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महारानी विक्टोरिया के सबसे खास अब्दुल को आखिर मिला सही मुकाम

लंबे समय से ब्रिटिश व्यवस्था अब्दुल को इतिहास से मिटाना चाहती थी

FP Staff

जानीमानी लेखिका श्राबणी बसु ने कहा है कि ब्रिटेन की शाही दरबार में मुंशी के पद पर काम करने वाले भारतीय अब्दुल करीम को इतिहास में आखिरकार उनका सही मुकाम मिल गया है. करीम 19वीं सदी में महारानी विक्टोरिया के मुंशी के तौर पर काम करते थे.

लगभग 6-7 साल पहले आई श्राबणी बसु की किताब ‘विक्टोरिया एंड अब्दुल: द एक्सट्राऑर्डिनरी ट्रू स्टोरी ऑफ द क्वीन्स क्लोजेस्ट कान्फिडैंट’ में विक्टोरिया और अब्दुल से संबंधों पर बात की गई थी. इस साल की शुरुआत में इस पर ‘विक्टोरिया एंड अब्दुल’ नामक फिल्म बनी जो काफी सफल हुई.


श्राबणी ने कहा, ‘‘लेसेस्टर स्कवायर पर लगी अब्दुल की तस्वीर को देखना सुखद रहा. यह वही शख्स था जिसे ब्रिटिश व्यवस्था अपने इतिहास से हटाना चाहती है, लेकिन अब वह सबसे सामने है और सिनेमा घरों में उसकी कहानी को देखने एवं सुनने के लिए भारी भीड़ पहुंच रही है. यह बहुत संतोषजनक है.’’ लेखिका ने अपनी पुस्तक में विक्टोरिया और अब्दुल की खास तरह की दोस्ती के बारे में बताया है.

मुंशी करीम का असली नाम हाफिज मोहम्मद अब्दुल करीम था. वो झांसी पास ललितपुर में साल 1863 में पैदा हुआ थे. जब अब्दुल 24 को हुए तो उनकी किस्मत खुल गई. 1887 में ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से दो नौकरों को महारानी को गिफ्ट में दिया गया. उनमें से एक अब्दुल थे. ये महारानी विक्टोरिया के ब्याह के 50 साल होने का मौका था. अब्दुल का चयन करने के लिए आगरा के कलेक्टर ने खुद इंटरव्यू लेकर उसे विदेश भेजा था.

ब्रिटेन जाकर अब्दुल महारानी विक्टोरिया के चहेते बन गए. उन्हें नाम मिला मुंशी. एक साल के अंदर ही वो महारानी को उर्दू और हिन्दी सिखाने लगे. भारत से जुड़े मसलों में राय देने लगे. महारानी ने उसको इंडिया सेक्रेटरी बना दिया. इंडिया में जगह-जमीन दी. उसको हर जगह साथ में ले जातीं

महारानी और मुंशी को लेकर तरह-तरह की बाते हुईं. कहते हैं महारानी उसको लिखे खत के आखिर में होठों से निशान बनाती थीं. कुछ चिट्ठियों में महारानी ने मुंशी को ‘तुम्हारी मां’ और ‘तुम्हारी सबसे खास दोस्त’ भी लिखा है. मगर जब महारानी के पति प्रिंस अल्बर्ट, रानी मरे थे तो रानी ने उनको भी अपना पति, करीबी दोस्त मां और पिता बताया था.

महारानी विक्टोरिया की कामकाज में मदद करते अब्दुल

बताया जाता है कि महारानी अब्दुल को नाइट की उपाधि देना चाहती थीं. शाही परिवार की तिकड़मों के चलते ऐसा नहीं हो पाया. मगर महारानी के रहते अब्दुल शाही महल के अंदर सबसे ताकतवर लोगों में से एक थे. महारानी के विधवा होने के बाद वो और ज्यादा ताकतवर हुए.

1901 में महारानी की मौत के बाद अब्दुल का खराब वक्त आया. उन्हें बर्खास्त कर दिया गया. उनके महारानी के साथ किए गए पत्र व्यवहार को खत्म कर दिया गया. अब्दुल वापस भारत आ गए. 1909 में 46 साल की उम्र में आगरा के पास उनकी मौत हो गई.

श्राबणी बसु बताती हैं कि, ‘‘अब्दुल ही थे जो शाही रसोई तक करी लेकर आए. उस समय शाही परिवार में प्रचलित हुई करी आज यह ब्रिटिश भोजन का हिस्सा बन चुकी है. ब्रिटेन में करी ने करोड़ों पाउंड के उद्योग का रूप ले लिया है.’’