोगों के दिमाग में जगह बना ली होगी.

इस दौरान एफबीआइ ने हिलेरी के मामले में जो अपने कदम वापस खींचे, उसमें काफी देरी हो चुकी थी क्‍योंकि तब तक चार करोड़ से ऊपर वोट पड़ चुके थे और अगर वे हार जाती हैं, तो वे उसके लिए आसानी से इस गलत आरोप को जिम्‍मेदार ठहरा सकती हैं.

वैसे, यह मामला भी गढ़ा हुआ ही जान पड़ता है.

आतंकी चेतावनी का इसके मुकाबले हालांकि ज्‍यादा असर हो सकता था, लेकिन चीजें जहां पहुंच चुकी थीं, ऐसा लगता है कि दोनों प्रतिद्वंद्वियों के बीच हिलेरी ही फायदे की स्थिति में हैं.

वैसे, न तो अमेरिकी जनता और न ही यह दुनिया दोनों में से किसी एक को विजेता मानकर चल रही है. इस चुनाव में न तो केनेडी वाला आकर्षण है, न रीगनवादी बर्बरता के संकेत हैं, न ही सत्‍ता को लेकर उस मूर्खता का प्रदर्शन है जैसा एलबीजे के दौर में दिखा था. इस चुनाव में निक्‍सन वाला छल-कपट भी नहीं दिख रहा और ओबामा जैसी जुमलेबाजी भी नहीं मौजूद है.

चुनाव मे ही उधड़े दोनो उम्मीदवार

पिछले छह महीनों के दौरान चुनाव प्रचार में क्षत-विक्षत हो चुके ट्रंप और हिलेरी में से जो भी ओवल ऑफिस में कदम रखेगा, उसमें देखने को कुछ खास बचा नहीं होगा. इन्‍होंने जिस तरीके से प्रचार किया है, जिन मूल्‍यों के साथ ये खड़े हुए हैं और जो भाषा इन्‍होंने अपनाई है, वह जनता की स्‍मृति से इतनी आसानी से नहीं छीजने वाली है. दोनों में से चाहे जो भी जीते, सीनेट और हाउस के कड़े इम्तिहान से उसे गुज़रना पड़ेगा और यह राह इतनी आसान नहीं होगी.

अमेरिकी सियासत में एक नया दौर करवट ले रहा है. विडंबना है कि इस दौर को प्रकाशित करने वाला न तो कोई चमकदार पल है और न ही इसे याद रखने लायक कोई भव्‍य दृश्‍य. न झंडियां हैं न पताकाएं. केवल दो थके-हारे प्रत्‍याशी हैं जो जीत और हार के बीच खुद को बमुश्किल घसीट रहे हैं. दूसरी ओर एक थका हुआ राष्‍ट्र है जिसे केवल इतनी सी राहत है कि किसी तरह यह शर्मनाक प्रहसन अब जाकर खत्‍म तो हुआ.

गर्ज ये कि यह दुनिया के सबसे ताकतवर शख्‍स का चुनाव है.