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पश्चिम बनाम रूस के बीच टकराव से नए शीतयुद्ध की आहट तेज

अमेरिकी दबदबे वाली दुनिया में धुंधली पड़ी सोवियत संघ की विरासत को वापस हासिल करने के लिए रूस कमर कस चुका है

Kinshuk Praval

पूर्व केजीबी चीफ से सत्ता के ‘सुपर-चीफ’ बने ‘सुपर ह्यूमन’ कहलाने वाले रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन पर जासूसी के इल्जाम चस्पा हो रहे है. एक के बाद एक देश अपने यहां से रूस के राजनयिकों को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं. ब्रिटेन, अमेरिका और पश्चिमी देशों के आक्रामक रुख पर पलटवार करते हुए रूस ने भी ताल ठोंक दी है. रूस ने अमेरिका के 60 राजनयिकों को देश छोड़कर चले जाने का अल्टीमेटम दे दिया है.


अचानक हुए इस गतिरोध से दुनिया एक बड़े राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में प्रवेश कर रही है. 28 साल बाद एक बार फिर दुनिया पर अमेरिका-रूस के बीच शीत युद्ध का खतरा मंडराने लगा है. अमेरिका ने रूस के राजनयिकों को जासूस बताते हुए 5 अप्रैल तक अमेरिका छोड़ने का फरमान सुनाया है.

ब्रिटेन ने इस मामले में सबसे पहले 23 रूसी राजनयिकों को निष्कासित किया. जिसके बाद रूस ने भी 23 ब्रिटिश राजनयिकों को देश से बाहर जाने का फरमान सुना दिया था.वहीं 14 यूरोपीय देश भी 30 से ज्यादा रूसी राजनयिकों को अपने देशों से बाहर कर चुके हैं.

ये सभी देश एक सुर में रूस पर इंग्लैंड में पूर्व जासूस और उसकी बेटी को जहर देने का आरोप लगा रहे हैं. जिस पर रूस ने धमकी दी है कि वह आरोप लगाने वाले दूसरे देशों के राजनयिकों को भी बाहर करेगा. ऐसे में अब पश्चिमी देशों और रूस के बीच तनाव बढ़ने से दुनिया में अस्थिरता का खतरा बढ़ सकता है.

फोटो रॉयटर से

दरअसल ये सारा तूफान तब उठा जब इंग्लैंड के सेलिस्बरी में रूस के पूर्व जासूस सर्गेई स्क्रिपल और उनकी बेटी यूलिया की हत्या करने की कोशिश की गई. उनको मारने के लिए नर्व एजेंट का इस्तेमाल किया गया. जिसके बाद दोनों को गंभीर हालत में हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ा. इंग्लैंड और अमेरिका ने सबसे पहले रूस पर पर हत्या की कोशिश का आरोप लगाया.

खास बात ये है कि सर्गेई स्क्रिपल पर हुए नर्व एजेंट अटैक के मामले में रूस के खिलाफ कोई भी ठोस सबूत नहीं मिला है. जिससे पश्चिमी देशों की रूस के खिलाफ मोर्चाबंदी कई सवाल खड़े करती है.

ऐसा लगता है जैसे कि पश्चिमी देश रूस के खिलाफ कठोर कार्रवाई का मन बहुत पहले ही बना चुके थे लेकिन उन्हें मौका अब मिला. तभी उनका आक्रमक रवैया इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता है कि इस मामले में रूस की भूमिका है भी या नहीं.

हालांकि जर्मनी के भीतर ही 4 रूसी राजनयिकों के निष्कासन का विरोध देखा जा रहा है. जर्मनी की सरकार के फैसले का विरोध करने वालों का तर्क है कि रूस के खिलाफ नर्व एजेंट हमले का कोई ठोस सबूत नहीं मिला है. ऐसे में सिर्फ कुछ अनुमानों के आधार पर रूस के खिलाफ कार्रवाई गैर जिम्मेदाराना और भड़काऊ है.

अंतरराष्ट्रीय जानकार ये मानते हैं कि नर्व एजेंट से हमले की शुरूआत सोवियत संघ ने ही शीत युद्ध के वक्त की थी. सोवियत संघ पर आरोप लगता था कि वो अपने दुश्मनों को दुनिया के किसी भी कोने में मरवाने या मारने की कोशिश में देर नहीं करता था. ऐसे में इंग्लैंड की घटना में अगर रूस की साजिश शामिल है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

पुतिन की वर्किंग स्टाइल में पूर्व सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी का अंदाज आज भी दिखाई देता है. पुतिन के सत्ता में 18 साल ये साबित कर चुके हैं कि वो जिद्दी, जुनूनी और आक्रामक हैं. सोवियत संघ के गौरव की खातिर वो किसी भी बड़े फैसले से न तो पीछे हटते हैं और न ही फैसला करने में वक्त लेते हैं. उनके सियासी तेवरों में भी जूडो में ब्लैक बेल्ट होने वाला आक्रामक अंदाज दिखाई देता है. ये भी कहा जाता है कि पुतिन का कोई विरोधी इसलिए नहीं है क्योंकि पुतिन को ये पसंद नहीं है.

पुतिन ने रूस को सामरिक और आर्थिक तौर पर मजबूत बना कर रूस को नई पहचान भी दिलाई है. सीरिया युद्ध में रूस की भूमिका के चलते ही अमेरिका चाह कर भी सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद को अपदस्थ नहीं कर सका. अमेरिका की सारी रणनीति को रूस की एन्ट्री ने बैकफुट पर ला दिया. तभी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आज कह रहे हैं कि सीरिया से अमेरिकी सैनिकों की जल्द वापसी होगी.

पुतिन ने ये साबित किया कि दुनिया में ताकतवर बनने पर ही ताकतवर मुल्क भी बराबरी से सम्मान करेंगे.पुतिन ने जब रूस के राष्ट्रपति के तौर पर दोबारा शपथ ली तो ट्रंप ने ही सबसे पहले उन्हें फोन पर बधाई दी. दोनों के बीच गर्मजोशी देखकर एकबारगी लगा कि अमेरिका और रूस के संबंध इतिहास को पीछे छोड़कर नया इतिहास रचने की दिशा में बढ़ रहे हैं.

ये भी माना जाने लगा कि सीरिया से उभरे तनावों को ट्रंप और पुतिन सतह पर ले आए हैं. दरअसल सीरिया-संकट में रूस की एन्ट्री के बाद से ही अमेरिका के साथ संबंधों की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी थी. रूस और अमेरिका एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की जंग में उलझ चुके थे.

रूस ने अमेरिका पर आरोप लगाया था कि वो सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद को सत्ता से हटाने के लिए विद्रोही संगठनों की मदद कर रहा है. जबकि अमेरिका रूस पर सीरिया के निर्दोष नागरिकों के नरसंहार का आरोप लगा रहा था.

सीरिया संकट से उपजे तनाव के बाद ही दोनों देशों के बीच प्लूटोनियम को लेकर हुआ परमाणु समझौता भी टूट गया था. इस समझौते को लेकर भी रूस और अमेरिका में मतभेद खुल कर सामने आए थे.

वहीं रूस की नाराजगी की पुरानी वजहें अलग थीं. नाटो में पोलैंड, हंगरी, चेक रिपब्लिक और तीन बाल्टिक राज्यों को शामिल करने की वजह से भी अमेरिका के साथ तनाव बढ़ा था. तीन बाल्टिक राज्य पूर्व में सोवियत संघ का हिस्सा थे तो नए देश रूस के घोर विरोधी माने जाते हैं. यूक्रेन के पश्चिमी देशों के साथ जाने पर भी रूस की त्योरियां चढ़ीं.

डोनाल्ड ट्रंप जब अमेरिकी सत्ता पर काबिज हुए तो ऐसा लगा  कि उनका रूस के प्रति झुकाव दोनों देशों के बीच मजबूत कड़ी बनेगा. लेकिन विरासत में मिली रणनीतिक चुनौतियों को नजरअंदाज कर रूस के साथ रिश्तों का नया इतिहास रचना ट्रंप के लिए मुमकिन नहीं था.

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूसी हैकिंग के आरोपों के चलते रूस से दूरी बनाना ट्रंप की मजबूरी भी बन गया. तभी रूस के विरोध की नीति को ट्रंप भी आगे बढ़ा रहे हैं क्योंकि अमेरिकी मानसिकता में रूस के लिए दोस्ती की जगह नहीं दिखती है.

तभी ट्रंप ने सत्ता में आने के बाद अबतक का सबसे कड़ा फैसला लिया और रूस के राजनायिकों को खुफिया अधिकारी बताते हुए अमेरिका छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया.

अब बात बढ़ते हुए शीत युद्ध से बहुत आगे भी जा सकती है. पश्चिम देश बनाम रूस की गोलबंदी से दुनिया पर गंभीर आर्थिक और राजनीतिक संकट खड़ा हो सकता है. इस गोलबंदी से पश्चिमी देश बनाम रूस के बीच एक नए कोल्ड वॉर का आगाज हो सकता है.

सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध के वक्त दुनिया एकदम अलग हुआ करती थी. तब दो ध्रुवीय व्यवस्था में छोटे देश अपनी सुरक्षा तलाशते थे. लेकिन अब बहुध्रुवीय दुनिया है.

साम्यवाद के अतीत से निकलकर रूस भी पूंजीवादी हो चुका है जो दुनिया के बाजार में बड़ी भूमिका रखता है. अमेरिका की ही तरह रूस के भी आर्थिक और सामरिक हित अब पूंजीवादी बाजार से जुड़े हुए हैं. ऐसे में कोल्ड वॉर से अगर व्यवसायिक हित प्रभावित हुए तो दुनिया की परिस्थितियों के बदलने में देर नहीं होगी.

बहरहाल अमेरिकी दबदबे वाली दुनिया में धुंधली पड़ी सोवियत संघ की विरासत को वापस हासिल करने के लिए रूस कमर कस चुका है. सवाल रूस के गौरव का भी है जिसे पश्चिमी देशों ने सोवियत संघ के बिखराव के बाद कभी तवज्जो नहीं दी.